सम्पादकीय

यूपी: विपक्ष के नये 'अवतार' में कितने कामयाब हो पाएंगे अखिलेश यादव?

Rani Sahu
23 March 2022 10:13 AM GMT
यूपी: विपक्ष के नये अवतार में कितने कामयाब हो पाएंगे अखिलेश यादव?
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राजनीति में नेता अक्सर नीचे से ऊपर की तरफ जाते हैं

नरेन्द्र भल्ला

राजनीति में नेता अक्सर नीचे से ऊपर की तरफ जाते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने उलटी गंगा बहा दी है. उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर यूपी का विधायक बनना मंजूर किया है. हालांकि सियासी तौर पर उनका फैसला वाजिब ही समझा जायेगा क्योंकि मुख्य विपक्षी दल होने के नाते वे विधानसभा में विपक्ष के नेता बन जाएंगे.
चूंकि प्रतिपक्ष के नेता को मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है, लिहाज़ा उन्हें भी एक मंत्री को मिलने वाली सारी सुविधाएं मिलेंगी. यही कारण है कि अखिलेश ने लोकसभा में विपक्षी सांसद रहने की हैसियत के मुकाबले विधायक बने रहने को ही तरजीह दी है. इसका बड़ा फायदा ये होगा कि वे प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहते हुए अपनी पार्टी की जमीन मजबूत करने में जुटे रहेंगे, ताकि पांच साल बाद सत्ता में लौटने का सपना पूरा कर सकें.
सपा गठबंधन के 125 विधायक बन जाने से इस बार यूपी विधानसभा में विपक्ष पहले से अधिक मजबूत स्थिति में है, लिहाज़ा वह हर अहम मुद्दे पर योगी सरकार को घेरने की रणनीति वाली राजनीति को ही आगे बढ़ायेगा. चूंकि अखिलेश पहले पांच साल सत्ता में रह चुके हैं, इसलिये वे सरकार की खूबियों-खामियों से वाकिफ़ होने के साथ ही ये भी जानते हैं कि किस मुद्दे पर सरकार की कमजोर नब्ज़ को कब व कैसे दबाना है.
हालांकि योगी सरकार को कोई मुश्किल पेश नहीं होने वाली और वो सदन में हर विधेयक को पास भी करा लेगी लेकिन जब विपक्ष थोड़ा मजबूत होता है, तब उसकी मुखर आवाज़ से जनता को ये पता चलता है कि सरकार वाक़ई कहीं अपनी मनमानी तो नहीं कर रही है.
प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने बरसों पहले कहा था-"जिस दिन सड़क खामोश हो जायेगी, उस दिन देश की संसद आवारा हो जायेगी." उनके कहने का अर्थ यही था कि लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका एक 'वॉच डॉग' की है और जनता से जुड़े मुद्दों को लेकर उसे सिर्फ सदन में ही आवाज़ नहीं उठानी होती, बल्कि सड़क पर उतरकर भी लड़ाई लड़नी होती है. फिर चाहे मसला देश की संसद का हो या राज्य की विधानसभा से जुड़ा हो लेकिन सरकार की किसी गलत नीति के ख़िलाफ़ अगर विपक्ष सड़कों पर नहीं उतरता,तो वह लोकतंत्र को कमजोर करने के साथ ही जनता के साथ भी नाइंसाफी ही करता है.
वैसे भी मुलायम सिंह यादव का कुनबा ये कहता आया है कि सपा की राजनीति लोहिया के आदर्शों व विचारों पर चलने की ही रही है. मुलायम तो खुद को लोहिया का राजनीतिक शिष्य कहते रहे हैं. इसलिये अगर अखिलेश यादव पूरे होम वर्क के साथ सरकार को सदन के भीतर व बाहर घेरने की रणनीति को पूरी मेहनत के साथ अंजाम देते हैं, तो उनके लिए विपक्ष का ये नया अवतार वरदान भी साबित हो सकता है क्योंकि वक़्त गुजरते देर नहीं लगती. लेकिन उन्हें अपनी राजनीति में थोड़ा बदलाव लाना होगा और लोगों को ये अहसास कराना होगा कि वे सही मायने में एक जागरुक और जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका को पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं.
अगले पांच साल तक एयरकंडीशन कमरों वाली राजनीति का मोह छोड़कर और यूपी की सड़कों पर उतरकर अगर वे जनता की आवाज बनते हैं, तो इसका सियासी फायदा मिलने का ट्रेलर तो वे दो साल बाद होने वाले लोकसभा चुनावों में ही देख सकते हैं. पर, बड़ा सवाल यही है कि क्या अखिलेश इस नए अवतार का किरदार उतनी ही शिद्दत से निभा पाएंगे?


Rani Sahu

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