सम्पादकीय

उप्र के चुनाव 2024 की पटकथा बदलेंगे, हैरत है कि विपक्ष भाजपा के बजाय खुद को नुकसान पहुंचा रहा है

Rani Sahu
5 Oct 2021 2:58 PM GMT
उप्र के चुनाव 2024 की पटकथा बदलेंगे, हैरत है कि विपक्ष भाजपा के बजाय खुद को नुकसान पहुंचा रहा है
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राजनीति की अच्छी बात यह है कि यह कभी रुकती नहीं है। वर्ना हम जैसे स्तंभकारों को संन्यास लेना पड़ जाए

शेखर गुप्ता राजनीति की अच्छी बात यह है कि यह कभी रुकती नहीं है। वर्ना हम जैसे स्तंभकारों को संन्यास लेना पड़ जाए। पहले यह देखें कि क्या ठहर गया है और किसमें उबाल है। अपना दूसरा कार्यकाल लगभग आधा पूरा कर चुके नरेंद्र मोदी के दबदबे में स्थिरता आ चुकी है। इसे कोई चुनौती नहीं है। वहीं उनकी प्रमुख और स्थायी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पार्टी में उबाल आ रहा है और यह सिर्फ पंजाब के बारे में नहीं है। असल कहानी कहीं ज्यादा जटिल है।

सबसे पहले तो, क्या मोदी की अपराजेयता अभेद्य है? अगर आप इसी बिंदु पर अटके रहें तो ऐसा ही लगेगा। यहां तक कि इंडिया टुडे के नवीनतम मूड ऑफ द नेशन पोल में उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की अगुआई वाला यूपीए सौ के करीब सीटों पर सिमटा नजर आ रहा है।
मोदी और अमित शाह जानते हैं कि 2019 में मतदाताओं की आकांक्षाएं न्यूनतम थी और उनकी जीत में एक बड़ा फैक्टर रसोई गैस, ग्रामीण आवास सहायता, शौचालय और मुद्रा ऋण योजनाओं पर कुशलता से अमल किया जाना था। 2024 के लिए पानी और स्वच्छता को वे अपना वाहक बना रहे हैं। वे जानते हैं कि हमेशा की तरह सीमा पर किसी कार्रवाई, खासकर पाकिस्तान के साथ, के बजाय चीन को लेकर मौजूदा नई तस्वीर अंतिम चरण में राष्ट्रवादी भावनाओं में उछाल ला सकती है।
विपक्ष की तरफ से कोई भी जमीनी स्तर पर मोदी की योजनाओं के प्रदर्शन पर सवाल नहीं उठा रहा है। कोई भी विपक्षी नेता या कार्यकर्ता गड़बड़ियों या घोटालों का पता लगाने, शिकायत करने वालों की सूची तैयार करने, उनकी आवाज बुलंद करने के लिए गांव-गांव की खाक नहीं छान रहा। कोई भी नहीं। आप पूछ सकते हैं कि यदि यह सच है तो क्या इससे यह साबित नहीं होता कि हमारी राजनीति वास्तव में ठहर चुकी है? आइए इस परत को थोड़ा खोलें।
बस कुछ और महीने और 2022 के बसंत से पांच राज्यों में चुनाव प्रचार अभियान जोर पकड़ लेगा। अगर भाजपा उत्तर प्रदेश में नहीं जीतती है, या फिर कम अंतर से ही जीतती है, तो यह 2024 के मूड को भी बदल सकता है। इसी तरह, जब हम राज्यों की बात करते हैं, जिसमें उत्तराखंड और मिजोरम जैसे छोटे राज्य भी हैं, तो हम किसी म्युनिसपलिटी की अहमियत को नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन बृहन्मुंबई नगर निगम महज म्युनिसपलिटी नहीं है। अगर शिवसेना और उसके सहयोगी दलों को हराकर भाजपा इसे जीत लेती है तो राज्य में महा विकास अघाड़ी की सरकार बैसाखी पर आ जाएगी।
भाजपा को तब भरोसा हो जाएगा कि भारत के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक राज्य (48 लोकसभा सीटें) को उसने अपने लिए सुरक्षित कर लिया है। लेकिन अगर शिवसेना बीएमसी में बाजी मार लेती है तो यह संकेत होगा कि भाजपा विरोधी ताकतें महाराष्ट्र में उसके पूर्व सहयोगी के नेतृत्व में मजबूत हो रही हैं।
भाजपा को कोई और बात इतना परेशान नहीं करेगी। लेकिन अगर कांग्रेस नेतृत्व पंजाब फिर से जीत लेता है तो गांधी भाई-बहन की तरफ से बड़े बदलावों और पार्टी की सफाई की कवायद को स्वीकार्यकता मिलेगी। राजनीति में सब कुछ उसी का है जो खेल में जीते। किसी भी स्थिति में, चाहे जो भी कांग्रेस से बाहर चला जाए, गांधी परिवार के पास अपने लगभग 20% मूल राष्ट्रीय वोट को बचाए रखने का एक बेहतर मौका होगा। यह भाजपा के लिए बुरी खबर होगी उसे पंजाब की परवाह नहीं है, लेकिन वह अब भी मानती है कि अगर कोई पार्टी विश्वसनीय तरीके से उसे चुनौती दे सकती है तो वह कांग्रेस ही है।
हालांकि, यह संभव नहीं लग रहा, लेकिन पंजाब में जीत राहुल को वो दे सकती है जिसकी दो दशक की उनकी राजनीति में खासी कमी रही है, एक अदद चुनावी जीत। लेकिन कांग्रेस अगर पंजाब को खो देने के अपने 'अथक और साहसिक प्रयास' में सफल हो जाती है, तो वो पार्टी को पूरी तरह खत्म कर सकती है। क्योंकि मध्य प्रदेश में यह काफी कमजोर है, वहीं राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी भंवर में फंसी है। वास्तव में अभी जो कुछ पक रहा है, वो है विपक्ष की राजनीति। राजनीतिक महत्वाकांक्षा कभी खत्म नहीं होती।
भाजपा को भूल जाइए, उसके कट्टर विरोधी भी अब कांग्रेस को आसानी से अपने हाथ में आ जाने वाला मानने लगे हैं। आम आदमी पार्टी अब पंजाब पर नजरें टिकाए है। मोदी की सबसे सफल और प्रतिबद्ध विरोधी ममता बनर्जी हर छोटे राज्य में अपनी पार्टी के अवशेष जमा कर रही हैं।
कल त्रिपुरा, आज गोवा, कल मेघालय। अब देखते हैं कि इस सबके बीच अमरिंदर और धीरे-धीरे बढ़ते समूह-23 के लिए कैसे जगह बनती है। यह अविश्वसनीय है विपक्ष भाजपा के बजाय खुद को ही इतना नुकसान पहुंचा रहा है। एक-दूसरे को खत्म कर देने की इस उल्लेखनीय कवायद में वामपंथी (केरल में) और कांग्रेस (कन्हैया कुमार) भी एक-दूसरे के नेताओं को अपने खेमे में ला रहे हैं।
जो जीता, खेल उसी का
राजनीति में सब कुछ उसी का है जो खेल में जीते। अगर कांग्रेस नेतृत्व पंजाब फिर से जीत लेता है तो गांधी भाई-बहन की तरफ से बड़े बदलावों को स्वीकार्यकता मिलेगी। यह भाजपा के लिए बुरी खबर होगी। उसे पंजाब की परवाह नहीं है, लेकिन वह अब भी मानती है कि अगर कोई पार्टी विश्वसनीय तरीके से उसे चुनौती दे सकती है तो वह कांग्रेस ही है।


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