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विधानसभा चुनाव
अजय झा.
जैसे जैसे उत्तर प्रदेश का चुनाव (UP Assembly election) अपने चरम पर पहुंच जा रहा है, समाजवादी पार्टी (Samajwadi party)अध्यक्ष और पार्टी के मुख्यमंत्री पद के दावेदार अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के सुरों में बदलाव साफ़ साफ़ दिख रहा है. उनके सुर में आत्मविश्वास कम और बौखलाहट अधिक दिखने लगा है. कहीं ऐसा तो नहीं कि अखिलेश यादव को हार का खौफ सताने लगा है? वैसे अभी भी स्थिति स्पष्ट नहीं है कि उत्तर प्रदेश चुनाव में जीत किसकी होने वाली है. अखिलेश यादव दावा करते दिख रहे हैं कि उनके पार्टी को प्रचंड बहुमत से जीत हासिल होगी. ऐसा ही दावा मायावती भी कर रही हैं. पर सिर्फ दावा करने से चुनाव जीता नहीं जाता, बस पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल बना रहता है और उम्मीद की जाती है कि मतदाताओं का वह वर्ग जो किसी पार्टी के प्रति समर्पित नहीं है और हारने वाली पार्टी के पक्ष में मतदान करके वह अपना वोट जाया नहीं करना चाहते, वह किसी विरोधी पार्टी के पक्ष में वोट ना करे. पर कहीं ना कहीं पराजय का भय अखिलेश यादव को सताने लगा है. आईये एक नजर डालते हैं कि क्या होगा समाजवादी पार्टी का भविष्य अगर पार्टी चुनाव जीतने में असफल रही तो.
लगातार 10 वर्ष सत्ता से दूर रहना
चुनाव हारने की स्थिति में समाजवादी पार्टी लगातार 10 वर्षों तक सत्ता से दूर रहेगी. 10 वर्षों तक सत्ता से दूर रहने से क्या होता है इसे जानने के लिए देखते हैं कि पश्चिम बंगाल में वामदलों का क्या हाल हुआ. 1977 से 2011 तक लगातार सत्ता में बने रहने के बाद वाममोर्चे को 2011 चुनाव में हार का सामना करना पड़ा. मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य स्वयं चुनाव हार गए और वाममोर्चा को 2006 के चुनाव की तुलना में 40 सीटों का नुकसान हुआ. फिर भी वाममोर्चा बहुमत से मात्र 12सीटों से ही पीछे रही. 2016 के चुनाव में वाममोर्चा 32 सीटों पर सिमट गयी और 2021 में यह आंकड़ा शून्य पर आ कर टिक गया. अब स्थिति यह है कि वामदलों के कार्यकर्ता चिराग लेकर ढूंढने से भी नहीं मिलते हैं.
उत्तर प्रदेश में ही अगर देखें तो बहुजन समाज पार्टी का भी उदाहरण है. 2007 के चुनाव में 206 सीटें जीत कर मायावती पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनीं. 2012 में यह आंकड़ा 80 सीटों पर और 2017 में 80 से 19 सीटों पर आ गया. और अब वास्तविकता यह है कि बीएसपी उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतने के लिए कम और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए मैदान में है.कांग्रेस पार्टी का विभिन्न राज्यों में भी यही हाल रहा, सत्ता से जितने समय पार्टी दूर रही उन राज्यों में पार्टी कमजोर होती गयी. केंद्र में कांग्रेस पार्टी लगातार दो बार चुनाव हार चुकी है और अब कांग्रेस पार्टी की सरकार मात्र तीन राज्यों में है. यह संभव है कि 10 मार्च के बाद, जिस दिन पांच राज्यों में वर्तमान दौर में हो रहे चुनावों का नतीजा आयेगा, कांग्रेस पार्टी की सरकार दो राज्यों तक ही सिमट कर रह जाए.
अगर कुछ कट्टर कार्यकर्ताओं को छोड़ दें तो, अधिकतर कार्यकर्ता मौकापरस्त होते हैं. वह ज्यादा समय तक किसी विपक्षी दल का झंडा के कर चलने को तैयार नहीं रहते हैं और दूसरी दलों में शामिल हो जाते हैं. पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के साथ ऐसा ही हुआ और उत्तर प्रदेश में बीएसपी के साथ भी. अखिलेश यादव को यह बात अच्छी तरह पता है कि इस बार भी अगर वह चुनाव हार गए तो उनकी पार्टी के कार्यकर्ता भी बिखरने लगेंगे.
2027 के चुनावों तक मुलायमसिंह यादव सक्रिय राजनीति से दूर हो चुके होंगे
समाजवादी पार्टी अभी तक अपने संस्थापक मुलायम सिंह यादव के नाम से ही जानी जाती है. अखिलेश को उस मुकाम तक पहुंचने में अभी काफी समय लगेगा. मुलायम सिंह पिछले कुछ वर्षों से ख़राब स्वास्थ्य से जूझ रहे हैं और राजनीति में सक्रिय नहीं हैं. इस चुनाव में भी वह जनता के बीच सांकेतिक तौर पर ही यदाकदा दिखे हैं. भगवान मुलायम सिंह को लम्बी आयु प्रदान करे,पर इतना तो तय है कि 2027 के चुनाव में मुलायम सिंह सक्रिय राजनीति से वैसे ही दूर हो जाएंगे जैसे कि वर्तमान में लालकृष्ण अडवाणी, जो जीवित हैं पर सक्रिय राजनीति से दूर हैं.
जब किसी पार्टी का कार्यकर्ता भाग जाता है तो पार्टी काफी कमजोर हो जाती है. पार्टी के पास पैसों और संसाधनों की भी कमी हो जाती है.समाजवादी पार्टी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि अगर इस बार पार्टी की सरकार नहीं बनी हो मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी से खिसकने लगेगा. मुस्लिम समुदाय ऐसे दल को वोट देना पसंद करता है जिसके जीतने की सम्भावना अधिक हो और जो भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में आने से रोक सके. किसी ज़माने में उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट पर कांग्रेस पार्टी का आधिपत्य होता था. 2007 में बीएसपी की जीत का एक बड़ा कारण था मुस्लिम समुदाय का समर्थन, जो अब किसी हद तक खिसक चुका है.
कोर वोटर्स छिटक सकते हैं
लगातार 10 वर्षों तक सत्ता से बाहर रहने से जब पार्टी कमजोर हो जाती है तो वह अपने सहयोगी दलों के सामने घुटने टेकने को विवश हो जाती है या फिर कुछ छोटे दल उस गठबंधन के साथ चले जाते हैं जिसके जीतने की सम्भावना अधिक होती है. वर्तमान चुनाव में समाजवादी पार्टी का कई छोटे दलों से गठबंधन है. समाजवादी पार्टी ने यह तय किया कि कौन सी पार्टी कितने सीटों पर और कहां से चुनाव लड़ेगी. पर लगतार सत्ता से बाहर रहने के बाद किसी पार्टी की हालत वही हो जाती है जो वर्तमान में उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस पार्टी की है. बिहार में उसे राष्ट्रीय जनता दल पर आश्रित रहना पड़ता है और उत्तर प्रदेश में अब यह आलम है कि मजबूरी वश कांग्रेस पार्टी को अकेले चुनाव लड़ना पड़ रहा है, क्योकि समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन करने से साफ़ मना कर दिया.
इस सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हताश को कर समाजवादी पार्टी के यादव समर्थक और कार्यकर्ता, जो पार्टी की रीढ़ की हड्डी के तरह हैं, किसी और पार्टी या किसी अन्य दबंग नेता के साथ ना जुड़ जाए.
बीएसपी के मजबूत होने चिंता बढ़ी
अखिलेश यादव की बढ़ती बौखलाहट का एक कारण है यकायक बीएसपी का मजबूत होकर उभारना, जिस कारण उसके मुस्लिम वोट बैंक पर सेंध लगने लगी है. बीसपी ने इस बार काफी समझदारी से अपने प्रत्याशियों का चयन किया है, और कई ऐसे नेता जिन्हें बीजेपी या समाजवादी पार्टी ने टिकट नही दिया, उन्हें बीएसपी ने अपना लिया है. इनमें कई ऐसे नेता हैं जो अपने क्षेत्र के या अपनी जाति में लोकप्रिय हैं, जिस वजह से बीएसपी की स्थिति थोड़ी बेहतर होती दिखने लगी है. जाहिर सी बात है कि बीएसपी बीजेपी की नहीं बल्कि समाजवादी पार्टी का ही वोट काट रही है.
सत्ता का राजनीति में बहुत बड़ा आकर्षण होता है. लम्बे समय तक सत्ता से दूर रहने से उस पार्टी का जनता के बीच आकर्षण कम हो जाता है. अखिलेश यादव की बढती बौखलाहट एक सन्देश हो सकता है कि धीरे धीरे समाजवादी पार्टी और सत्ता की बीच की दूरी बढ़ने लगी है.
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