सम्पादकीय

यूपी चुनाव परिणाम: विपक्ष की राजनीति का फिल्मी अंदाज और फ्लॉप शो

Gulabi
11 March 2022 9:14 AM GMT
यूपी चुनाव परिणाम: विपक्ष की राजनीति का फिल्मी अंदाज और फ्लॉप शो
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यूपी चुनाव परिणाम
कुमार रहमान।
यूपी चुनाव के नतीजे बीजेपी विरोधियों के लिए अप्रत्याशित जरूर हैं, लेकिन जो लोग राजनीति की गहरी समझ रखते हैं या बीजेपी की सियासत को समझते हैं उनके लिए यह चुनाव परिणाम चौंकाने वाले बिल्कुल भी नहीं हैं। हां, उन्हें यह जरूर लग रहा था कि समाजवादी पार्टी की सीटें पिछले चुनाव के मुकाबले बढ़ेंगी और ऐसा हुआ भी है। दरअसल, जिस पैटर्न पर सपा और बसपा यूपी में चुनाव जीत लिया करते थे, वह दौर अब खत्म हो चला है। इस बार यूपी में मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही था, इसलिए ज्यादा चर्चा इन्हीं दो पार्टियों पर होगी।
सपा ने 2022 का यूपी विधानसभा चुनाव किसी फिल्म प्रोडक्शन के अंदाज में लड़ा है। सुभाष घई की किसी मल्टी स्टारर फिल्म की तरह कुछ स्टार जुटाए गए। कहानी के एक प्लाट पर स्क्रीन प्ले तैयार कराया और अपनी तरह से फिल्म बना डाली। प्रदेश भर में घूमघाम कर प्रमोशन भी कर दिया। फिल्म जब रिलीज हुई तो मालूम हुआ कि फिल्म में कई खामियां हैं और दर्शकों ने उसे नकार दिया।
2017 के यूपी विधानसभा चुनाव हारने के बाद अखिलेश यादव सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी से ही नहीं उतरे बल्कि वह एक तरह से राजनीति के मंच से उतर कर नेपथ्य में चले गए। पूरे पांच साल उन्होंने इसी तरह से गुजारे। बहुत अहम मुद्दों पर भी वह सड़क और संघर्ष से दूर रहे। उन्होंने अमेरिकन और यूरोपियन नेताओं की तरह ट्वीट को अपना हथियार बना लिया। हालांकि वहां के नेता भी सड़क पर दिखते हैं और जनता से जुड़े मुद्दों के लिए भरपूर संघर्ष करते नजर आते हैं।
महंगाई, बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था, महिला अपराध, चिकित्सा जैसे काफी अहम मुद्दों पर पूरे पांच साल सपा अपने बूते कोई आंदोलन खड़ा करने में असमर्थ रही। बहुत अहम मुद्दों पर भी अखिलेश एक ट्वीट भर करके इतिश्री करते रहे। विधानसभा चुनाव की आहट आते ही उन्होंने हर ट्वीट के अंत में दो पंच लाइन डालना शुरू कर दिया, 'बाइस में बाइसकिल' और 'नहीं चाहिए भाजपा'। यह कितना असरदार रहा, यह नतीजे बताने के लिए काफी है। दिलचस्प बात यह है कि आप एक ऐसे प्लेटफार्म पर अपनी बात कह रहे हैं जो आपका बड़ा मतदाता वर्ग यूज ही नहीं करता है। यह काफी हास्यास्पद सा है।
यूपी में फिर से बन रही बीजेपी सरकार
इन पांच वर्षों में यूपी में दो महत्वपूर्ण आंदोलन हुए और एक बड़ी घटना प्रदेश ही नहीं पूरे देश और दुनिया में चर्चा का विषय बनी रही। इस पर भी सपा ने स्टैंड नहीं लिया। सीएए के खिलाफ दिल्ली ही नहीं लखनऊ के घंटाघर और इलाहाबाद में बड़ा आंदोलन चला। इस मामले में कई लोगों के खिलाफ एफआईआर भी हुई और पुलिस लाठीचार्ज में कई नौजवान घायल भी हुए। अखिलेश ने इस आंदोलन से एक खास दूरी बनाए रखी। कहा गया कि अखिलेश यादव मुस्लिम पार्टी होने के लेबल से मुक्त होने के लिए ऐसा कर रहे हैं। इस मुद्दे पर उनसे ज्यादा प्रियंका गांधी मुखर रहीं।
दूसरा बड़ा आंदोलन किसानों का था। अखिलेश के लिए इस आंदोलन के जरिए मौका था गांवों में अपना जनाधार बढ़ाने का, लेकिन उन्होंने जमीनी सियासत से दूरी बनाए रखी। उन्होंने गांव-गांव चौपाल कार्यक्रम जैसी कुछ छुटपुट मुहिम जरूर चलाई, लेकिन वह कुछ दिनों की ही रही। सीएए आंदोलन से दूरी के वक्त कहा गया कि वह रणनीतिक तौर पर दूरी बनाए हुए हैं, लेकिन किसान आंदोलन के वक्त ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी।
इसके बावजूद अखिलेश इस मौके का भी सियासी लाभ नहीं ले सके। इसी तरह हाथरस रेप मामले पर जम कर सियासत हुई। इस मुद्दे पर योगी सरकार बैकफुट पर थी, लेकिन विपक्ष के तौर पर अखिलेश यादव सरकार को घेरने में नाकाम साबित हुए। जब कोई पार्टी जन मुद्दों पर कोई आंदोलन करती है तो उसके साथ जन भावनाएं जुड़ती हैं और यह भावनाएं ही वक्त आने पर वोट में कन्वर्ट होती हैं।
अखिलेश ने अपनी पूरी सियासत का गुणा-गणित जातिगत समीकरण पर निर्भर कर रखा था। यही वजह रही कि यूपी चुनाव नजदीक आते ही उन्होंने उसे साधने की कोशिशें शुरू कर दीं। समीकरण को बनाने में उन्होंने पूरी मशक्कत की। स्वामी प्रसाद मौर्या और उनके साथ आए विभिन्न जातियों में अपनी पैठ रखने वाले कुछ नेताओं के आने से ऐसा माहौल बन गया था मानो सपा की लहर चल रही हो।
अखिलेश यादव की सभा में उमड़ने वाली भीड़ भी कुछ ऐसा ही नजारा पेश कर रही थी। हालांकि यह बिल्कुल साफ बात है कि भीड़ वोट में कभी तब्दील नहीं होती है। इसके बावजूद यह भीड़ न सिर्फ अखिलेश यादव का मनोबल बढ़ा रहे थे, बल्कि विपक्ष को भी लग रहा था कि इस बार यूपी में सत्ता परिवर्तन निश्चित है, लेकिन नतीजों में ऐसा नहीं दिखा।
पूरी तरह से जातीय समीकरण के भरोसे बैठे अखिलेश यादव बहुत सतर्कता के साथ आगे बढ़ रहे थे। आखिरी वक्त तक कई सीटों पर प्रत्याशी बदले जाते रहे। इस पूरी कवायद से ऐसा लगा कि सपा इस बार तीन सौ सीटें पार कर लेगी। मुख्य मीडिया में भले इस समीकरण की ज्यादा चर्चा नहीं थी, लेकिन यूट्यूब चैनलों और सोशल मीडिया पर बड़े-बड़े दिग्गज पत्रकार भाजपा की विदाई के कयास लगा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि चुनाव महज खानापूरी भर बचा है।
यूपी विधानसभा चुनाव 2022
जब कोई जीतता है तो उसकी जीत में उसकी अपनी खूबियां, रणनीति, मेहनत और विजन शामिल होता है, लेकिन हारने वाले की कमजोरियां भी जीत के प्रतिशत को कहीं ज्यादा बढ़ा देते हैं। जिस तरह से बीजेपी ने जमीन पर उतर कर चुनाव की तैयारी की, उसके मुकाबले अखिलेश की मेहनत कहीं नहीं नजर आती है।
बीजेपी की खूबी है कि चुनाव जीतने के बाद वह अगले चुनाव की तैयारियों में लग जाती है। बीजेपी इस चुनाव की तैयारी लोकसभा चुनाव के बाद से ही कर रही थी। वहीं अखिलेश तीन महीने पहले चुनाव के लिए उतरे। ताबड़तोड़ रैलियां, बयान और खुद के बनाए के सहारे चुनाव जीतने उतरे जरूर, लेकिन उनके पास बीजेपी के बयानों और मुद्दों की काट नहीं थी।
नतीजा यह निकला कि अखिलेश यादव ऐन वक्त पर जिन ओबीसी नेताओं को पार्टी में लेकर आए थे, वह अपना वोट सपा में कनवर्ट नहीं करा सके। इसकी मिसाल हम स्वामी प्रसाद मौर्य की बड़े अंतर से हार में देख सकते हैं, जो खुद अपनी सीट ही नहीं बचा सके।
यह बात 2017 के विधानसभा चुनाव में ही साफ नजर आ गई थी कि यूपी की सियासत जातिवाद से निकल रही है। उस चुनाव में प्रदेश के लोगों ने भाजपा को जाति से ऊपर उठ कर वोट किया था। नतीजे में बीजेपी को तीन सौ सीटों से ज्यादा वोट मिले थे। बीजेपी की सियासत कुछ इस तरह की है कि उसके नेता चौबीस गुणे सात सिर्फ सियासत करते हैं। इसके बदले अगर सपा की सियासत की बात करें तो वह सिर्फ चुनाव नजदीक आने पर ही मुखर होती है और उसके नेता जुट जाते हैं।
बीजेपी का कॉडर अपने इलाकों में अपने वोटरों का वोट बढ़वाने और दुरुस्त कराने में साल दर साल लगी रहती है। इसके विपरीत सपा की बात करें तो हर चुनाव में उनकी यही शिकायत रहती है कि हमारे इतने सौ वोटरों के नाम मतदाता सूची से गायब हैं।
अहम बात यह है कि पार्टी नेता खुद कभी अपने वोटरों के वोट मतसूची में बढ़वाने की कोशिश तक नहीं करते दिखते। वोट कितने कीमती होते हैं, इसका एहसास उन्हें उस वक्त ज्यादा होता है जब उनकी हार महज कुछ सौ वोट की होती है।
बहरहाल यूपी की यह जीत अखिलेश की कमजोरियों से ज्यादा बीजेपी की बेहतर रणनीति, मेहनत और विजन की कामयाबी है। उनके नेताओं ने अखिलेश की हर रणनीति का बेहतर तरीके से तोड़ निकाला। इसके एवज में अखिलेश सिर्फ जातिगत समीकरण ही साधने में लगे रहे और नतीजा सभी के सामने है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यूपी की राजनीति भी जातिगत समीकरणों पर नहीं बल्कि मुद्दों पर चलेगी।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदाई नहीं है।
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