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फोटो : एएनआई
यूपी चुनाव नतीज
यूपी के विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ने बहुत जोर-शोर से पदार्पण किया था। माना जा रहा था कि एआईएमआईएम भले कुछ सीटें निकाल ले, लेकिन उससे ज्यादा वह सपा का नुकसान करेगी। जब चुनाव नतीजे आए तो साफ हो गया कि मुस्लिम वोटरों ने उन्हें नकार दिया है। उनकी पार्टी आधा फीसदी वोट भी नहीं पा सकी।
दरअसल, मुस्लिम जमात उनके भाषण सुनना तो पसंद करती है, लेकिन वोट देना नहीं। चुनाव नतीजे बताते हैं कि ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के तमाम प्रत्याशी अपनी जमानत तक नहीं बचा सके। आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश भर में नोटा को पड़े वोटों से भी कम वोट उनकी पार्टी को मिले हैं। यूपी चुनाव में 6,37,304 लोगों ने नोटा का बटन दबाया।
देखा जाए तो यह कुल मतदान का तकरीबन 0.69 फीसदी है। ओवैसी के सभी उम्मीदवारों को मिलाकर 4,50,929 वोट ही मिले हैं। यानी यह कुल वोट का महज 0.49 फीसदी वोट है। एआईएमआईएम ने प्रदेश भर में सौ सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे।
तकरीरें वोट में नहीं बदलतीं
एक जमाने में मौलाना उबैदुल्ला खां आजमी की तकरीरों को सुनने के लिए खूब भीड़ जुटती थी। ऐसी तकरीरें किया करते थे कि सुनने वालों की भुजाएं फड़कने लगती थीं। कैसेटों के दौर में उनकी तकरीरों की चार-पांच लाख कैसेटें तो ऐसे ही बिक जाया करती थीं। कई पार्टियों में रहे। राज्यसभा सांसद भी रहे। उन दिनों उनकी तकरीरों को सुनने के लिए भी खूब भीड़ जुटा करती थी। बाद में उनकी लोकप्रियता घटती चली गई।
इधर, कई वर्षों बाद अब अगर कोई मुस्लिम नेता है, जिससे मुस्लिम युवा खासे प्रभावित नजर आते हैं तो वह हैं असदुद्दीन ओवैसी।
नतीजे बताते हैं कि उनके सौ में से कोई भी प्रत्याशी पांच हजार वोट भी हासिल नहीं कर सका। ऐसी दुर्गति की उम्मीद तो ओवैसी को भी नहीं रही होगी।
आखिर कहां चूक गए ओवैसी?
बिहार विधानसभा चुनाव में पांच सीटें जीतने के बाद वह यूपी चुनाव को लेकर भी खासे उत्साहित थे। उनकी पार्टी को अक्सर बीजेपी की बी टीम कहा जाता है। उन पर यह आरोप इसलिए लगते हैं कि वह बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए चुनाव लड़ते हैं। तमाम सवालों और विरोध के बीच ओवैसी ने यूपी की 403 में से सौ सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे।
अपने को मुस्लिम पार्टी के तमगे से बाहर निकालने के लिए उन्होंने हिंदू प्रत्याशी भी उतारे थे। उन्होंने अपने प्रत्याशियों के पक्ष में जमकर प्रचार भी किया। उन्हें सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग भी आते रहे। चुनावी पंडितों ने भी उस वक्त माना था कि एआईएमआईएम की कुछ सीटें आ सकती हैं।
दस मार्च को जब नतीजे आए तो उनकी पार्टी की बुरी हार की कोई विशेष चर्चा नहीं हुई, क्योंकि सभी का ध्यान सपा की चौंकाने वाली हार पर ज्यादा रहा।
नतीजे बताते हैं कि उनके सौ में से कोई भी प्रत्याशी पांच हजार वोट भी हासिल नहीं कर सका। ऐसी दुर्गति की उम्मीद तो ओवैसी को भी नहीं रही होगी। वैसे इतिहास बताता है कि यूपी के मुसलमान, मुस्लिम पार्टियों के नेताओं के भाषण सुनने तो जरूर जाते हैं, लेकिन वो उन्हें वोट नहीं देते हैं। आजादी के बाद से जितने भी चुनाव हुए हैं, उसमें कोई भी मुस्लिम पार्टी अब तक सिर्फ एक बार चार सीटें ही जीत सकी है।
इतिहास की गलियों में मुस्लिम प्रत्याशी
1968 में मुस्लिम मजलिस नाम की पार्टी वजूद में आई। डॉ. अब्दुल जलील फरीदी उसके प्रमुख नेता थे। एक साल बाद 1969 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने दो सीटों पर प्रत्याशी उतारे।
इधर, दोनों ही उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। दोनों ही उम्मीदवारों को मिलाकर चार हजार वोट भी नहीं मिले। गौर करें तो 52 साल बाद भी स्थिति नहीं बदली है। ओवैसी की एआईएमआईएम का कोई भी प्रत्याशी 2022 के इस विधानसभा चुनाव में पांच हजार वोट भी नहीं पा सका।
इधर, कई वर्षों बाद अब अगर कोई मुस्लिम नेता है, जिससे मुस्लिम युवा खासे प्रभावित नजर आते हैं तो वह हैं असदुद्दीन ओवैसी।
इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के नेता गुलाम महमूद बनातवाला ने 1974 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश भर की 54 सीटों पर उम्मीदवार उतारे। उस चुनाव में एक सीट मुस्लिम लीग जीत सकी। उसे छोड़ कर सिर्फ 10 प्रत्याशी ही ऐसे थे जो अपनी जमानत बचा सके। इसके बाद मुस्लिम लीग ने 2002 के असेंबली चुनाव में फिर यूपी का रुख किया।
इस बार उन्होंने सिर्फ 18 सीटों पर अपने उम्मीदवार लड़ाए, लेकिन सभी को यहां के मुस्लिम वोटरों ने रिजेक्ट कर दिया। 2007 के अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने काफी सोच विचार कर सिर्फ दो सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे। पार्टी को उम्मीद थी कि इस बार उसके प्रत्याशी जरूर जीत जाएंगे, लेकिन मुस्लिम वोटरों ने उन्हें भी मौका नहीं दिया। इसके बाद पार्टी ने यूपी का फिर कभी रुख नहीं किया।
मायावती सरकार में शिक्षा मंत्री रहे डॉ. मसूद ने पार्टी से निकाले जाने के बाद 2002 में नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी बनाई। पार्टी ने पहला ही चुनाव 130 सीटों पर लड़ा। पार्टी सिर्फ एक सीट ही जीत सकी। इस चुनाव में 126 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। 2007 में डॉ. मसूद ने सिर्फ दस सीटों पर प्रत्याशी उतारे। इस बार सभी की जमानत जब्त हो गई।
दिलचस्प बात यह है कि कभी अपने कथित फतवों के लिए चर्चित रहे शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने भी अपनी पार्टी बनाई थी। उनकी पार्टी का नाम यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट था। 2007 के यूपी के विधानसभा चुनाव में कुल 54 सीटों पर मौलाना बुखारी ने अपने प्रत्याशी उतारे।
उन्हें लगता था कि कांग्रेस या उस वक्त की जनता दल को मुसलमान उनके कहने से वोट करते हैं, लेकिन चुनाव के नतीजों ने उनका यह भ्रम दूर कर दिया। उनका सिर्फ एक उम्मीदवार ही चुनाव जीत सका। बाकी सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं ने उन्हें नामंजूर कर दिया। यहां तक कि उनके 51 प्रत्याशी इतने कम वोट ला सके कि जमानत तक जब्त हो गई। इस हार के बाद मौलाना बुखारी ने फिर कभी यूपी का रुख नहीं किया।
इस घटना के ठीक एक साल बाद यानी 2008 में डॉ. अयूब ने पीस पार्टी बनाई। उन्होंने संगठन की मजबूती पर जोर दिया और लोगों के बीच खुद भी पहुंचे। चार साल तक तैयारी करने के बाद 2012 में पीस पार्टी यूपी विधानसभा चुनाव में उतरी। 208 सीटों में से पीस पार्टी सिर्फ चार सीटें ही जीत सकी। 2017 के चुनाव में भी पीस पार्टी ने अपने प्रत्याशी उतारे, लेकिन फिर पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी।
असदुद्दीन ओवैसी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी उतारे थे। उनकी पार्टी ने उस साल 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस बार की तरह 2017 में भी उनके सभी प्रत्याशियों की जमानतें जब्त हो गई थीं। बरेली में दरगाहे आला हजरत परिवार से जुड़े मौलाना तौकीर रजा खां ने भी इत्तेहादे मिल्लत काउंसिल नाम से 2001 में सियासी पार्टी बनाई थी।
2012 विधानसभा चुनाव में पार्टी का एक प्रत्याशी बरेली से जीता भी था, लेकिन फिर यह पार्टी भी धीरे-धीरे सिमटती चली गई। इस तरह से यूपी के मुस्लिमों ने सिर्फ मुसलमानों की सियासत करने वालों को बहुत तवज्जो नहीं दी। इसके मुकाबले उन्होंने धर्म और जात का ख्याल किए बिना उन प्रत्याशियों और पार्टियों को वोट दिया है, जो उनके हित की बात करते हों।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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