सम्पादकीय

UP Election: राजनेताओं के लिए चौधरी चरण सिंह चुनाव जीतने की जादुई दवा हैं

Gulabi
12 Feb 2022 5:36 AM GMT
UP Election: राजनेताओं के लिए चौधरी चरण सिंह चुनाव जीतने की जादुई दवा हैं
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उत्तरप्रदेश के चुनावों में राजनीति का एक पुराना नाम फिर से हीरो हो गया है
विजय त्रिवेदी।
उत्तरप्रदेश के चुनावों (Uttar Pradesh Assembly Election) में राजनीति का एक पुराना नाम फिर से हीरो हो गया है. राजनीतिक दलों को लगता है कि चुनाव में जीत का मंत्र सिर्फ़ इस नाम से जुड़ा है, इसलिए हर कोई उनके नाम की माला जप रहा है. इस हीरो का नाम है – चौधरी चरण सिंह (Chaudhary Charan Singh). किसानों को खुश करना हो, जाट समुदाय को राजी करना हो, मुसलमानों को अपने साथ लेना हो, गरीब- गुरबे को मनाना हो, पश्चिमी उत्तरप्रदेश (Western UP) के वोटर का स्वाभिमान जगाना हो, सब तालों की एक ही चाबी है चौधरी चरण सिंह.
चौधरी चरण सिंह देश के पांचवे प्रधानमंत्री रहे, उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री रहे. कांग्रेस को पहली बार उत्तरप्रदेश से सत्ता से बेदखल करने की बात हो या फिर किसानों के लिए लड़ाई लड़ने की बात हो तो चौधरी चरण सिंह का नाम याद आता है. कुछ लोग चौधरी चरण सिंह को उस प्रधानमंत्री के तौर पर भी याद करते हैं जिन्हें संसद में बोलने का मौका भी नहीं मिला. कुछ लोग उन्हें चतुर राजनेता, अवसरवादी, समझौतावादी, कभी-कभी सांप्रदायिक या वक्त और ज़रूरत के साथ तुरंत बदलने वाले नेता के तौर पर भी देखते हैं. चरण सिंह कांग्रेस के ख़िलाफ खड़े होने वाले नेता भी हैं. जनता पार्टी की सरकार में इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कराने की जिद पर अड़ जाने वाले नेता भी हैं.
चौधरी साहब खुद को सरदार पटेल जैसा ही नेता मानते थे
इंदिरा गांधी की मदद लेकर प्रधानमंत्री बनने वाले नेता का नाम भी चरण सिंह है और फिर कांग्रेस की बेवफाई से अचानक प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने वाले राजनेता भी हैं. शायद कम लोग चरण सिंह के उस व्यक्तित्व को याद रखते होंगे जो गरीबी में बीते बचपन और गांव की पगडंडियों से सत्ता की सर्वोच्च सीढ़ी तक कैसे चढ़ पाए. ऐसा नेता जिसने गरीबी के बावजूद शिक्षा पर ज़ोर दिया. शिक्षा से सत्ता और फिर सत्ता से बदलाव के लक्ष्य को हासिल किया. भले ही अब तक दर्जनों लोग कृषि मंत्री बन गए हों, लेकिन अकेले किसान नेता के तौर पर उनकी ही पहचान रही है.
साल 1929 में कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का ऐलान किया था. चरण सिंह ने इससे प्रभावित होकर गाज़ियाबाद में कांग्रेस कमेटी का गठन किया. साल 1930 में जब सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ तो गाज़ियाबाद में चरण सिंह हिंडन नदी के किनारे पर नमक बनाने पहुंच गए. इस मामले में उन्हें छह महीने की जेल हो गई. जेल से निकलने के बाद चरण सिंह आज़ादी के आंदोलन में शामिल हो गए. मौजूदा राजनीति में दो नाम बहुत याद किए जाते हैं, सरदार पटेल और पंडित जवाहर लाल नेहरू. चौधरी साहब खुद को सरदार पटेल जैसा ही नेता मानते थे, क्योंकि पटेल भी किसानों के नेता के तौर पर देखे जाते थे.
चरण सिंह खुद को नेहरू से कम नहीं आंकते थे और अपना प्रतिद्वन्दी मानते थे. वो उनका विरोध भी करते रहे, लेकिन सीमा नहीं लांघी. नेहरू को भी किसान नेता के तौर पर चरण सिंह की ताकत का अहसास था, इसलिए उन्होंने सहकारी खेती को बढ़ावा देने का इरादा टाल दिया. चरण सिंह किसानों को ज़मीन का मालिकाना हक देने की बात करते रहे. उन्होंने नेहरू की आर्थिक नीतियों का भी विरोध किया. सिंह बाद में इंदिरा गांधी का विरोध भी करते रहे थे. राष्ट्रीय राजनीति में चौधरी चरण सिंह 1974 में आए, जब उन्होंने लोकदल बनाया. आपातकाल के दौरान चरण सिंह भी जेल में रहे. प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी के लिए यह खबर भी कम हैरानी वाली नहीं रही होगी कि चुनावों के ऐलान के दिन ही जयप्रकाश नारायण ने जनता पार्टी के गठन का ऐलान किया. नई पार्टी में कांग्रेस (ओ), जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी और लोकदल ने विलय की घोषणा की. पार्टी की 28 सदस्यों वाली एक्ज़ीक्यूटिव कमेटी भी बना दी गई. इसमें मोरारजी देसाई को चेयरमैन और चौधरी चरण सिंह को वाइस चेयरमैन बनाया गया. इनके अलावा चार महासचिव – लालकृष्ण आडवाणी, मधु लिमये, सुरेन्द्र मोहन और रामधन नियुक्त किए गए.
जेपी ने मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री चुना
चुनाव में जनता पार्टी में शामिल दलों में वाजपेयी के नेतृत्व वाले जनसंघ गुट को सबसे ज़्यादा 93 सीटें हासिल हुई थीं. इसके बाद चरण सिंह के लोकदल गुट को 71, मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली कांग्रेस (ओ) को 44 सीटें, सोशलिस्ट गुट और बाबू जगजीवन राम वाले कांग्रेस फ़ॉर डेमोक्रेसी गुट को 28-28 सीटें मिलीं. सभी राजनीतिक दलों का जनता पार्टी में विलय हो गया था, इसलिए संख्या बल के आधार पर प्रधानमंत्री तय नहीं होना था, साथ ही हरेक गुट से तीन-तीन मंत्री बनाए जाने थे.
प्रधानमंत्री का नाम तय करने की ज़िम्मेदारी जयप्रकाश नारायण पर सौंपी गई. जेपी का स्वास्थ्य तब ठीक नहीं चल रहा था. इसके बावजूद 23 मार्च को जेपी दिल्ली पहुंचें और उन्होंने सभी राजनीतिक दलों के नेताओं और जनता पार्टी के नए चुने हुए सांसदों को यमुना नदी के किनारे महात्मा गांधी के समाधिस्थल राजघाट पर बुलाया और सभी को एकता और देश सेवा की शपथ दिलाई गई. जेपी व्हील चेयर पर बैठे हुए थे, लेकिन इस समारोह में एक अहम चेहरा गायब था- चौधरी चरण सिंह का, जो कहीं नज़र नहीं आ रहे थे. दरअसल विवाद तो उसी दिन शुरू हो गया, जब जेपी ने मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला किया. चरण सिंह उस वक्त भी उत्तरप्रदेश और खासतौर से पश्चिमी उत्तरप्रदेश के बड़े लोकप्रिय नेता थे, लेकिन जेपी सोचते थे कि उनका कद देसाई के बराबर नहीं है.
मोरारजी को नेता चुनने और पीएम बनाने के अधिकार का इस्तेमाल जेपी ने किया और तब से ही खींचतान शुरू हो गई. इसे आगे बढ़ाने का काम किया राजनारायण ने, जो चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे. राजनारायण तो उस वक्त के हीरो थे, क्योंकि उन्होंने इंदिरा गांधी को हरा दिया था और उनकी ही याचिका पर श्रीमती गांधी को कुर्सी छोड़ने पर मज़बूर होना पड़ा था. सरकार में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री और चरण सिंह गृह मंत्री के साथ उप प्रधानमंत्री बने. और राज्य से केन्द्र की राजनीति के प्रमुख चेहरे बन गए. चरण सिंह ने ही गृहमंत्री रहते हुए मंडल कमीशन का गठन किया था, जिससे पिछड़े समाज के लोगों को नौकरियों के मौके मिल सके और एक नई राजनीति का जन्म हुआ. उन्होंने ही गृहमंत्री रहते हुए मंडल कमीशन का गठन किया और बाद में देश की एक बड़ी आबादी सामाजिक न्याय पा सकी और पिछड़े समाज के लोग भी राजनीति और नौकरियों में आ सके.
चौधरी चरण सिंह ने बतौर पीएम एक भी दिन लोकसभा का सामना नहीं किया
जनता पार्टी में विवाद के बाद जब मोरारजी देसाई ने इस्तीफ़ा दे दिया तब चरण सिंह इंदिरा गांधी की मदद से 28 जुलाई 1979 को प्रधानमंत्री बन गए. जनता पार्टी छोड़ कर आए 64 सांसदों के समर्थन के बाद चौधरी चरण सिंह को राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने शपथ दिलाई. चौधरी कांग्रेस की मदद से प्रधानमंत्री बन तो गए, लेकिन कांग्रेस ने संसद का सत्र शुरु होने से एक दिन पहले ही समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी और चरण सिंह देश के इकलौते प्रधानमंत्री रहे जिन्होंने एक भी दिन लोकसभा का सामना नहीं किया. उत्तरप्रदेश के हापुड़ के एक छोटे से गांव में जन्मे चरण सिंह ने 1923 में बीएससी की, 1925 में एम. ए. किया और फिर 1928 में वो बैरिस्टर बने. गाजियाबाद में उन्होंने राजनीति और वकालत दोनों की शुरुआत की. साल 1937 में वो उत्तरप्रदेश में अंतरिम सरकार में विधायक बनते हैं और सरकार में रहने के बावजूद 1939 में कर्जा माफी विधेयक पास कराते हैं. किसानों के खेतों की नीलामी रुकवाते हैं. 1940 में पश्चिमी उत्तरप्रदेश में हुए दंगों को रोकने में लग जाते हैं. 1942 में शुरु हुए भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते हैं.
गांधी के इस चेले की नेहरु से कभी पटी नहीं लेकिन उत्तरप्रदेश की सरकारों में वो अहम ज़िम्मेदारियां निभाते रहे. आज़ादी से पहले साल 1946 में, फिर 1952, 1962 और 1967 में वो विधायक चुने गए. 1946 में ही गोविंद बल्लभ पंत की सरकार में संसदीय सचिव रहे और चिकित्सा स्वास्थ्य विभागों में काम किया. साल 1951 में सूचना और न्याय विभाग के कैबिनेट मंत्री बनाए गए. डॉ सम्पूर्णानन्द की सरकार में 1952 में राजस्व और कृषि मंत्री बनाए गए. इसी दौरान उन्होंने ज़मींदारी प्रथा उन्मूलन विधेयक पास करवाया. फिर 1954 में उत्तरप्रदेश भूमि संरक्षण कानून पारित करवाया. फिर 1959 में उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. साल 1960 में चन्द्रभानू गुप्ता की सरकार में कृषि और गृह विभाग के मंत्री बने. देश और उत्तरप्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी ने उन्हें 1962 में कृषि और वन मंत्री बनाया. 1965 में उन्होंने कृषि विभाग छोड़ दिया.
यूपी में 1967 में वो पहला चुनाव था जब कांग्रेस को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हुआ. तब 423 सदस्यों वाले विधानसभा में कांग्रेस 198 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी तो बनी, लेकिन खुद मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्ता को चुनाव जीतना मुश्किल हो गया था, वो सिर्फ 73 वोटों से जीते थे. दूसरे सबसे बड़े दल जनसंघ को 97 सीटें मिली. तब कांग्रेस ने 37 निर्दलियों और दूसरी छोटी पार्टियों के साथ मिल कर सरकार तो बना ली, लेकिन उठापटक जारी रही. तब चरण सिंह ने नेता पद के लिए सी बी गुप्ता को चुनौती देने का मन बनाया, लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व के दखल के बाद वो मुकाबले से हट गए और गुप्ता नेता चुन लिए गए. चरण सिंह ने गुप्ता के समर्थकों के बजाय खुद के कुछ समर्थकों को मंत्रिमंडल में शामिल करने की शर्त रखी. गुप्ता ने उनकी यह बात नहीं मानी. चरण सिंह का कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ गुस्सा लगातार बढ़ रहा था जो 1967 में कांग्रेस से अलग होने के साथ सामने आया. उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर अपनी नई पार्टी भारतीय क्रांति दल बना लिया. उनके साथ कांग्रेस के 16 विधायक भी आ गए.
1969 में चरण सिंह फिर से यूपी के मुख्यमंत्री बने थे
चरण सिंह ने गुप्ता सरकार में शामिल होने से इंकार किया और गैर कांग्रेसी दलों से बातचीत में लग गए. उन्हें संयुक्त विधायक दल का नेता चुन लिया गया. तब चरण सिंह ने दो विरोधी धुरों जनसंघ ,कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवादियों के साथ मिलकर उत्तरप्रदेश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बना ली. चरण सिंह मुख्यमंत्री बने और जनसंघ की तरफ से रामप्रकाश गुप्त उप मुख्यमंत्री, जिन्हें बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने मुख्यमंत्री भी बनाया था. दूसरे महत्वपूर्ण दल एसएसपी को वित्त मंत्रालय दिया गया. माना जाता है कि उस वक्त चरण सिंह को कांग्रेस से अलग करने में राजनारायण ने अहम भूमिका निभाई थी. उस चुनाव में पहली बार मुसलमानों ने कांग्रेस से दूरी बनाई थी.
इस संयुक्त विधायक दल सरकार को पहली बार सीबी गुप्ता की अगुवाई में कांग्रेस ने चुनौती दी, लेकिन उनका अविश्वास प्रस्ताव गिर गया. सरकार के पक्ष में 220 और विपक्ष में 200 वोट मिले, लेकिन सरकार गिरी अपने अंदरूनी विवादों की वजह से. 18 फरवरी 1968 को चरण सिंह ने राज्यपाल को इस्तीफ़ा सौंपते हुए विधानसभा भंग करने की सिफ़ारिश की, लेकिन राज्यपाल ने उसे नहीं मानते हुए राष्ट्रपति शासन की सिफ़ारिश कर दी. इस सरकार के वक्त उन्होंने सीलिंग से मिली ज़मीन को बांटना शुरु किया. खाद से सेल्स टैक्स हटाया, लेकिन अपने ही लोगों ने उस सरकार को गिरा दिया. 1969 में चरण सिंह फिर से यूपी के मुख्यमंत्री बने.
उत्तरप्रदेश के इस बार के विधानसभा चुनावों में हर राजनीतिक दल चौधरी साहब को याद कर रहे हैं और अपना रिश्ता जोड़ रहे हैं, लेकिन चरण सिंह का पैतृक गांव नूरपुर की मढैया है. हापुड़ जिले के इस गांव में यूपी के मुख्यमंत्री के तौर पर राजनाथ सिंह साल 2000 में आए थे तब उन्होंने यहां राजकीय कन्या इंटर कालेज बनाने का ऐलान किया. गांव के इन्द्रपाल सिंह ने 20 बीघा ज़मीन भी कॉलेज के लिए दी. सरकार ने बाउंड्रीवाल के लिए पांच लाख रुपए भी मंजूर कर दिये, लेकिन कालेज अब तक नहीं बन सका है. इन 22 सालों में 6 बार मुख्यमंत्री बदले हैं राजनाथ सिंह, मायावती, मुलायम सिंह, फिर से मायावती, अखिलेश यादव और फिर योगी आदित्यनाथ. हो सकता है फिर कोई नयी सरकार या नया मुख्यमंत्री बन जाए, या इसी सरकार की वापसी हो, नतीजा कुछ भी हो, राजनेताओं के लिए चरण सिंह सिर्फ चुनाव जीतने की जादुई दवा हैं, बाद में उनकी याददाश्त शायद कमज़ोर हो जाती है.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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