सम्पादकीय

UP Assembly Elections: मुस्लिम तुष्टीकरण और परिवारवाद को गुडबाय करने वाले अखिलेश का एक चेहरा ये भी

Rani Sahu
21 Jan 2022 9:26 AM GMT
UP Assembly Elections: मुस्लिम तुष्टीकरण और परिवारवाद को गुडबाय करने वाले अखिलेश का एक चेहरा ये भी
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मुस्लिम तुष्टीकरण और परिवारवाद को गुडबाय करने वाले अखिलेश का एक चेहरा ये भी

प्रवीण कुमार मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) की छोटी बहू अपर्णा बिष्ट यादव (Aparna Yadav) ने बीजेपी का दामन क्या थामा, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और मुलायम सिंह यादव के इकलौते राजनीतिक वारिस अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) पर तरह-तरह के आरोप मीडिया में सुर्खियां बनने लगी हैं. कोई कह रहा है परिवार की लड़ाई घर की दहलीज के बाहर आ गई, तो कोई लिख रहा है- अखिलेश यादव 'एको-अहम' की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के शिकार हो गए हैं. गैर-यादव ओबीसी नेताओं मसलन राम अचल राजभर, ओम प्रकाश राजभर, संजय चौहान, स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ खड़े होकर, चुनावी मंच साझा कर अखिलेश यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि समाजवादी पार्टी सिर्फ यादव और मुसलमानों की पार्टी नहीं है.

वंशवाद के राजनीतिक आरोपों से बचने के लिए ही अखिलेश ने परिवार के सदस्यों को न तो टिकट दिया और न ही चुनावी गतिविधियों में शामिल किया. 2014 के लोकसभा चुनाव को कौन भूल सकता है जब मुलायम सिंह यादव मैनपुरी और आजमगढ़ से सांसद चुने गए थे, वहीं फिरोजाबाद से रामगोपाल के बेटे, बदायूं से धर्मेंद्र यादव और कन्नौज से डिम्पल जीते थे. मुलायम ने बाद में मैनपुरी सीट खाली की तो उनके दिवंगत भाई रतन सिंह यादव के पोते तेज प्रताप सिंह यादव सांसद चुने गए थे. लेकिन 2022 के चुनाव से सपा का पूरा कुनबा चुनावी परदे से गायब है.
अतीत के पन्नों में सिमट जाएगा परिवारवाद?
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 को लेकर चाहे सपा में प्रत्याशियों के चयन का मसला हो, चुनाव में कैम्पन करने की बात हो या फिर अन्य क्षेत्रीय दलों से चुनावी गठबंधन करने का निर्णय हो, सबमें मुख्य भूमिका में अखिलेश यादव ही दिख रहे हैं. समाजवादी पार्टी पर अरसे से आरोप लगता रहा है कि यह एक परिवार (मुलायम सिंह यादव परिवार) की पार्टी है और यह सच भी है.
2022 के चुनाव में अखिलेश यादव सपा पर परिवारवाद के दाग को मिटाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं. वृद्धावस्था और बीमार रहने की वजह से पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव पार्टी के किसी भी बैठक या रैलियों में शिरकत नहीं करते हैं. चाचा राम गोपाल यादव जो पिछले चुनाव में हर बैठक, हर रैली में बबुआ भतीजे की मदद के लिए मौजूद रहते थे, की मौजूदगी भी इस चुनाव में कहीं देखने को नहीं मिल रही है. चाचा शिवपाल के साथ अखिलेश की तस्वीरें बस उनकी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी से गठबंधन को लेकर हुई बैठक तक ही सीमित रही हैं. पत्नी डिम्पल यादव जो सपा सांसद भी हैं की गैरमौजूदगी सबको चौंका रही है.
परिवार के किसी भी सदस्य को टिकट नहीं देने का फैसला अखिलेश के लिए आसान काम नहीं था. लेकिन बड़े लक्ष्य को पाने के लिए सोच को बड़ा बनाना ही पड़ता है. लिहाजा अखिलेश ने परिवार के खिलाफ ये सब फैसले लिए. निश्चित रूप से अखिलेश यादव इस चुनाव को मुलायम की छाया से बाहर होकर लड़ने का संदेश दे रहे हैं. कहना गलत नहीं होगा कि 'सपा में परिवारवाद' अब अतीत के पन्नों में सिमट जाएगा.
अपर्णा यादव को तो बीजेपी में जाना ही था
बहुत सारे राजनीतिक पंडित और सपा के विरोधी यह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि अखिलेश यादव एको अहम की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के शिकार हो गए हैं और उसकी परिणति अपर्णा यादव के बीजेपी में शामिल होने के रूप में सामने आई है. लेकिन बात तो यहां कुछ और ही है. याद हो तो अखिलेश सरकार के कार्यकाल के अंतिम दिनों में जिस तरह से परिवार में कलह मची थी और उसका असर 2017 के चुनावी नतीजों में भी दिखाई दिया था, 2022 के चुनाव से पहले भी कुछ इसी तरह का कुचक्र रचा गया है. लेकिन पर्दे के पीछे जो लोग अपनी चाल चल रहे थे, वो शायद भूल गए थे कि ये 2022 के अखिलेश यादव हैं 2017 के बबुआ नहीं.
मुलायम परिवार को एक रखने के लिए करीब 16-17 साल पहले एक समझौता हुआ था. यह था मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना यादव की हैसियत को लेकर. तब मुलायम और अखिलेश के बीच जबरदस्त जंग छिड़ गई थी. बाप-बेटे के बीच मतभेद को खत्म करने का जिम्मा तब अमर सिंह ने लिया था. अमर सिंह ने न सिर्फ साधना यादव को परिवार में एंट्री दिलाई, बल्कि अखिलेश यादव को भी मनाया एक समझौते के तहत. समझौते के मुताबिक, मुलायम की राजनीतिक विरासत का इकलौता वारिस अखिलेश यादव को बनाया गया.
साधना यादव के बेटे प्रतीक यादव भले ही कहते रहे हों कि वो कभी राजनीति में नहीं आएंगे, लेकिन उनकी पत्नी अपर्णा की राजनीतिक महत्वाकांक्षा हमेशा से उबाल मारती रही. अपर्णा की जिद्द को अखिलेश ने उसी समझौते की शर्तों से जोड़ दिया. बावजूद इसके मुलायम सिंह यादव ने 2017 में अपर्णा को पार्टी का टिकट दिलवा दिया था. अपर्णा चुनाव हार गईं जिसका दोष भी अखिलेश पर मढ़ा गया कि वह नहीं चाहते थे कि अपर्णा चुनाव जीतें.
खैर रात गई बात गई. लेकिन अपर्णा ने हार नहीं मानी और लगी सीएम योगी और पीएम मोदी की तारीफ करने. सीएम योगी से मुलाकात तक कर ली. राम मंदिर निर्माण के लिए चंदा जुटाने वालों को जहां अखिलेश ने चंदाजीवी कहा था, अपर्णा ने राम मंदिर के लिए 11 लाख रुपए का दान दे दिया. अपर्णा की इन सब कारस्तानियों से अखिलेश ने ऐसी चाल चली कि उसमें क्या अपर्णा, क्या डिम्पल और क्या धर्मेंद्र यादव सब के सब उस जद में आ गए जिसमें फैसला लिया गया कि इस बार के चुनाव में परिवार के किसी भी सदस्य को टिकट नहीं मिलेगा. राजनीति में करियर बनाने के लिए बेताब अपर्णा के लिए यह फैसला उनके अस्तित्व को ही मिटा देने जैसा था. फिर वही हुआ जिसका अनुमान पहले से लगाया जा रहा था. अपर्णा यादव ने बीजेपी का दामन थाम लिया.
मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति से भी तौबा
लंबे राजनीतिक कालखंड में समाजवादी पार्टी के पर्याय रहे मुलायम सिंह यादव को भारतीय जनता पार्टी मौलाना मुलायम तक कहने से नहीं चूकती थी. हमेशा आरोप लगता रहा कि सपा मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करती है, मुसलमानों को सबसे ज्यादा टिकट देती है. लेकिन जब कमान पूरी तरह से अखिलेश यादव के हाथों में आई तो उन्होंने इस तरह की अवधारणा को मिटाने की पूरी कोशिश की. पर्दे के पीछे अखिलेश ने जो भी खेल किया हो, लेकिन लोगों को तो यही दिख रहा है कि सपा-आरएलडी गठबंधन ने मुजफ्फरनगर जिले की 6 में से किसी भी सीट पर मुस्लिम प्रत्याशी न उतारकर बीजेपी के खिलाफ बड़ा दांव चला है.
मुजफ्फरनगर जिले की मीरापुर विधानसभा सीट पर पिछली बार बहुत मामूली वोटों से हारने वाले लियाकत अली को टिकट नहीं मिला. इतना ही नहीं बसपा छोड़कर सपा में आने वाले कादिर राणा को भी किसी सीट पर प्रत्याशी नहीं बनाया गया है. कांग्रेस छोड़कर सपा में शामिल होने वाले इमरान मसूद भी टिकट नहीं मिलने से दुखी हैं. कद्दावर सपा नेता आजम खान जेल में हैं और उन्हें बाहर निकलवाने में भी अखिलेश ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. बावजूद इसके मुस्लिम वोटों को लेकर जितना आश्वस्त अखिलेश यादव हैं उतना कोई और दल नहीं. असदुद्दीन ओवैसी और बसपा की मायावती भी नहीं. कहने का मतलब यह कि अखिलेश यादव बबुआ की छवि से बाहर निकलकर एक परिपक्व राजनीतिज्ञ के तौर पर फैसले ले रहे हैं.
कहते हैं कि राजनीति के धंधे में जो शख्स खुद को पेरता है उसकी खाल यानि चमड़ी तो मोटी हो ही जाती है, उसके मन की गति को भांपना भी जगत-गति को मापने जैसा होता है. अखिलेश यादव को जो लोग बबुआ मान यूपी की राजनीति को अपने हिसाब से चलाने का दंभ पाले बैठे थे, वही लोग उनकी राजनीतिक परिपक्वता पर आज विधवा विलाप करने लगे हैं. बात सिर्फ अपर्णा यादव के बीजेपी में शामिल हो जाने की नहीं है, चाहे परिवारवाद की राजनीति को गुडबॉय कर किसी को भी टिकट नहीं देने का फैसला हो या फिर प्रत्याशी चयन में मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति से दूरी बनाने की रणनीति, ये तमाम फैसले अखिलेश ने अचानक से नहीं लिये हैं और इन तमाम निर्णयों के बड़े राजनीतिक मायने भी हैं. कहें तो अखिलेश की राजनीति परिवारवाद, वंशवाद और मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति से आगे निकल चुकी है. सही मायनों में अखिलेश यादव विशुद्ध समाजवादी राजनीति की तरफ चल पड़े हैं.
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