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अखिलेश यादव की ये 4 गलतियां जो उनके विजय रथ का पहिया रोक सकती हैं
संयम श्रीवास्तव माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में इस समय बीजेपी और समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के बीच सीधी जंग हो रही है. बीएसपी और कांग्रेस कहीं लड़ाई में नहीं है. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की बॉडी लैंग्वेज हो या तमाम मीडिया हाउसेस का उनको दिया जाने वाला तवज्जो इस बात का संकेत है कि प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार बनने जा रही है. एक दम वैसी ही सिचुएशन है जैसी 2004 में केंद्र के चुनाव में बीजेपी की लग रही थी कि बस इंडिया शाइनिंग के साथ बीजेपी की चमकार भी बढ़ने वाली है.
इसी तरह की कुछ हद तक फिजां 2017 में भी अखिलेश का साथ था. जब यूपी के लड़के साथ आ गए थे. पर भारतीय मतदाताओं का मूड भांपना इतना आसान नहीं है. और राजनीति असीम संभावनाओं का खेल कहा भी जाता है. पिछले 2 हफ्तों से यूपी में चुनावी सूचकांक अगर देखें तो समाजवादी पार्टी निसंदेह रूप से आगे चल रही है. बीजेपी के 3 ओबीसी मंत्रियों को अपनी ओर करके समाजवादी पार्टी ने माहौल अपने पक्ष में बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. पर इस बीच समाजवादी पार्टी से कुछ ऐसी गलतियां भी हुईं हैं जो समाजवादी पार्टी के लिए ही नहीं बल्कि पूरे विपक्ष पर भारी पड़ने वाली हैं. और निसंदेह इसका सीधा असर बीजेपी के वोटों पर पड़ने वाला है.
1-बीजेपी के असहिष्णुता के खिलाफ जंग मौलाना तौकीर रजा और नाहिद हसन जैसों के साथ क्या जीत सकेगा विपक्ष
केंद्र में नरेंद्र मोदी और यूपी में योगी आदित्यनाथ की बीजेपी सरकार से मोर्चा ले रहा विपक्ष कोरोना से लड़ने में असफलता, बेरोजगारी, किसानों की समस्या और महंगाई जैसे विषयों को मुद्दा बनाने की जगह गलत जगह अपनी ऊर्जा व्यय करने में लग गया है. इसके पीछे विपक्ष की क्या मजबूरी है या दबाव है ये तो बेहतर ढंग स समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ही बता सकती है.
जिस मौलाना तौकीर रजा पर हिंदुओं के नरसंहार करने की धमकी देने का आरोप है, उसे प्रियंका गांधी अगर कांग्रेस में शामिल कर रही हैं तो बीजेपी के खिलाफ असिहुष्णता की लड़ाई विपक्ष कैसे लड़ सकेगा. विपक्ष किस मुंह से यति नरसिंहानंद की गिरफ्तारी को सही ठहरा सकेगा. किस मुंह से बीजेपी पर देश में सांप्रादायिक ध्रुवीकरण करने का आरोप लगा सकेगा.
आम हिंदू वोटर जब मौलाना तौकीर रजा या नाहिद हसन की करतूतों के वीडियो देखता है तो यही सोचता है कि खूनी या दंगाई के साथ ही रहना है तो यति नरसिंहानंद क्यों बुरे हैं? नाहिद हसन की पार्टी को हम क्यों वोट दें जो खुलेआम कहता है कि जाटों और हिंदुओं की दुकान से सामान न खरीदो. असहिष्णुता इस चुनाव में बहुत बड़ा मुद्दा बन सकता था. क्योंकि आम हिंदू जो योगी के प्रशासनिक कार्यों से संतुष्ट है उसे भी लगता है कि हिंदू-मुस्लिम इस सरकार में कुछ ज्यादा ही हो गया है. इसे कम करना होगा नहीं तो देश और समाज बंट जाएगा. पर ऐसी सोच रखने वाला हिंदू जब देखेगा हम जिसे वोट देने जा रहे हैं वो मौलाना तौकीर रजा और नाहिद हसन जैसों को लेकर घूम रहा है तो वो क्या सोचेगा? विपक्ष को समझना चाहिए कि देश का मतदाता इतना बेवकूफ नहीं है.
2-हिस्ट्री शीटरों को चुनाव लड़ाकर क्या संदेश देना चाहते हैं समाजवादी
अगर मैं सही हूं तो अखिलेश का समाजवादी पार्टी के वोटर्स के इतर दूसरी पार्टियों के वोटर्स के बीच लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण ये था कि उन्होंने समाजवादी पार्टी को उसकी कुख्यात जड़ों से अलग करने की कोशिश की.
अखिलेश ने अपने कार्यकाल के दौरान ही समाजवादी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष एक गैरयादव को बनाकर ये संदेश दिया था कि उन्हें यादववाद के ठप्पा से मुक्त होना है. अखिलेश ने पिछले चुनावों में माफिया को टिकट न देने की नीति अपनाई, जिसके चलते ही मुख्तार अंसारी जैसै लोग टिकट पाने से वंचित रह गए थे. अखिलेश ने डायल 100 की शुरुआत की जिसमें सबसे पहले गिरफ्तारी उन्हीं के लोगों की शुरू हुईं जिनसे ये संदेश गया कि अखिलेश अपने पिता से अलग तरह की राजनीति करना चाहते हैं.
यह भी उम्मीद की गई कि वो अगर अपने परिवार के चंगुल से दूर होंगे तो और अच्छा काम कर सकेंगे. पर इस बार के चुनावों में टिकट बंटवारे में शायद वो कमजोर पड़ रहे हैं. शायद उन्हें भरोसा उन माफिया, ताकतवर नेताओं पर ज्यादा है जो टिकट जीतने का माद्दा रखते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र में अभी भी बाहुबलियों के जीतने के आसार ज्यादा रहते हैं. पर आम मतदाता लोकल लेवल पर गुंडा माफिया को अपना नेता मान सकती है लेकिन सुप्रीम लेवल पर हमेशा वो एक अपने जैसे किसी शख्स को ही देखना चाहती है.
क्योंकि हर आदमी की इच्छा होती है कि देश या राज्य में कानून का राज हो. और कानून का राज माफियाओं के बल पर जीत कर सत्ता पाने वाले कभी नहीं चला सकते. अखिलेश इस बात को जितनी जल्दी समझ जाएं ठीक है, क्योंकि पिछले कार्यकाल के दौरान किए गए उनके कार्य और व्यवहार के कारण जो दूसरे दलों में उनके चाहने वाले पैदा हुए थे वो बहुत जल्दी दूसरे दलों का रास्ता अख्तियार कर लेंगे और उन्हें पता भी नहीं चलेगा.
3-दलित नेता चंद्रशेखर को नाराज करना
प्रदेश में पिछड़ों और अति पिछड़ों को एक करने में जुटी समाजवादी पार्टी प्रदेश की करीब 22 प्रतिशत दलित वोटों के लिए कोई कुर्बानी देने को तैयार नहीं दिख रही है. दलित नेता चंद्रशेखर हो सकता है कि अपनी हैसियत से कुछ ज्यादे सीट मांग रहे हों, पर इस समय उनको नाराज करना समाजवादी पार्टी के लिए कहीं से भी सही निर्णय नहीं कहा जा सकता है. ऐसे समय में जब कहा जा रहा है कि बीएसपी लड़ाई में नहीं है, दलित वोट काफी निर्णायक साबित होने वाले हैं. यह पहले से कहा जा रहा है कि जिन सीटों पर बीएसपी मुकाबले में नहीं है, वहां से दलित वोटरों का बीजेपी को वोट करने का इशारा मिला हुआ है. ऐसे समय में समाजवादी पार्टी अपने साथ चंद्रशेखर को लाकर दलित वोटों के पक्ष में माहौल तो तैयार कर ही सकती थी.
स्वामी प्रसाद मौर्य हों या दारा सिंह चौहान, धर्मसिंह सैनी हों या इमरान मसूद किसी के भी साथ आने से वोट आने की गारंटी नहीं है. पर इन लोगों के आने से जिस तरह समाजवादी पार्टी केपक्ष में माहौल बना है. निसंदेह चंद्रशेखर के आने से भी कुछ ऐसा माहौल दलित वोट के लिए भी क्रिएट होता.
एक तो दलित वोटरों का ओबीसी बिरादरी से वैसे भी 36 का रिश्ता है, दूसरे चंद्रशेखर के कटु वचन उन्हें समाजवादी पार्टी से और दूर ही करने वाले हैं. हो सकता है कि चंद्रशेखर के कहने से दलित समाजवादी पार्टी को वोट नहीं देते, पर इतना तो निश्चित है कि जब चंद्रशेखर अपने वोटरों के बीच में ये बात कहेंगे कि अखिलेश यादव ने उन्हें धोखा दिया है तो वे उनकी बात सुनेंगे और समाजवादी पार्टी को अगर वोट देने वाले होंगे तो जरूर मन बदल लेंगे. चंद्रशेखर अगर सहारनपुर की कुल 7 सीटों पर समाजवादी पार्टी के 5 पर्सेंट भी वोट कम देते हैं तो बीजेपी का खेला हो जाएगा.
4-घर में एक विभीषण पैदा होने देना
रावण बहुत शक्तिशाली था. उसके घर में मेघनाद, कुंभकरण जैसे और भी बहादुर लोग थे, जो पुरी राम सेना को खत्म करने की हैसियत रखते थे. विभीषण राम की सेना के लिए भी कोई मायने नहीं रखता था फिर भी रावण की सेना की हार के लिए सबसे बड़ा कारण बना. अखिलेश की भाभी अपर्णा बिष्ट यादव को बीजेपी में जाने से रोका जा सकता था. ये कोई मुश्किल काम नहीं था. अखिलेश का तर्क है कि लखनऊ की जिस सीट से वो चुनाव लड़ना चाहती थीं उस सीट पर पार्टी के सर्वे में वो हार रही थीं, इसलिए उनका टिकट काट दिया गया था.
अखिलेश को यह बताना चाहिए कि क्या जिसे उन्होंने टिकट दिया है वो चुनाव हंड्रेड पर्सेंट जीत जाएगा, इसकी क्या गारंटी है? घर-परिवार और पार्टी बचाने के लिए कई ऐसै सौदे करने पड़ते हैं जिसमें घाटा होना सुनिश्चित होता है. ये सही है कि अपर्णा के पार्टी छोड़ने से समाजवादी पार्टी को प्रत्यक्ष तौर पर कोई नुकसान नहीं होने वाला है. पर बीजेपी इस तरह के मुद्दे को भुनाने में बहुत माहिर पार्टी है. अपर्णा अगर बीजेपी को छोड़कर कांग्रेस या बीएसपी में गई होतीं तो शायद समाजवादी पार्टी का उतना नुकसान नहीं होता.
Rani Sahu
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