सम्पादकीय

UP Assembly Elections: असदुद्दीन ओवैसी के लिए गठबंधन ज़रूरी भी और मजबूरी भी

Rani Sahu
23 Jan 2022 8:41 AM GMT
UP Assembly Elections: असदुद्दीन ओवैसी के लिए गठबंधन ज़रूरी भी और मजबूरी भी
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असदुद्दीन ओवैसी के लिए गठबंधन ज़रूरी भी और मजबूरी भी

यूसुफ़ अंसारी हैदराबाद से सांसद और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों (Uttar Pradesh Assembly Elections) के बीच एक नए गठबंधन और सत्ता में हिस्सेदारी के नए फॉर्मूले का ऐलान किया है. शनिवार को उन्होंने बाबूसिंह कुशवाहा (Babu Singh Kushwaha) और भारत मुक्ति मोर्चा के साथ गठबंधन का ऐलान किया. गठबंधन में जन अधिकार पार्टी और बामसेफ को भी शामिल किया गया है. गठबंधन में शामिल सभी पार्टियां मिलकर चुनाव लड़ेंगी. इस गठबंधन का संयोजक बाबू सिंह कुशवाहा को बनाया गया है. कुशवाहा कभी बीएसपी में मायावती के बेहद करीबी रहे हैं.

ओवैसी ने कहा कि अगर हमारा गठबंधन सत्ता में आता है तो पांच साल के कार्यकाल में दो मुख्यमंत्री बनाए जाएंगे, जिनमें एक दलित समाज और एक ओबीसी समाज का होगा. दोनों मुख्यमंत्रियों के साथ तीन उपमुख्यमंत्री बनाए जाएंगे, इनमें से एक एक मुस्लिम समाज से होगा. माना जा रहा है कि इस गठबंधन के ज़रिए ओवैसी दलित और ओबीसी वोट बैंक को मुसलमानों के साथ लाकर एक नया राजनीतिक समीकरण बनाने की कोशिश कर रहे हैं. इसको लेकर उन्होंने सीएम और डिप्टी सीएम का ऐलान कर इन वर्गों को साधने का प्रयास किया है. इस गठबंधन मे शामिल पार्टियां समाज के उस हिस्से से आती हैं जिन्हें मौजूदा पार्टियो में वाजिब प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है. इस गठबंधन को 'भागीदारी परिवर्तन मोर्चा' का नाम दिया गया है.
ओवैसी को क्यों पड़ी गठबंधन की ज़रुरत
दरअसल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में ओवैसी अलग-थलग पड़ गए हैं. वो अपनी पार्टी के ज़रिए चुनाव में बड़ी भूमिका तो निभाना चाहते हैं मगर वो ऐसा कर नहीं पा रहे हैं. पहले चरण में वो 58 में से सिर्फ़ 12 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतार पाए हैं. दूसरे चरण के मतदान वाली सीटों पर भी उन्होंने लगभग इतनी ही सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं. कई सीटों पर ओवैसी की पार्टी के उम्मीदवार सत्ता की प्रबल दावेदार एसपी-आरएलडी गठबंधन के साथ ही बीएसपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों के सामने आकर मुकाबले को दिलचस्प बनाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन उन्हें मुस्लिम वोट मिलने की उम्मीद कम ही है. क्योंकि मुस्लिम समाज मे आम धारणा है कि अकेले मुस्लिम वोटों के सहारे ओवैसी की पार्टी अपना खाता तक नहीं खोल सकती. लिहाज़ा ओवैसी गठबंधन के ज़रिए इस धारणा को तोड़ना चाहते हैं. इसी लिए उन्हें इस गठबंधन की ज़रूरत महसूस हुई.
चुनावी समर में कहां खड़े हैं ओवैसी
पहले और दूसरे चरण में मुस्लिम बहुल समझे जाने वाले ज़िलों मे चुनाव होने हैं. इनमें से कई सीटों पर एसपी-आरएलडी गठबंधन, बीएसपी और कांग्रेस ने भी मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं. पहल चरण में 8 सीटों पर एसपी-आरएलडी गठबंधन और बीएसपी के मुस्लिम उम्मीदवार आमने सामने हैं. ऐसी दो सीटों पर ओवैसी के मुस्लिम उम्मीदवार मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि पहले चरण में ओवैसी के कुल 12 उम्मीदवार हैं. इनमें से 9 मुसलमान है. दो सीटों पर उनके उम्मीदवार बीएसपी और कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवारों के समने हैं. तो एक सीट पर कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार के सामने. कयास लगाए जा रहे है. पहले चरण में 19 सीटों पर मुख्य पार्टियों के मुस्लिम आमने सामने हैं. कहीं सीधा तो कहीं त्रिकोणीय संघर्ष हैं. क़यास लगाए जा रहे हैं कि मुस्लिम उम्मीदवारों की आपस में टक्कर वाली सभी सीटें बीजेपी जीत जाएगी.
छवि सुधारने की कोशिश
दरअसल मुस्लिम समाज के बड़े तबक़े में ओवैसी और उनकी पार्टी की वोट कटवा की छवि बनी हुई है. पिछली बार मुस्लिम उम्मीदवारों की आपसी टक्कर वाली सभी सीटें बीजेपी ने जीती थीं. इस बार ऐसा होने के आसार हैं. लेकिन इस बार ऐसा होने पर बीजेपी की जीत का ठीकरा ओवैसी के सिर पर फोड़ा जाएगा.
ओवैसी लगातार एसपी, बीएसपी, आरएलडी और कांग्रेस पर हमलावर हैं. उनके उम्मीदवारों की मौजूदगी कई सीटों पर इन पार्टियों के उम्मीदवारों की स्थिति कमज़ोर कर सकती हैं. उनकी पार्टी को वोट भले ही कम मिले लेकिन ध्रुवीकरण की स्थिति में बीजोपी को फायदा होगा.
इसके लिए ओवैसी को ज़िम्मेदार ठराया जाएगा. लिहाज़ा दलित-पिछड़ी जातीयों के साथ गठबंधन के ज़रिए ओवैसी अपनी वोट कटवा और कट्टर मुस्लिम वाली छवि बदलना चाहते हैं. लिहाजा चुनाव में अपनी अहमियत बनाए रखने के लिए ओवैसी के लिए ऐसा गठबंधन ज़रूरी है. ये उनकू मजबूरी भी है.
100 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा
असदुद्दीन ओवैसी ने उत्तर प्रदेश में 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर रखा है. वह अपनी हर रैली में से बार-बार इस दावे को दोहराते हैं. लेकिन जिस तरह से उनकी पार्टी के उम्मीदवारों की लिस्ट जारी हो रही है, उससे लगता नहीं है कि वह 50-60 से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ पाएंगे.
कुछ दिनों पहले ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मौलाना सज्जाद नौमानी ने ओवैसी को खुला पत्र लिखकर सिर्फ़ उन्हीं सीटों पर चुनाव लड़ने की सलाह दी थी, जहां उनकी जीत सुनिश्चित हो. लेकिन ओवैसी ने इस सुझाव को मानने से साफ इंकार कर दिया था.
लेकिन अब उनके उम्मीदवारों की लिस्ट देखकर लगता है उनके उम्मीदवारों का आंकड़ा शायद 100 तक नहीं पहुंचेगा. शायद यही वजह है कि वह कुछ छोटी पार्टियों से गठबंधन करके उनके लिए सीटें छोड़ने के बहाने अपनी लाज बचना चाहते हैं.
राजभर के साथ बना था भागीदारी संकल्प मोर्चा
करीब 6 महीने पहले ओवैसी ने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर के साथ मिलकर भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाया था. इस गठबंधन में कई पार्टियां शामिल थीं. तब सत्ता में बंटवारे का जो फार्मूला दिया गया था उसके तहत 5 साल में एक-एक साल के लिए 5 मुख्यमंत्री बनने थे. इनमें से एक मुख्यमंत्री मुसलमान होना था. हर मुख्यमंत्री के साथ 4 उपमुख्यमंत्री बनने थे. इनमें एक मुसलमान होना था. इस तरह पांच साल में पांच मुख्यमंत्री और 20 उपमुख्यमंत्री बनाकर राजभर छोटी-छोटी दलित और पिछड़ी जातियों को सत्ता में हिस्सेदारी देना चाहते थे. मोर्चे के गठन के वक्त ओमप्रकाश राजभर ने असदुद्दीन ओवैसी को भी यूपी का मुख्यमंत्री बनाने के सपना दिखाया था. लेकिन कुछ ही दिन बाद राजभर पाला बदलकर अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने में जुट गए. राजभर का क़दम ओवैसी के लिए बड़ा झटका था.
हर राज्य में ओवैसी को मिला झटका
ओमप्रकाश राजभर से मिले झटके के बाद से ही ओवैसी गठबंधन के लिए पार्टियों की तलाश में थे. बताया जाता है कि ओवैसी ने समाजवादी पार्टी, बीएसपी, कांग्रेस और आज समाज पार्टी समेत सभी से गठबंधन करने की कोशिश की थी. लेकिन कहीं उनकी दाल नहीं गली. कई टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने इस पर अफसोस भी ज़ाहिर किया कि उनकी पार्टी से कोई गठबंधन नहीं करना चाहता. तो उनके पास अकेले चुनाव लड़ने के सिवा भला विकल्प क्या है.
ओवैसी के साथ लगभर हर राज्य में ऐसा ही होता रहा है. बिहार में ओवैसी राजद-कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा बनना चाहते थे. लेकिन तेजस्वी और राहुल ने उन्हें भाव नहीं दिया. लिहाज़ा उन्होंने बीएसपी से गठबंधन करके पांच सीटें जीतीं. माना जाता है कि ओवैसी की वजह से बिहार में महगठबंधन सत्ता में आने से चूक गया. पश्चिम बंगाल में मशहूर सफूरा शरीफ के मौलाना अब्बास सिद्दीक़ी ने ऐन चुनाव से पहले ओवैसी को झटका दिया था.
अब जाकर ओवैसी को ऐसी पार्टियों का साथ मिल ही गया, जो खुद का वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं. उत्तर प्रदेश की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में इन पार्टियों के गठबंधन का कोई ख़ास वजूद तो नज़र नहीं आता, लेकिन अगर यह गठबंधन चुनाव के बाद भी क़ायम रहता है और लगातार समाज के बीच काम करता है तो ये सूबे में नए समीकरणों को जन्म दे सकते हैं. लेकिन इनका पिछला रिकॉर्ड चुनाव में गठबंधन करना और उसके बाद बिखर जाने का रहा है.
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