सम्पादकीय

UP Assembly Elections: आज़ादी के बाद यूपी में हर राजनीतिक प्रयोग का हिस्सा रहे हैं मुसलमान

Gulabi
25 Dec 2021 4:55 AM GMT
UP Assembly Elections: आज़ादी के बाद यूपी में हर राजनीतिक प्रयोग का हिस्सा रहे हैं मुसलमान
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यूपी में हर राजनीतिक प्रयोग का हिस्सा रहे हैं मुसलमान
यूसुफ़ अंसारी.
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में दो महीने बाद 18वीं विधानसभा के चुनाव (Assembly Elections) होने हैं. इसे लेकर चुनावी सरगर्मियां ज़ोरों पर हैं. चुनाव नजदीक आते देख सभी राजनीतिक दल अपनी स्थिति मज़बूत करने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं. सूबे के करीब 20 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं (Muslim Voters) को रिझाने के लिए भी हर पार्टी, हर हथकंडा अपना रही है. हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी कई तरह के राजनीतिक प्रयोग हो रहे हैं. सभी प्रयोग मुसलमानों को लेकर हैं. ख़ास बात यह है कि आज़ादी के बाद मुसलमान उत्तर प्रदेश में हुए सभी राजनीतिक प्रयोगों का अहम हिस्सा रहे हैं.
इस चुनाव में बीजेपी भी पिछड़े मुसलमानों के सहारे मुस्लिम समाज में घुसपैठ की रणनीति पर चुपचाप काम कर रही है. हालांकि अभी तक बीजेपी मुस्लिम वोटों के विभाजन के आधार पर अपनी जीत सुनिश्चित करत रही थी. यह पहला मौका है जब उसने कुछ सीटों पर मुस्लिम वोट हासिल करके अपनी जीत सुनिश्चित करने की रणनीति बनाई है. वहीं बीजेपी को पटखनी देने के लिए समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) भी मुस्लिम वोटों पर भरोसा करके चल रही है. उसे उम्मीद है कि बीजेपी को टक्कर देने की स्थिति में दिखने पर ही मुस्लिम वोटों का सबसे बड़ा हिस्सा उसे मिलेगा. बीएसपी और कांग्रेस के साथ असदुद्दीन ओवैसी समेत कई मुस्लिम नेतृत्व वाली पार्टियां भी मुसलमानों के वोटों के दम पर चुनावी मैदान में उतर रही हैं.
कांग्रेस के ख़िलाफ़ पहली बग़ावत
अब उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास पर नज़र डालते हैं. आज़ादी के बाद हुए पहले चार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की तूती बोलती रही. कांग्रेस एकतरफा जीत हासिल करती रही. 1967 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस में अंदरूनी उठापटक हुई. चौधरी चरण सिंह ने चंद्रभानु गुप्त को मुख्यमंत्री बनाने का खुला विरोध किया. उन्होंने कंग्रेस आलाकमान के सामने कई शर्ते रखीं. शुरू में को कांग्रेस ने हामी भरी लेकिन बाद में शर्ते मानने से साफ इंकार कर दिया. चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर भारतीय क्रांति दल बना लिया. 19 दिन बाद ही चंद्रभानु गुप्त को इस्तीफा देना पड़ा. चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री बने. हालांकि वो साल भर भी मुख्यमंत्री नहीं रह सके. 328 दिन बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया. विधानसभा भंग हो गई.
गैर कांग्रेसवाद का पहला राजनीतिक प्रयोग
1969 में हुए मध्यावधि चुनाव में चौधरी चरण के भारतीय क्रांति दल ने कांग्रेस को जबरदस्त टक्कर दी. यूपी की राजनीति में कांग्रेस के खिलाफ़ ये पहला पहला राजनीतिक प्रयोग था. चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में भारतीय क्रांति दल ने 98 सीटें जीतीं. इस जीत में मुस्लिम समाज का बड़ा योगदान था. यहीं से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम के जिताऊ समीकरण की खोज हुई. इसी की बदौलत कांग्रेस से निकलकर चौधरी चरण सिंह खुद को एक बड़े नेता के रूप में स्थापित कर सके. पहले वो उत्तर प्रदेश के बड़े नेता के रूप में उभरे. फिर देश के बड़े नेता बन गए. उत्तर प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री बनने के बाद केंद्र में गृह मंत्री, उपप्रधान मंत्री और प्रधान मंत्री की कुर्सी तक पहुंचे.
आपातकाल के बाद पहला चुनाव
देश में आपातकाल लगाए जाने के बाद हुए 1977 के आम चुनाव के साथ ही उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव भी हुए थे. यह चुनाव कांग्रेस विरोध के नाम पर लड़ा गया था. आम मतदाता पूरी तरह कांग्रेस के खिलाफ था. यह मुसलमान भी अपवाद नहीं थे, आजादी के बाद से ही कांग्रेस का मजबूत वोट बैंक समझे जाने वाले मुसलमानों ने इस चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया. इस चुनाव में कांग्रेस का केंद्र और कई राज्यों के साथ उत्तर प्रदेश से भी लगभग सफाया हो गया था. उसे सिर्फ 47 सीट मिली थीं. जबकि जनता पार्टी 352 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत से सत्ता मे आई थी. इस तरह गैरकांग्रेस वाद के इस पहले संगठित राजनीतिक प्रयोग का मुसलमान अहम हिस्सा थे.
आपातकाल के बाद दूसरा चुनाव
दो साल बाद ही देश भर के हालात बदले. केंद्र में जनता पार्टी की सरकार नेताओं की आपसी खींचतान की वजह से गिर गई. कई प्रदेशों में भी ऐसा ही हुआ. 1980 में दोबारा हुए लोकसभा और कई प्रदेशों के साथ उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस ने दमदार तरीके से सत्ता में वापसी की. जब आम मतदाता कांग्रेस की तरफ लौट रहा था तो उसके साथ मुसलमानों ने भी दोबारा कांग्रेस का दामन थामना मुनासिब समझा. कांग्रेस ने चुनाव प्रचार में विपक्ष को यह कहकर खारिज किया कि इनके बस का सरकार चलाना नहीं है. जनता ने कांग्रेस की इस बात पर मुहर लगाते हुए देश और कई प्रदेशों की सत्ता उसे फिर सौंप दी. कांग्रेस की इस बड़ी जीत में मुसलमानों का भी अहम योगदान था.
राजीव गांधी के खिलाफ वीपी सिंह की हुंकार
लगभग एक दशक बाद 1989 में हुए लोकसभा और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर नया प्रयोग हुआ. राजीव गांधी के खिलाफ वीपी सिंह तन कर खड़े हो गए थे. वो प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक उम्मीदवार बन कर उभरे. उन्होंने जनता दल की अगुवाई में राष्ट्रीय मोर्चा बनाया था. कांग्रेस के कई बड़े मुस्लिम नेता भी वीपी सिंह के साथ आ गए थे. इसी चुनाव में राजीव गांधी ने अयोध्या से अपने चुनावी अभियान की शुरुआत की थी. मुसलमानों में इसे लेकर गुस्सा था. मुसलमानों ने कांग्रेस को झटका दिया. केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों जगह जनता दल की सरकार बनी. वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने और मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री. इस राजनीतिक प्रयोग में भी मुसलमानों की अहम हिस्सेदारी थी.
मंडल बनाम कमंडल की रीजनीति
इसी चुनाव में बीजेपी भी एक बड़ी ताक़त के रूप में उभरी थी. लोकसभा में भी और उत्तर प्रदेश में भी. वीपी सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद जनता दल में अंदरूनी खींचतान हुई. अपनी कुर्सी बचाने के लिए वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं. पिछड़े वर्गों को आरक्षण दे दिया. बीजेपी ने इसके खिलाफ कमंडल निकाल लिया. लालकृष्ण आडवाणी अयोध्या में राम मंदिर बनाने की मांग को लेकर सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा लेकर निकल पड़े. उत्तर प्रदेश पहुंचने से पहले उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने गिरफ्तार कर लिया. लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति पर इसका असर पड़ा. मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद बचाने के लिए कारसेवकों पर गोली चलवा दी थी. यहां से वो 'मौलाना मुलायम' कहलाए. मुसलमान मुलायम सिंह के पीछे खड़े हो गए.
'रामलहर' में 'मौलाना बने मुलायम'
संप्रदायिक ध्रुवीकरण के माहौल में 1991 के लोकसभा और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हुए. केंद्र में तो कांग्रेस जैसे तैसे वापसी कर गई. लेकिन बीजेपी ने उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल कर ली. कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने उन्हीं के मुख्यमंत्री रहते 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहा दी गई. यह सब हुआ केंद्र की तरफ से भेजे गए अर्धसैनिक बलों की तैनाती के बीच. देश के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव पर जानबूझकर मस्जिद गिरवाने के आरोप लगे. यहां से मुसलमानों का कांग्रेस से पूरी तरह मोह भंग हो गया. 'मौलाना मुलायम' मुसलमानों के एक मात्र मसीहा बनकर उभरे. मुस्लिम वोटों के ज़रिए दोबारा सत्ता तक पहुंचने के चक्कर में पहले उन्होंने वीपी सिंह से नाता तोड़ा और फिर चंद्रशेखर से भी किनारा कर लिया.
बाबरी मस्जिद गिरने के बाद पहला चुनाव
बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद उत्तर प्रदेश समेत बीजेपी की 4 राज्यों की सरकारें बर्खास्त और विधानसभा भंग कर दी गई थी. 1993 में विधानसभा चुनाव हुए तो उत्तर प्रदेश में एक नया राजनीतिक प्रयोग हुआ. मुसलमानों का बड़ा तबका मुलायम सिंह को एक मसीहा के रूप में देख रहा था. लेकिन इस बीच कई चुनावों में कांशीराम और मायावती दलित-मुस्लिम जिताऊ गठबंधन का प्रयोग कर चुके थे. कई लोकसभा और विधानसभा सीटों पर ये गठजोड़ असरदार साबित हो चुका था. ऐसे में मुलायम सिंह और कांशीराम ने आपसी गठबंधन का नया राजनीतिक प्रयोग किया. यह प्रयोग मुसलमानों के एकमुश्त वोट हासिल करने के लिए था. ऐसा हुआ भी. तब यूपी की राजनीति में नारा लगा था 'मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गया जय श्री राम.'
रामलहर के बावजूद बीजेपी की हार
कट्टर हिंदू और राम लहर के बावजूद बीजेपी इस गठबंधन के आगे चुनाव हार गई. हालांकि चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. उसे 175 सीटें मिली थीं. लेकिन वह सरकार नहीं बना पाई. सरकार बनी एसपी-बीएसपी गठबंधन की. इस गठबंधन को सत्ता तक पहुंचाने का पूरा श्रेय गया मुसलमानों को. दलित, पिछड़ों और मुसलमानों के इस जिताऊ गठजोड़ ने बीजेपी और संघ परिवार को हैरान कर दिया था. करीब डेढ़ साल बाद बीजेपी ने मायावती को मुख्यमंत्री पद का ख़्वाब दिखा ये गठबंधन तुड़वा दिया. मायावती बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बन गईं. एसपी-बीएसपी गठबंधन टूटते ही मुसलमान दोनों खेमों में बंटकर रह गया. उसकी ताक़त कम हो गई. इसका नतीजा यह रहा कि प्रदेश में करीब एक दशक तक किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं हासिल नहीं हुआ.
नहीं चला दलित-मुस्लिम गठजोड़ का जादू
इस बीच कई और राजनीतिक प्रयोग हुए. 1996 में बीएसपी ने कांग्रेस से गठबंधन किया. मुसलमानों के साथ लाने के लिए दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अब्दुल्ला बुखारी को साथ रखा गया. बुखारी कांशीराम और मायावती के साथ पूरे सूबे में घूमें. लेकिन बीएसपी 1993 में जीती अपनी 67 सीट ही जीत पाई. वहीं एसपी भी 110 सीटे जीत सकी. 2002 के विधानसभा चुनाव में भी मुसलमानों में इस बात को लेकर भ्रम की स्थिति रही कि बीजेपी को टक्कर देने में एसपी आगे है या बीएसपी. लिहाज़ा उनका वोट दोनों पार्टियों में बंटा. त्रिशंकु विधानसभा में पहले बीएसपी-भाजपा की सरकार बनी. मायावती मुख्यमंत्री बनी. करीब सालभर बाद उन्होंने इस्तीफा दिया तो जोड़-तोड़ से मुलायम सिंह यादव ने सत्ता में वापसी कर ली.
माया की सोशल इंजीनियरिंग और मुलायम का दांव
जब मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए दलितों के साथ पिछड़ी जातियों को भी सत्ता में भागीदारी के नाम पर अपने साथ मिलाया तो मुसलमान भी उसके साथ हो लिए. इस तरह 2007 में पहली बार बीएसपी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई. मायावती ने पहली बार बतौर मुख्यमंत्री अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया. इस दौरान मायावती पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे. 2012 का विधानसभा चुनाव आते-आते पासा पलट गया. मुसलमानों ने मुलायम पर भरोसा जताया. हालांकि उस चुनाव में पीस पार्टी मुस्लिम वोटों की दावेदार बनकर उभरी थी. लेकिन मुसलमानों ने मुलायम पर भरोसा किया. एसपी पहली बार 225 सीटें जीती. इसी चुनाव में आजादी के बाद सबसे ज्यादा करीब 70 विधायक मुस्लिम विधायक चुने गए थे. इनमें से करीब 45 समाजवादी पार्टी से थे.
पिछला यानि 2017 का विधानसभा बीजेपी का था. 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उत्तर प्रदेश में उन्हीं के नाम प्रदेश की जनता ने पर बीजेपी को मौका दिया. हालांकि अखिलेश यादव ने अपनी सत्ता बचाने के लिए कांग्रेस से गठबंधन किया था. लेकिन इस के बावजूद उनकी पार्टी 50 सीटों का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई. कांग्रेस पहली बार दहाई के आंकड़े से भी पीछे रह गई. चुनावी विश्लेषक मानते हैं कि एसपी, बीएसपी और आरएलडी का जातीय आधारित वोट हिंदुत्व के नाम पर बीजेपी के साथ चला था. उन पार्टियों के साथ सिर्फ मुस्लिम वोटर ही रह गया था. इस तरह मोदी योगी के आभा मंडल ने मुस्लिम वोट बैंक के तिलिस्म को तोड़ दिया. आने वाले चुनाव में क्या मुस्लिम वोटर सत्ता में बदलाव कर पाएंगे या 2017 की तरह बेअसर साबित होंगे यह चुनावी नतीजे ही बताएंगे.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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