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यूपी के विधानसभा चुनाव (UP Assembly Elections) नजदीक हैं
वरुण कुमार यूपी के विधानसभा चुनाव (UP Assembly Elections) नजदीक हैं, तमाम लोग अपनी अपनी तरह से चुनावों के गणित को समझाने और सुलझाने में जुटे हैं. हर चौक-चौबारे पर, हर चाय के अड्डे पर, हर नाई की दुकान पर और हर मधुशाला में यही चर्चा हो रही है कि इस बार यूपी में क्या होने वाला है? इस सवाल का जवाब तो बड़े-बड़े दिग्गज भी तलाश रहे हैं.
तमाम कंपनियां सर्वे करा रही हैं, राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी और बड़े राजनीतिक विश्लेषक भी इसी सवाल का हर निकालने में जुटे हैं. पुराने डेटा को खंगाला जा रहा है, जातिगत समीकरण और सोशल इंजीनियरिंग के पैमानों पर चीजों को कसा जा रहा है. मुख्यधारा के मीडिया वाले और तमाम तरह के सोशल मीडिया वाले पत्रकार भी यूपी की यात्राओं पर निकले हुए हैं, लेकिन क्या यूपी की जनता का दिल टटोलना वाकई इतना ही आसान है?
विधानसभा चुनाव करीब लेकिन मायावती सक्रिय क्यों नहीं?
तमाम लोग समझना चाहते हैं कि जब अखिलेश सक्रिय हैं, योगी सक्रिय हैं, प्रियंका सक्रिय हैं तो मायावती कहां हैं? वो कौन सी तैयारी कर रही हैं? सभी इस बात को जानते हैं कि मायावती को कम करके आंका नहीं जा सकता. वो ऐसी नेता हैं जिनके पास वोटवैंक भी है और अनुभव भी है. लेकिन उनका बाकी नेताओं की तरह ना दिखना उनके चाहने वालों को खलता भी है. खास तौर पर दलित युवा वर्ग को, जो सोशल मीडिया को देखकर अपनी राय बनाता है. घर के बड़े तो हाथी पर बटन दबा देंगे लेकिन क्या ये युवा लोग बीएसपी पर भरोसा करेंगे? वो भी तब, जब भीम आर्मी के लोग सोशल मीडिया के जरिए ऐसा युवाओं का दिल जीतने में जुटे हैं.
बीजेपी भी इसी युवा वर्ग को अपने पक्ष में करना चाहती है. वहीं मायावती और उनकी पार्टी सोशल मीडिया पर अभी भी काफी पीछे हैं. दूसरी ओर पार्टी का लगातार ब्राहम्ण सम्मेलन करना और सर्वजन की बातें करना भी काफी लोगों को रास नहीं आ रहा है. वॉट्सऐप पर भड़काऊ मैसेज देखने वाले ऐसे हजारों-लाखों लोग हैं जो खुद भी सोशल मीडिया पर आक्रमक हैं और मायावती से भी आक्रमक होने की उम्मीद रखते हैं लेकिन मायावती का रवैया उनकी समझ में नहीं आ रहा है. मायावती खुद भी इस बात को समझती होंगी कि ये चुनाव उनके लिए बेहद खास है क्योंकि वे अभी करीब 65 साल की हैं और बार-बार उनके उत्तराधिकारी को लेकर सवाल उठते हैं.
अखिलेश यादव की सभाओं वाली भीड़ वोटों में तब्दील होगी?
अखिलेश की सभाओं में इन दिनों बहुत भीड़ उमड़ रही है. अखिलेश ने चौधरी जयंत सिंह से हाथ मिला लिया है, चाचा शिवपाल को भी गले लगा लिया है. और तो और खुद पीएम भी 'लाल टोपी' का जिक्र कर चुके हैं. यानि विरोधी भी उन्हें गंभीरता से ले रहे हैं. लेकिन सवाल ये कि क्या ये भीड़ वोटों में कन्वर्ट होगी? क्या अखिलेश जनता को अपनी बात समझा पाएंगे और क्या जनता इस बार अखिलेश को मौका देगी? 2012 में अखिलेश बेशक सीएम थे, लेकिन उनकी पार्टी के अन्य बड़े नेता भी उनकी कार्यप्रणाली पर अक्सर हावी नजर आते थे. बाद में हालात बिगड़े और बहुत बिगड़े. पार्टी दो फाड़ हो गई. अखिलेश राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए, मुलायम सिंह मार्गदर्शक की स्थिति में आ गए. मंच पर हुए बवाल को पूरे देश ने देखा.
2017 में वो जीत नहीं पाए, 2019 के लोकसभा चुनाव में भी प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा. अखिलेश की सरकार के दौरान लिए गए फैसलों पर बीजेपी ने काफी सवाल भी किए. इसके बाद भी अखिलेश डटे रहे, जमे रहे और बीजेपी से पूरा दम खम लगाकर भिड़े रहे. इसका फायदा तो मिलेगा. बीजेपी के खिलाफ जो जनता है वो अखिलेश में अवसर देख रही है लेकिन इसके बाद भी उन्हें जीत के लिए बहुत संघर्ष करना होगा. बयानों के तीरों को थोड़ा और समझकर चलाना होगा. माया की तरह अखिलेश के पास उम्र की तो फिलहाल कोई दिक्कत नहीं है लेकिन अगर इस बार वे जीत नहीं पाए तो उनके नेतृत्व और गठबंधन के फैसलों पर तमाम सवाल खड़े हो सकते हैं.
प्रियंका गांधी बना सकेंगी कांग्रेस को तीसरे नंबर की पार्टी?
कांग्रेस के नेता भले लाख जीत के दावे करें लेकिन वो जानते हैं कि उनकी पार्टी सरकार बना नहीं सकती. संगठन कमजोर है और स्टार नेताओं की भी कमी है. बीजेपी ने पिछले 10 सालों में जिस पार्टी को सबसे अधिक नुकसान दिया है, वो कांग्रेस ही है. बात यूपी की करें तो कांग्रेस का प्रदर्शन पिछले विधानसभा चुनावों से लेकर लोकसभा चुनावों तक में अच्छा नहीं रहा है. लेकिन जिस तरह से फिलहाल पार्टी काम कर रही, जिस तरह से मुद्दों को लपक रही है और जिस तरह से प्रियंका गांधी यूपी में सक्रिय हैं उससे साफ है कि विपक्ष के तौर पर कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन कर रही है. टॉप-2 में कांग्रेस शायद ना आ पाए लेकिन क्या वो तीसरे नंबर पर आ सकेगी?
और अगर ऐसा होता है तो कौन साी पार्टी टॉप-3 से बाहर होगी? ये देखने वाली बात होगी लेकिन सोशल मीडिया कैंपेन और मीडिया में कांग्रेस अच्छा कर रही है. ये 'अच्छा' बूथ स्तर, वार्ड स्तर और नंबरों में दिख जाए तो पार्टी में जान पड़ जाएगी ये तय है. प्रियंका गांधी के भाषणों से राहुल के भाषणों की तरह मीम्स नहीं निकाले जाते. ये एक नेता के तौर पर प्रियंका के लिए अच्छा है लेकिन प्रियंका को अगर वाकई यूपी जीतना है तो उन्हें कुछ सवालों के जवाब बेबाकी और स्पष्टता के साथ देने चाहिए. उन्हें बताना चाहिए कि अगर यूपी में जीत मिली तो वह किसे सीएम बनाएंगी. उन्हें ये भी बताना चाहिए कि क्यों उनकी पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के चेहरे उनके साथ यूपी में नहीं दिख रहे हैं.
आप, आजाद समाज पार्टी और AIMIM का क्या होगा?
आप भी चुनाव मैदान में है, आजाद समाज पार्टी और AIMIM भी. कुछ और छोटी-बड़ी पार्टियां भी हैं. इन पार्टियों के लिए ये चुनाव महत्वपूर्ण भी है लेकिन ये पार्टियां भी भीतर से जानती हैं कि ना तो ये यूपी में सरकार बनाने की रेस में हैं और ना ही ये टॉप-4 में आ सकती हैं. हालांकि अगर ऐसा कुछ होता है तो ये किसी उलटफेर से कम नहीं होगा. इन छोटी-छोटी पार्टियों में से कुछ जाति तो कुछ धर्म के नाम पर ही वोट पाती रही हैं. इनके नेता भी क्षेत्रीय या जातीय नेताओं के तौर पर ही पहचान रखते आए हैं. आमतौर पर इन पार्टियों के लिए छोटी जीतें भी बड़े मायने रखती हैं. हालांकि आम आदमी पार्टी को ना तो जातीय और ना ही क्षेत्रीय पार्टी कहा जा सकता है. लेकिन यूपी में पार्टी को पहचान पाने के लिए अभी और संघर्ष करना होगा, ये तय है.
योगी और मोदी के चेहरे देखकर वोट देगी जनता?
अब बात उनकी जिनके पास सत्ता है, जिनकी सरकार है. जिनके पास पावर होती है, शिकवे और शिकायतें भी उन्हीं से होती हैं. वो यकीनन बीजेपी से भी हैं, योगी-मोदी से भी हैं. लेकिन पार्टी को भरोसा है कि ये दोनों ब्रैंड जीत दिलाएंगे. पीएम खुद लगातार यूपी में दिख रहे हैं. सीएम भी ताबड़तोड़ दौरे कर रहे हैं. टीवी से लेकर अखबारों तक में ये दौड़, ये बढ़त दिख तो रही है लेकिन क्या जनता केवल इन चेहरों को देख कर वोट देगी?
दरअसल विधानसभा का चुनाव विधायक चुनने के लिए होता है ना कि मुख्यमंत्री चुनने के लिए. आप जब वोट डालते हैं तब आप अपने लिए विधायक चुन रहे होते हैं ना कि प्रदेश के लिए मुख्यमंत्री. जिला पंचायत सदस्यों से लेकर जिला पंचायत अध्यक्षों तक और ग्राम प्रधानों से लेकर ग्राम पंचायतों तक, हर चुनाव इसलिए होता है ताकि जनता अपने प्रतिनिधि को चुने. वो जो उनके हित की बात करे. ऐसा कोई जो विधानसभा में अपने विधानसभा क्षेत्र की समस्याएं उठाए. लखनऊ में आपके हक के लिए लड़े.
बेशक पिछले कुछ वक्त से ब्रैंड के रूप में नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ स्थापित हो गए हैं और जनता उन पर बेहिसाब भरोसा भी कर रही है. लेकिन यूपी में 403 विधानसभा सीटें हैं और कोई एक शख्स सभी 403 सीटों की आवाज नहीं उठा सकता, सब पर नजर नहीं रख सकता. ये एक टीम वर्क है. सीएम विधायक दल का नेता होता है और उसके फैसले कैबिनेट की सामूहिक आवाज की अभिव्यक्ति होते हैं. तो सवाल फिर वही कि क्या जनता केवल ब्रैंड देखेगी?
तो कुल जमा लब्बोलुवाब यही है कि यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजे क्या होंगे अभी कोई नहीं जानता. कोई कयासबाजी बेकार है. सर्वे भी होंगे, उनके नतीजों पर बहस भी होगी. तमाम किस्म के दावे सोशल मीडिया और आपके वॉट्सऐप पर भी होंगे लेकिन जब तक नतीजे आ ना जाएं कोई दावा करना फिजूल है क्योंकि ये यूपी है और वाकई ये किसी महादेश से कम नहीं है.
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