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उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की बिसात बिछ चुकी है
यूसुफ़ अंसारी।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Elections) की बिसात बिछ चुकी है. इस बिसात पर राजनीतिक दलों के मोहरे यानि उम्मीदवार उतारे जाने बाकी हैं. जहां बीजेपी (BJP) के सामने अपनी सत्ता को बचाने की चुनौती है, वही विपक्षी दलों के सामने बीजेपी को सत्ता से उखाड़ने की बड़ी चुनौती है. बीजेपी की कोशिश यूपी में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण (Communal Polarization) करा कर एक बार फिर चुनाव जीतने की है. जिसके लिए बीजेपी हर हथकंडा अपना रही है. वहीं बीजेपी को टक्कर दे रही समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) छोटी पार्टियों के गठबंधन और मुस्लिमों के सहारे बीजेपी को पटकनी देने की रणनीति बना रही है. बीएसपी और कांग्रेस भी अपना वजूद बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं. वहीं ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM)भी अपना खाता खोलने के लिए मैदान में एड़ी चोटी का जोर लगा रही है.
2022 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल में जिलों की विधानसभा सीटें महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी. पिछले दो विधानसभा चुनाव में भी इन जिलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी. मुस्लिम बहुल जिलों की विधानसभाओं के पिछले दो चुनावों के आंकड़े काफी हैरान करने वाले हैं. इनके विश्लेषण से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है की आने वाले चुनाव में इन जिलों में क्या परिस्थितियां हो सकती हैं और उनका चुनावी नतीजों पर क्या असर पड़ेगा.
इन जिलों में जिस पार्टी का पलड़ा जितना भारी होगा उतना ही वह सत्ता के नज़दीक होगी. पिछले चुनाव में बीजेपी ने इन जिलों की ज्यादातर सीटें जीती थीं. बीजेपी के 300 का आंकड़ा पार करने में इन जिलों की सीटों का अहम योगदान था. जबकि उसके पिछले चुनाव यानि 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने इन जिलों की ज्यादातर सीटों पर कब्जा किया था. इन्हीं की बदौलत वो पहली बार अकेले दम पर 200 का आंकड़ा पार करने में कामयाब रही थी.
मुस्लिम बहुल जिलों से क्या है तात्पर्य
वैसे तो उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ एक जिला है जिसे पूरी तरह मुस्लिम बहुल कहा जा सकता है. वह है रामपुर. इस ज़िले में मुसलमानों की आबादी 50 फीसदी से ज्यादा है. लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीतिक भाषा में उन जिलों को मुस्लिम बहुल कहा जाता है जहां जातीय समीकरण के हिसाब से मुसलमानों की आबादी ज्यादा है. आमतौर पर यह माना जाता है कि मुसलमान बीजेपी को हराने के लिए किसी एक पार्टी को एक मुश्त वोट करते हैं. इसलिए 20 फीसदी या इससे ज्यादा आबादी वाले जिलों को मुस्लिम बहुल मान लिया जाता है. उत्तर प्रदेश में राजनीति पूरी तरह जाति समीकरण आधारित है. किसी भी एक जाति की आबादी का आंकड़ा मुस्लिम आबादी से कहीं कम है, इसलिए 20 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले जिलों और विधानसभा सीटों को मुस्लिम बहुल माना जाता है. इन सीटों पर मुस्लिम वोट हार जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. लिहाज़ा हर पार्टी यहां उम्मीदवारों के चयन से लेकर चुनाव प्रचार तक के लिए ख़ास रणनीति बनाती है.
कितने जिले हैं मुस्लिम बहुल
2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी 19.26 फीसदी है. सूबे के 29 जिलों में मुसलमानों की आबादी इस औसत से ज्यादा है. मुसलमानों की आबादी रामपुर में सबसे ज्यादा 50.57 फीसदी है. मुरादाबाद और संभल में 47.12 फीसदी, बिजनौर में 43.03, सहारनपुर में 41.95, मुजफ्फरनगर व शामली में 41.30 और अमरोहा में 40.78 फीसदी है. इनके अलावा 5 जिलों में मुसलमानों की आबादी 30 से 40 फीसदी के बीच है. इनके अलावा 12 ज़िलों में मुसलमनो की आबदी 20 से 30 फीसदी के बराबर है. कुछ जिले ऐसे भी हैं जहां मुसलमानों की आबादी 19 फीसदी से ज्यादा और 20 फीसदी से कम है. सीतापुर में मुस्लिम आबादी 19.93 फीसदी, अलीगढ़ में 19.85 फीसदी, गोंडा में 19.76 फीसदी और मऊ में 19.43 फीसदी है. इन 29 जिलों में विधानसभा की कुल 163 सीटें हैं. इनमें से 31 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. जो पार्टी इनमें से ज्यादा सीटें जीतेगी सत्ता पर उसी का क़ब्ज़ा होगा. पिछले दो विधानसभा चुनाव के नतीजे तो कम से कम यही बताते हैं.
2017 में किसको कितनी सीटें मिली
2017 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम बहुल इन 29 जिलों की 163 विधानसभा सीटों में से बीजेपी ने 137 सीटें जीती थीं. दलितों के लिए आरक्षित 31 सीटों में से बीजेपी ने 29 सीटें जीती थीं. समाजवादी पार्टी इनमें से सिर्फ 21 सीटें जीत पाई थी. जबकि कांग्रेस को सिर्फ 2 सीटें मिली थीं. गौरतलब है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस का गठबंधन था. इसके बावजूद यह गठबंधन मुस्लिम बहुल जिलों में महज़ 23 सीटों पर सिमट कर रह गया था. सबसे ज्यादा ख़राब हालात यहां बसपा की हुई थी. उसे सिर्फ एक सीट पर ही जीत नसीब हुई थी. एक-एक सीट आरएलडी और अपना दल को मिली थीं. अपना दल बीजेपी के साथ गठबंधन में था. इस हिसाब से देखें तो बीजेपी गठबंधन को कुल मिलाकर 138 सीटें मिली थीं. पूरे उत्तर प्रदेश में बीजेपी गठबंधन को मिली 325 सीटों में मुस्लिम बहुल जिलों में मिली इस बड़ी जीत का बड़ा अहम योगदान था.
2012 में किसका था दबदबा
2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को पहली बार पूर्ण बहुमत मिला था. उसे 225 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. उसे मिली इस बड़ी जीत में मुस्लिम बहुल जिलों में मिली ज़्यादतर विधानसभा सीटों का बड़ा योगदान था. तब इन 29 दिन की 163 विधानसभा सीटों में से समाजवादी पार्टी को 90 सीटें मिली थीं. बीएसपी को 30 और बीजेपी को महज़ 22 सीटें मिली थीं. तब कांग्रेस को इन ज़िलो में 11 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. बाकी बची 10 सीटों में से पांच राष्ट्रीय लोक दल ने, तीन पीस पार्टी ने और एक-एक सीट इत्तेहाद मिल्लत काउंसिल और कौमी एकता दल ने जीती थीं. इन जिलों में दलितों के लिए आरक्षित 31 सीटों में से तब सपा को 22 और बीएसपी को 3 सीटें मिली थीं. जबकि बीजेपी, कांग्रेस और आरएलडी के हिस्से में दो-दो सीटें आई थीं. ज़ाहिर है कि 2012 में मुस्लिम बहुल जिलों में सपा को भरपूप वोट मिला था.
क्या होगा 2022 में
पिछले दो चुनावों के नतीजे बताते हैं कि मुस्लिम बहुल जिलों की ज्यादातर सीटें जिसके पास होती हैं, सत्ता पर उसी का कब्जा होता है. लिहाजा 2022 में भी ऐसा ही होने की पूरी संभावना है. पिछले चुनाव में बीजेपी इन सीटों पर मुस्लिम वोटों के बंटवारे की वजह से ज़्यादातर सीटे कब्ज़ाने में कामयाबी रही थी. इस बार वो ख़ुद करीब 50,000 बूथों पर कुछ मुस्लिम वोट हासिल करने की रणनीति पर काम कर रही है. उसकी कोशिश है कि मुस्लिम वोट सपा, बसपा, कांग्रेस और ओवैसी की पार्टी के साथ-साथ बीजेपी को भी मिलें तो उसकी जीत का रास्ता आसान हो जाएगा. वहीं सपा मुसलमानों के बीच में संदेश देने की कोशिश कर रही है कि बीजेपी को सिर्फ़ वही टक्कर दे सकती है लिहाज़ा मुसलमान सिर्फ़ उसे वोट दें. सपा को कुछ सीटों पर ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन से ख़तरा महसूस हो रहा है. हालांकि 2012 में चुनाव में पीस पार्टी की मौजूदगी के बावजूद सपा को मुसलमनों का भरपूर वोट मिला था.
तमाम चुनावी सर्वेक्षण यूपी में बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच ही मुख्य मुकाबला दिखा रहे हैं. सूबे की जनता के पसंदीदा मुख्यमंत्री के लिए भी योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव के बीच ही मुख्य मुकाबला है. सर्वेक्षणों में सत्ता पर कब्ज़े के लिए बीजेपी और सपा के बीच सीटों का अंतर काफी कम रह गया है. लिहाज़ा वोटों में थोड़ा सी भी उलटफेर चुनावी नतीज़ों के प्रभावित कर सकता है. दोनों पार्टियां अपनी-अपनी रणनीति को अमली जामा पहनाकर जीत हासिल करने की कोशिशों में जुटी हुई हैं. दोनो में से जिसकी रणनीति काम कर जाएगी, सत्ता पर उसी का क़ब्जा होगा.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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