सम्पादकीय

UP Assembly Election: माली, केवट और कहार भी निर्णायक हैं!

Gulabi
15 Feb 2022 2:48 PM GMT
UP Assembly Election: माली, केवट और कहार भी निर्णायक हैं!
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हम जो क्षेत्र जाटों, जाटवों, यादवों या मुसलमानों का बता रहे हैं, वहां हाशिए पर पड़ी जातियां कितनी निर्णायक होती हैं
शंभूनाथ शुक्ल।
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में पश्चिम पूरा निपट चुका है और सेंट्रल, ईस्टर्न, अवध और बुंदेलखंड (Bundelkhand) समेत पांच चरणों में मतदान बाक़ी है. उत्तर प्रदेश और बिहार में जब भी चुनाव होते हैं तो नेता, पत्रकार और सैफोलॉजिस्ट फ़ौरन जातियों (Castes) का गणित बताने लगते हैं. वे बताएंगे कि फ़लां जगह जाट निर्णायक हैं तो अमुक जगह मुस्लिम. कहीं यादव तो कहीं जाटव और पूरे प्रदेश में ब्राह्मण.
लेकिन कोई नहीं कहता कि हम जो क्षेत्र जाटों, जाटवों, यादवों या मुसलमानों का बता रहे हैं, वहां हाशिए पर पड़ी जातियां कितनी निर्णायक होती हैं. उनकी आबादी भले किसी क्षेत्र में बहुत अधिक नहीं हो लेकिन वे सबका गणित फेल कर देती हैं. यही कारण है कि नतीजा आने पर सब बोलते हैं, अरे यह कैसे हो गया!
2017 में अनुमान कैसे धरे रह गए थे
पहले चरण की जिन 58 सीटों पर दस फ़रवरी को वोट पड़े और 14 फ़रवरी को दूसरे चरण की 55 सीटों पर, उन सभी सीटों पर मुस्लिम वोट बहुत अधिक है. इसके बावजूद 2017 में बीजेपी को इनमें से 91 सीटें मिली थीं और तब भी मुसलमान बीजेपी को हराने वाले दल के साथ ही था. यादव तब भी सपा के साथ थे ऊपर से कांग्रेस के साथ सपा का समझौता था इसलिए सवर्ण वोट भी इस गठबंधन को मिला होगा. उधर जाटव बसपा के साथ थे तथा जाट विभाजित थे. मगर जीत बीजेपी की हुई थी. इसलिए यह राय बना लेना कि दबदबे वाली जातियां ही वोट की दशा-दिशा तय करती हैं, ग़लत होगा. सच तो यह है, कि वे जातियां जीत-हार तय करती हैं, जो बहुसंख्या में भले न हों लेकिन सब जगह हैं और वे भी अपना भला-बुरा सोचती हैं. इसीलिए 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव सारे गठबंधन और सारे क़यास धरे के धरे रह गए थे.
वोट किसी दबंग जाति का ठेका नहीं
सच तो यह है, कि हर क्षेत्र में प्रभुत्त्व वाली जातियां सोच लेती हैं और राजनेता व पत्रकारों का यह मानस बनवा देती हैं कि वे ही निर्णायक होंगे पर हो जाता है उल्टा. क्योंकि जो समुदाय और जातियां हाशिए पर पड़ी होती हैं वे कभी भी प्रभाव शाली जातियों की इच्छा के अनुरूप वोट नहीं देतीं. वे उनके दबाव में चाहे जितना हां में हां मिलाएं किंतु वोट उनके कहे पर नहीं करतीं. यही भारत का लोकतंत्र है. और यह भी दिलचस्प है कि प्रभाव शाली लोग भले वोट करें न करें किंतु ये लोग वोट अवश्य करते हैं. मुझे 2017 का एक वाक़या याद है. सहारन पुर की बेहट विधान सभा में सैनी, कश्यप, माली, लोहार, हलवाई आदि जातियों ने यह मन बनाया हुआ था कि वे बीजेपी को वोट करेंगे. ऐसा कोई वे धर्मसिंह सैनी के कारण नहीं बोल रहे थे, बल्कि इसलिए कह रहे थे कि अभी तो थानेदार एक ही जाति से आता है और लेखपाल भी, और ये लोग हमारी सुनते नहीं हैं. थानेदार शिकायत नहीं दर्ज करते और लेखपाल हमारे खेतों की पैमाईश में.
धोबी, धानुक, पासी, खटिक भी तो हैं
तब उनके दिमाग़ में बैठा हुआ था, कि दूसरे समुदाय के लोग हमारी बेटियों को उठवा लेते हैं और हमें इनसे निजात पाना है. उस समय भी कोई प्रभाव शाली जाति उनके पक्ष में खड़ी नहीं होती थी इसलिए इन लोगों ने निज़ाम बदलने की सोच रखी थी. सपा को जाना पड़ा और इसके लिए कोई जाटों का एकमुश्त वोट बीजेपी को नहीं मिला, बल्कि उनका मिला जो कमजोर जातियां थीं. उस समय यदि जाटव बसपा को गया तो धोबी, धानुक, खटिक, पासी आदि के वोट बीजेपी को मिले. इसके अलावा इस सारे इलाक़े में गुर्जरों के भी वोट हैं. उनकी भी गिनती नहीं होती. यही कारण है कि सारे अनुमान फेल होते हैं. इस बार भी एक धारणा शुरू से थी कि मुसलमान और जाट मिल कर पहले चरण की 58 सीटों पर निर्णायक होंगे. लेकिन किसी ने भी इस बार यह नहीं सोचा कि जाटव वोट कहां जाएंगे? अथवा अन्य दलितों व ग़ैर जाट पिछड़ों का रुझान क्या है? इसी तरह ब्राह्मण और बनिया क्या करेगा.
बिरादरी के दस वोट फिर भी जीतते रहे विजय सिंह
लगता है, मानों हर क्षेत्र और इलाक़े को बस किसी प्रभाव शाली जाति की जागीर समझ लिया गया है. अगर इसे सच मान लिया जाए, तो फिर यह सोच लेना बहुत सरल होगा कि एटा, इटावा, फ़र्रुख़ाबाद, मैनपुरी और कन्नौज आदि जिलों में यादव बहुत ज़्यादा हैं और मुसलमान बहुत कम इसलिए सिर्फ़ इन्हीं दोनों के बूते सपा आज तक कमाल करती आई है. यह एक झूठी अवधारणा होती है. हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा काट रहे विजय सिंह फ़र्रुख़ाबाद से कई बार विधायक रहे और उनकी जाति जाट हैं, जो इस शहर में बमुश्किल 15-20 लोग होंगे. यह कहा जा सकता है कि उनको पार्टी का वोट मिलता रहा होगा. यह भी सच नहीं है. पहली बार 1996 में वे कांग्रेस की टिकट पर लड़े और 30 हज़ार वोट पा गए किंतु ब्रह्मदत्त द्विवेदी से हार गए. मगर 2002 में वे निर्दलीय जीते तथा 2007 में सपा से जीते पर जब सरकार बसपा की बनी तो विधायक पद से इस्तीफ़ा देकर वे बसपा में शामिल हो गए. मगर मायावती ने उन्हें टिकट नहीं दिया. 2012 में वे फिर निर्दलीय जीत गए. 2017 में बीजेपी ने उन्हें हरा दिया और उनको एक हत्याकांड में सजा मिली. विजय सिंह की सफलता में कौन-सी जाति निर्णायक बनी या कौन-सी पार्टी?
महत्त्वपूर्ण हैं हाशिए पर पड़ी जातियां
ऐसे कई विजय सिंह होंगे जो बग़ैर किसी जाति या समुदाय की मदद से जीतते होंगे. दरअसल हम चुनावी आकलन के समय उन जातियों को भूल जाते हैं, जो हाशिये पर रहती हैं. जो पेशेवर जातियां हैं. बढ़ई, लोहार, नाई, भाट, काछी, कोरी, माली, खटिक जैसी जातियां. हम 36 जातियों को तो अपने समाज में घुल-मिला बताते हैं पर उनकी गणना नहीं करते. बस मोटा-मोती ओबीसी या दलित बोल दिया. जबकि ओबीसी का झंडा उठाये जातियां ओबीसी की क्रीमी लेयर हैं. यादव, कुर्मी, लोध, जाट, गूजर की सामाजिक और आर्थिक हैसियत सामंतों की सी है. इनकी सोच भी सामंती है. ये हाशिये पर पड़ी अन्य ओबीसी की परवाह नहीं करतीं. इसलिए लाख ओबीसी का एक बताओ किंतु हैसियत में बहुत फ़र्क़ है. ठीक इसी तरह जाटव, कुरील, संखवार आदि दलित धोबी, धानुक, खटिक, पासी से ऊपर खड़ी हो जाती हैं. यही कारण है कि बीजेपी ने ग़ैर जाट, ग़ैर जाटव और ग़ैर यादव जातियों को 2017 में अपने साथ कर लिया था.यही जातियां उसकी बम्पर जीत की मुख्य वजह थीं.
सपा भी इसी लाइन में
इस बार अखिलेश यादव ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन जातियों को अपने साथ लेने की कोशिश की है. जैसे ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और महान दल के केशव देव मौर्य को. मगर बीजेपी इन अल्प संख्या वाले समुदायों के बीच बहुत पहले से पैठ बनाए हुए है. उसने अपना यह अभियान तीन दशक पहले तब शुरू कर दिया था, जब गोविंदाचार्य ने सोशल इंजीनियरिंग की थ्योरी दी थी. आरएसएस बीजेपी का एक ऐसा संगठन है जो बहुत पहले से ही आने वाले चुनाव की रणनीति बना लेता है. बाक़ी राजनीतिक दल जब तक उस पर काम करते हैं बीजेपी बाजी मार चुकी होती है. कांग्रेस 1952 से 1984 के चुनावों तक लगभग अजेय रही. लेकिन उसने एक सरलीकरण कर लिया था कि ब्राह्मण, दलित और मुसलमान जीत की कुंजी हैं. लेकिन उसने कभी हाशिए पर पड़ी जातियों और समुदायों को अपने साथ लाने का प्रयास नहीं किया. नतीजा यह है कि 1984 के बाद कांग्रेस अपार बहुमत के साथ नहीं जीत सकी. क्योंकि उसके पास कोई ऐसा संगठन कभी नहीं रहा जो समाज के बीच काम करता रहता.
सलमानी, अब्बासी, अंसारी और कसाई
समाज को नीचे से समझे बिना लम्बे समय तक राजनीति में टिके रहना मुश्किल है. संभव है कल को कोई संगठन मुसलमानों के बीच की बिरादरियों के बीच काम करना शुरू कर दे. क्योंकि धार्मिक रूप से यह समाज भले बहुत विशाल दिखे लेकिन ज़मीन पर इस समुदाय में अनगिनत भेद हैं. कोई भी सैयद, शेख़ या पठान कभी भी सलमानी, अब्बासी, अंसारी (जुलाहा) कसाई परिवार से शादी-विवाह नहीं करता. बाक़ायदा विवाह के समय बिरादरी या जाति पूछी जाति है. फिर मनिहार हैं, गद्दी हैं, सैफी हैं, रांगड़ हैं, मूला हैं, महेसरा हैं. तो ज़ाहिर हैं एक दिन ये मुख्य धारा में आएंगे. और तब राजनेता अथवा पत्रकार तय नहीं कर पाएंगे कि वे किसे निर्णायक मानें!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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