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भारतीय राजनीति में गाय का ‘माता’ से ‘आवारा पशु’ तक का सफर!
शंभूनाथ शुक्ल
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Election) में क्राइम ग्राफ़ और आवारा पशु, दो चुनावी मुद्दे रहे. क्राइम ग्राफ़ बीजेपी (BJP) के पक्ष में जाता था तो आवारा पशु उसके ख़िलाफ़. आवारा पशु में सबसे ऊपर नाम गाय (Cow) का है. और बीजेपी समर्थक तथा विरोधियों दोनों ने गाय को लेकर ही सबसे अधिक बवाल काटा. सब ने गाय के नाम पर खूब राजनीति की. उस गाय के नाम पर जो कुछ समय पहले तक उत्तर प्रदेश बोर्ड के छात्रों को भयभीत किए रहती थी. ये छात्र सिर्फ़ उसकी सींगें और उसकी टांगें याद रखते थे, जो पास फटकने वाले को मारने का काम करते थे.
दसवीं बोर्ड की हिंदी की परीक्षा में एक प्रश्न अनिवार्य रूप से आता था, कि गाय पर निबंध लिखो. हर बच्चा, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान अथवा क्रिश्चियन इसका जवाब इसी लाइन से शुरू करता था कि गाय हमारी माता है. वह हमें दूध देती है, जिससे हम हृष्ट-पुष्ट होते हैं. उसके बछड़े हमारे खेतों में काम आते हैं. लेकिन आज जब इसका जवाब पूछा जाए तो हर बच्चा यही कहेगा कि गाय एक ऐसा पशु है, जो रोज़ दंगा कराता है.
माता खलनयिका बनी
गाय वही है, लेकिन आज वह माता से एक ऐसे पशु के रूप में उभरी है, जो दंगा कराती है. हिन्दू-मुस्लिम द्वेष पैदा करती है. सच तो यह है कि कुछ कथित गोरक्षकों ने माहौल इतना बिगाड़ दिया है कि गाय एक हिंसक पशु बनती जा रही है. लोग गाय से ही चिढ़ने लगे हैं. यह उन श्रद्धावान वैष्णव हिन्दुओं का अपमान है, जो भोजन के पूर्व पहली रोटी गाय के नाम पर निकालते थे. गाय की यह स्थिति किसने की, यह सवाल जब भी उठेगा, तब भगवा पार्टी के ये कथित गोरक्षक गुंडा वाहिनी दल जैसे प्रतीत होंगे. आखिर ऐसा कैसे हुआ कि हिन्दू धर्म की प्रतीक गोमाता अचानक खलनायिका बन गईं, इस पर सोचना पड़ेगा. लेकिन गाय ने मनुष्यों से सामूहिकता की भावना ज़रूर सीख ली है.
गाय अब निरीह भी नहीं रही
अभी पिछले साल 2021 में अगस्त के आख़िरी हफ़्ते की वह एक सांझ थी, जब हम चार लोग सतना ज़िले की मैहर माता मंदिर में दर्शन के बाद वापसी के लिए चले. सोचा गया, यहां से सीधे चित्रकूट और रात वहीं रुक कर अगले रोज़ कलिंजर का क़िला देखने के बाद कानपुर चलें. हम कानपुर से ही आए थे और वह भी एक छोटी कार वैगन आर में. हमें बता दिया गया था, कि चित्रकूट मैहर से क़रीब 125 किमी है और रास्ता जंगली. तेंदुआ, भेड़िया आदि कोई भी जानवर मिल सकता है. कुछ साल पहले तक इस रास्ते पर दस्यु ददुआ का आतंक था और दिन-दहाड़े लूट हो जाती थी. राहगीर मारा भी जा सकता था. लेकिन अब डकैतों का ख़तरा नहीं है, फिर भी इक्का-दुक्का राहजन मिल भी सकता है. खूब सोच-विचार के बाद हम रात आठ बजे मैहर से निकल लिए.
सतना पार करते-करते रात के साढ़े नौ बज गए और इसके बाद जंगल का रास्ता शुरू हुआ. हालांकि सड़क फ़ोर लेन थी इसलिए गाड़ी की स्पीड अच्छी रही. जगह-जगह जंगली जानवरों के ख़तरे के सूचक बने हुए थे. लेकिन यह देख कर ज़रूर आश्चर्य होता, कि दोनों तरफ़ की सड़क पर गाय-बैलों का झुंड आधी सड़क घेर कर बैठा हुआ है. इन पशुओं को तेंदुए से कोई ख़तरा नहीं है क्या! इन पशुओं के कारण गाड़ी चलानी बहुत मुश्किल हो जाती. क्योंकि कई जगह ये बिलकुल जगह नहीं देते. एक स्थान पर किसी हिंसक जंगली पशु की गुर्राहट से हम तनिक ठिठके. शुक्र था, कि शुक्ल पक्ष की चौदस की रात में चंद्रमा खूब खिला हुआ था, उसकी रोशनी में सब कुछ साफ़ दिख रहा था. एक अकेली गाय के सामने एक तेंदुआ था.
देखते ही होश उड़ गए, हमारी आंखों के सामने गोमाता की बलि चढ़ रही थी. किंतु हम कुछ भी नहीं कर सकते थे. एकाएक वह निरीह गाय रंभायी और पूरी ताक़त से उसने तेंदुए के चेहरे पर सींगों से वार किया. इस अचानक हमले से तेंदुआ पीछे हटा. लेकिन पीछे एक सांड था, उसने तेंदुआ के पुट्ठों पर सींग घुसेड़ दिए. तेंदुआ बुरी तरह घायल हो गया और दुम दबा कर भागा. उन दोनों ने विजयी मुद्रा से कुछ देर उधर ताका और फिर चल दिए. यह दृश्य विस्मित कर देने वाला था. लगा मानों सही में शेर-बकरी एक घाट पर आ गए हैं.
भारत में गाय को एक राजनीतिक पशु बना दिया गया है
यह क्षेत्र मध्य प्रदेश का था. हम अभी उत्तर प्रदेश की सीमा में नहीं घुसे थे. अन्यथा यह मान लेते कि योगी आदित्यनाथ के राज में यह चमत्कार दिखा. किंतु यह मानने में कोई गुरेज़ नहीं कि बीजेपी ने गाय और राम की ऐसी सेवा कर दी है कि गाय अब अपने नाम से ही नहीं बल्कि स्वभाव से भी प्रतापी हो गई है. उसकी हिंसा अब बड़े-बड़े हिंसक पशुओं को उनकी मांद में धकेल रही है. लेकिन अब हमें भय लगा, क्योंकि तेंदुआ के शरीर से बहे खून के निशान सड़क पर दिख रहे थे. शुक्र रहा कुछ आगे जा कर वे विलुप्त हो गए. शायद तेंदुआ सड़क किनारे की खाई में कूद गया होगा.
रात ग्यारह बजे हम चित्रकूट पहुंचे. वहां आरोग्य सदन में अपने ठहरने की व्यवस्था थी. लेकिन उस सारी रात मुझे नींद नहीं आई. मैं सोचता रहा, कि गाय को सदैव निरीह पशु बताया गया है, लेकिन आत्म रक्षा में उसने सींग का अद्भुत प्रयोग किया. यही नहीं पशुओं में आम तौर पर हमले के समय दूसरा पशु बीच में नहीं पड़ता, लेकिन संभवतः मनुष्यों के साथ रहने का यह असर तो पड़ा ही है कि मादा पशु ने नर के साथ मिल कर एक हिंसक वन्य पशु को परास्त कर दिया. यह पशुओं में पनपती सामूहिकता की भावना है. मनुष्य के अलावा यह सामूहिकता सिर्फ़ बंदरों, भेड़ियों और कौवों में देखने को मिलती है.
ख़ैर, यह गाय की आत्म रक्षा थी या उसकी हिंसा यह तो वन्य जीव विशेषज्ञ ही बता पाएंगे. किंतु इतना तो साफ़ हो गया कि कृषि सभ्यता के विकास से ही गोवंश मनुष्य का सहायक रहा है. आज जब मनुष्य को गोवंश की ज़रूरत नहीं रह गई है और वह बूढ़ी गायों तथा बैलों को आवारा छोड़ देता है तो इन पशुओं ने अपने अस्तित्व को बचाये रखने का उपाय तो तलाश ही लिया है. मगर मनुष्य ने गाय और गोवंश की रक्षा तो नहीं की, उलटे भारत में इसे एक राजनीतिक पशु बना दिया गया है.
हिंदू धर्म के ये लोग!
इसी तरह हिन्दू धर्म भी आज अराजकता, गुंडई और लंपटई का पर्याय बनता जा रहा है. पहले हम लोग अखबारों में पढ़ते थे कि पश्चिम और मध्य एशिया में धर्मांध लोग अपनी-अपनी सेनाएं बनाकर लूट-पाट किया करते हैं. अफगानिस्तान, ईरान, ईराक़, सीरिया और कुर्द आदि कितने ही देशवासी इसे आज तक भुगत रहे हैं. अगर आज कहा जाए कि मात्र 50 साल पहले तक अफगानिस्तान में पूर्ण शान्ति बहाल थी. अफगान लोग अपने देश के मेवे लाते और खूब ईमानदारी से व्यापार करते. क़ाबुल देश में औरतों पर कोई पाबंदी नहीं थी. लेकिन आज उसी मुल्क में एक हिन्दू ब्याहता सुष्मिता बनर्जी की इसलिए हत्या कर दी गई, क्योंकि उसने हिज़ाब पहनने से मना कर दिया था. उसी दौरान ईरान में शाह रज़ा पहलवी का शासन था. और ईरान की महिलाओं का खुलापन वहां की पहचान थी. लेकिन एक धर्मांध अयातुल्लाह खुमैनी ने सब ख़त्म कर दिया. धर्मांध लोग महिलाओं की आज़ादी को बर्दाश्त नहीं कर पाते. ऐसे लोग पीड़ितों, वंचितों के विरोधी होते हैं तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश लगाते हैं.
ग्यारहवीं सदी में महमूद ग़ज़नवी भारत में लूट-पाट के मक़सद से आया, तब उसके साथ अल-बरूनी नाम का एक विद्वान भी आया था. उसने बड़ी मेहनत से संस्कृत सीखी और हिन्दुओं के सभी ग्रंथों का अध्ययन किया. उसने लिखा है कि 'सुल्तान महमूद की आंधी में हिंदू धूल के कणों की तरह उड़ गए. मगर उनका मज़हब यथावत बना रहा'. लेकिन आज हज़ार वर्ष बाद स्थिति यह है कि हिंदू तो खूब हैं, लेकिन उनका धर्म नष्ट हो रहा है, उनके प्रतीक नष्ट हो रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों से हम देख रहे हैं कि हिंदू धर्म और संस्कृति के नाम पर जिस तरह से अराजक तत्त्व उत्पात मचाए हैं, उससे हिन्दू धर्म की अपनी पहचान- उदारता, उदात्तता और सहिष्णुता नष्ट होती जा रही है. मालूम हो कि हिन्दुओं के इन्हीं गुणों के चलते सेमेटिक धर्मों के अनुयायी भी हिन्दुओं के समक्ष लज़्ज़ित होते हैं, लेकिन भगवा ब्रिगेड के नए सिपहसालारों ने पूरे हिन्दू समाज को ही शर्मिंदा कर दिया है.
दुर्भाग्य से आज अपने देश में भी धर्मांध लोग सिर उठाने लगे हैं. इसमें भी कड़वा तथ्य यह है कि हिन्दुओं में यह कट्टरता आती जा रही है, जिनकी छवि ही उदार और सहिष्णु की थी. हिन्दू समाज ने कभी भी धर्म के नाम पर रक्त-पात नहीं किया, लेकिन आज यह स्थिति हो गई है कि हिन्दुओं की भगवा ब्रिगेड इसी धर्मान्धता की पर्याय बन गई है. हिन्दुओं के लिए यह शर्म की बात है कि उनकी सांस्कृतिक पहचान खत्म हो रही है. और उनकी डायवर्सिटी के प्रतीकों पर भी चोट पहुंच रही है. चूंकि गंगा-यमुना का पूरा दोआबा कृषि के मामले में अव्वल रहा है, इसलिए गाय और उसके बछड़े यहां पर कृषि संपदा को बढ़ाने वाले पशु थे, इसलिए उनकी पूजा शुरू हुई.
लेकिन जैसे-जैसे मशीनों का असर बढ़ता है, इन पशुओं पर निर्भरता कम होती जाती है. ट्रैक्टर, हारवेस्टर ने यही किया. बैलों को चलन से बाहर कर दिया. कृषि में उनकी उपयोगिता समाप्त हो गयी. ऐसे में बछड़े और बैलों के अन्य उपयोग सोचे गए. कुछ लोग उन्हें कसाइयों को बेचने लगे, जो उनके मांस का निर्यात खाड़ी देशों में करने लगे. इसी तरह बुढ़ाती गायें भी बोझ बनती गईं और स्वयं हिन्दू ही इन्हें कसाइयों को बेचने लगे. लेकिन इसका और कोई हल सोचा नहीं गया, इसलिए किसान क्या करता, उसके समक्ष एक ही विकल्प था कि बोझ बन रहे गोवंश को बेच दिया जाए, वर्ना वह इनके भोजन का जुगाड़ कैसे करता? मगर गोरक्षक तो धर्मांध हैं, उन्होंने और उनके आकाओं ने इसका हल खोजने की बजाय वृहद हिन्दू समाज के मन में मुस्लिम घृणा का पौधा रोपा, ताकि वे इसके बूते अपना वोट बैंक पुख्ता कर सकें. लेकिन नतीजा क्या निकला!
वोट बैंक की कुटिल नीति
वोट बैंक की इस कुटिल नीति ने किसी का भला नहीं किया. गाय को बचाए रखने की कोई जुगत तलाशी नहीं गई और उसे एक ऐसा दुष्ट पशु बना दिया गया, जो मानव रक्त पीता है. शहरीकरण ने कृषियोग्य भूमि का दायरा कम किया है और जर्सी गायों ने आर्गेनिक दूध को छीन लिया है. बीजेपी सरकार को यदि वाक़ई गायों की चिंता है, तो वह गायों के आर्गेनिक दूध को बढ़ावा दे. सच तो यह है कि साहीवाल गाय (एक देसी नस्ल) का दूध सौ रूपये किलो से लेकर डेढ़ सौ रूपये किलो तक है. इसी तरह गुजरात और महाराष्ट्र की 'गीर' गाय का घी तीन हज़ार रूपये किलो तक.
सरकार इस तरह गायों को उपयोगी बनाती तो ये तथाकथित गोरक्षक उत्पात न मचा पाते, लेकिन सरकार को हिन्दू-मुस्लिम घृणा की नीति पर चलना है, कोई गायों को कटने से बचाना उसका मक़सद नहीं. अब हिन्दू धर्म अगर दुनिया में बदनाम होता हो तो इससे सरकार की सेहत पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. लेकिन एक आस्थावान हिन्दू के लिए यह दुखद है, कि जिस हिन्दू धर्म का आधार ही समरसता, सहिष्णुता और उदारता हो, उसी में ये भगवा गुंडे ज़हर घोलें. और दुनिया भर में हिन्दुओं की छवि खराब करें. यही कारण है, कि गाय फिर से जंगल चली गई और वहां उसने आत्म रक्षा का उपाय तलाश लिया है.
Rani Sahu
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