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‘मोदी के अलावा किसी ने डोम जाति को नहीं समझा’
कुशल चौधरी और गोविंद शर्मा: जब 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) वाराणसी (Varanasi) से चुनावी मैदान पर उतरे थे तब उनके नामांकन के दौरान कई प्रमुख हस्तियां उनके साथ थीं. इस दौरान सबसे दिलचस्प बात यह थी कि उनके चार प्रस्तावकों में चार विभिन्न जातियों के लोग थे एक ब्राम्हण, एक वैश्य, एक व्यक्ति पिछड़े वर्ग से और एक दलित जाति से. इससे संकेत मिला कि हिंदुत्ववादियों ने बहुसंख्यकवाद की अपनी विचारधारा के दायरे में विभिन्न जातियों को शामिल करने का प्रयास किया और मुस्लिम और इसाई धर्म, जिन्हें 'बाहरी' माना जाता है, के खिलाफ व्यापक स्तर पर हिंदू एकता तैयार करने की कोशिश की.
प्रस्तावकों में दलित जाति के स्व. जगदीश चौधरी शामिल थे, जिन्हें डोम राजा के रूप में भी जाना जाता है. उन्हें वाराणसी के डोम समुदाय से आने वाले एक अहम व्यक्ति के तौर पर देखा जाता था. डोम जाति के लोग, बनारस के दो प्रमुख घाटों, हरीशचंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट, में दाह संस्कार का काम करते हैं. सांस्कृतिक तौर पर अहम माना जाने वाला यह रिवाज इस शहर की विशिष्ट पहचान भी है. इनका काम काफी चुनौतीपूर्ण और खतरनाक होता है, फिर भी यह समुदाय इस कार्य में गर्व महसूस करता है.
इन घाटों पर काम करने वाले डोम मंगल चौधरी बताते हैं डोम समुदाय के लिए यह दाह संस्कार करना उनका निर्धारित कर्म है. वह कहते हैं, "इस काम को करना हमारा कर्म है और हमें इस पर गर्व है. यह हम ही लोग हैं जो मृत शरीर को पवित्र अग्नि देते हैं जिससे उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है, यह हमारा कर्तव्य है."
'मोदी के अलावा किसी ने डोम जाति को नहीं समझा'
मंगल बीते दो दिनों से लगातार दाह संस्कार का काम कर रहे थे. पवित्र अग्नि, मृतक के अधिकारों का पहला संस्कार होता है और यह अग्नि डोम राजा के अधीन होती है. जगदीश चौधरी और उनका परिवार इस अग्नि का संरक्षक होता है और कहा जाता है कि वे सदियों से यह काम कर रहे हैं. जो लोग इस प्राचीन शहर में अपने रिश्तेदारों का दाह-संस्कार पूरा करते हैं, उनसे डोम जाति के लोग इस अग्नि के एवज में शुल्क लेने का अधिकार रखते हैं. इन लोगों के अधीन अन्य लोग भी काम करते हैं. सुमदाय के भीतर इनका विशेष दर्जा होता है और सम्मान प्राप्त होता है. डोम राजा के परिवार को मृत शरीर को जलाने के कारोबार से मुनाफा होता है. वे डोम श्रमिकों से काम लेकर, यह मुनाफा प्राप्त करते हैं, इन श्रमिकों को प्रति मृत शरीर करीब 200 से 250 रुपये प्राप्त होते हैं.
हिंदूत्व और बीजेपी के प्रति डोम समुदाय की आत्मीयता के कारण ही बनारस के डोम राजा का झुकाव नरेंद्र मोदी की ओर था. यह आत्मीयता उस समय और बढ़ गई जब जगदीश चौधरी को 2021 में मरणोपरांत पद्मश्री का अवार्ड दिया गया. यह पूछे जाने पर कि क्या नरेंद्र मोदी का यहां से बतौर सांसद चुना जाना फायदेमंद रहा (जैसा कि ज्यादातर डोम मानते हैं), डोम राजा के पारिवारिक सदस्य पवन चौधरी कहते हैं, "सब कुछ बदल गया है. यह केवल मोदीजी के हमारे डोम राजा से हाथ मिलाने के हाव-भाव की ही बात नहीं है, बल्कि उन्होंने हमारे साथ एक प्यार भरा रिश्ता बनाया है. कई सरकारें आईं और गईं, लेकिन मोदीजी के अलावा किसी ने डोम जाति को नहीं समझा."
ऐसा समुदाय जिसके साथ दशकों से भेदभाव होता रहा है और जिन्हें अछूत माना जाता रहा है उनके लिए यह बड़ी बात है और इससे उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है. इससे वे हिंदूत्व के करीब आए हैं, कई डोम कार्यकर्ता मोदी के हावभाव और इसके कारण डोम जाति उत्थान के कारण गर्व का अनुभव करते हैं. मंगल आगे कहते हैं, "मोदी जी ने हर एक के लिए और डोम समुदाय के लिए काफी कुछ किया है." एक दूसरे डोम कार्यकर्ता रणबीर चौधरी का कहना है, "ऐसे में हम बीजेपी के लिए वोट क्यों नहीं करेंगे?" हालांकि, यह पूछे जाने पर कि उनके समुदाय के कौन-सा ठोस फायदे हुए हैं, इन दोनों कार्यकर्ताओं के पास सीमित जवाब थे.
शव को जलाने का काम माना जाता है पवित्र
पारंपरिक तौर पर, अधिकतर डोम लोग तथाकथित छोटी जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों को वोट करते रहे हैं, जिनमें बीएसपी भी शामिल रही है. लेकिन अब डोम लोग बीजेपी के समर्थक बन चुके हैं. बीजेपी को यह समर्थन कैसे प्राप्त हुआ? जगदीश चौधरी के निधन पर दक्षिणपंथी मीडिया द्वारा लिखे गए एक लेख को पढ़ने से इसके संकेत मिलते हैं. 'स्वराज्य' के लिए लिखने वाली सुमति महर्षि अपने लेख में, मोदी और योगी के उन दावों का सही बताती हैं जहां उन्होंने यह कहा था कि चौधरी के निधन से सनातन परपंरा को क्षति हुई है. उन्हें सनातन धर्म की 'परंपरा का वाहक' माना जाता था. हर किसी को यह स्वीकार करना चाहिए कि डोम राजा इन चीजों का प्रतिनिधित्व करते हैं. सांस्कृतिक तौर पर अहम माने जाने वाले दाह संस्कार को मोक्ष से जोड़कर देखा जाता है, यह हिंदू परंपरा की महत्वपूर्ण अवधारणा है, इसकी वजह से डोम राजा और उनका समुदाय हिंदू संस्कृति का अहम हिस्सा बन जाता है.
डोम राजा के परिवार के लोग मृत शरीर को जलाने के काम को पवित्र कार्य मानते हैं, दूसरे डोम कार्यकर्ता भी इससे बंधे होते हैं और वे भी इसे एक पवित्र कार्य मानते हैं. लेकिन यह भी देखा जाना चाहिए कि इस हिंदू संस्कृति का निर्माण एक जाति के कल्याण की कीमत पर हुआ है. यह कहा जा सकता है कि हिंदू आदर्शों, जैसे सनातन धर्म और मोक्ष, से जुड़े इस जातिगत कार्य से इस जाति के अस्तित्व को अस्वीकार किया गया है. और अनजाने में यह हिंदुत्व के एजेंडे का समर्थन करता है.
अभी भी डोम समुदाय को जातिगत भेदभाव, जैसे कि अस्पृश्यता, का सामना करना पड़ता है और कुछ लोग ऐसे हैं जो दाह संस्कार के इस अनुवांशिक कार्य से खुद को अलग कर पाए हैं. 'वंचित वर्ग' के शुभचिंतक होने का, या हिंदू अधिकार के लिए 'वंचित वर्ग को जोड़ने वाला होने' का दावा इन जातिगत समुदायों, विशेष तौर पर दलित समुदायों, को केवल एक सांस्कृतिक वस्तु बना देता है. जाति को जब संस्कृति के एक विचार के तौर पर देखा जाता है तब जाति दयापूर्ण श्रेणी बन जाती है और आज की राजनीति पर हावी हिंदू सांस्कृतिक आदर्शों के लिए इन्हें जिम्मेदार बनाने की जरूरत नहीं है.
डोम समुदाय की जातिगत पहचान को धर्म, मोक्ष और सनातन धर्म के साथ जोड़ना, 'जाति के संस्कृतिकरण' की प्रक्रिया का एक हिस्सा ही है. इस अवधारणा को बालमुरली नटराजन की किताब, The Culturalization of Caste in India में अच्छी तरह से समझाया गया है.
नटराजन के मुताबिक, "जाति को सबसे अच्छे तरीके से संस्कृति (पारंपरिक रूप से जारी मान्यताएं और प्रथाएं) के निर्माण के तौर पर समझा जा सकता है, जो विभिन्न वर्गों में भेद को बताता है." तो फिर, डोम समुदाय के काम (लाशों को जलाना और इस कार्य को पवित्र मानना), मोक्ष के साथ इसके संबंध और हिंदू धर्म को बनाए रखने की उनकी महान विरासत, ये सभी कुछ जाति को एक संस्कृति बनाने की 'अंधविश्वास' का एक हिस्सा है. डोम की संस्कृति अपने आप में अनोखी है लेकिन इसे हिंदू सभ्यता के गौरव की रक्षा से जोड़ दिया गया है.
वह आगे लिखते हैं, "छद्म-सांस्कृतिक समूहों के रूप में जातियां हिंदुत्व की अक्षमता और उदासीनता में फिट बैठती है ताकि हिंदुत्व के भीतर सत्ता के संबंधों को परिवर्तित किया जा सके." ऐसे में क्योंकि हिंदुत्व हिंदुवाद के भीतर सत्ता संबंधों को बदलने को लेकर उदासीन है, इसलिए वह जातियों को इस्तेमाल करता है. इस प्रकार, डोम राजा, 'मोक्ष की अग्नि का संरक्षक' की कल्पना इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हो जाती है. यह डोम समुदाय की सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाने का काम करता है, जबकि वास्तव में यह इस जाति की उन दुश्वारियों को छिपाने का काम करता है, समाज में जिनका वे सामना करते हैं. हमें दिखाया जाता है कि कैसे डोम समुदाय अपने खिलाफ जातिगत भेदभाव से इनकार करता है, ताकि डोम जाति के विशेष लोगों के एजेंडे को पूरा किया जा सके. जाति को एक संस्कृति बताकर, उस जाति की सभी समस्याओं को खत्म किया जाता है ताकि हिंदू आदर्शों की रक्षा की जा सके और आखिरकार हिंदुत्व के घृणित एजेंडे को पूरा किया जा सके.
हिंदू को एकजुट करने की कोशिश
हिंदुत्व अपने आदर्शों के नाम पर जातिगत समूहों को मुस्लिमों और उदारवादी धर्मनिरपेक्ष लोगों के खिलाफ लामबंद कर सकता है यह बात ज्यादातर पिछड़े वर्गों के बीच देखी जाती है, खास तौर पर यूपी की गैर-यादव जातियों में. नटराजन लिखते हैं, 'क्षेत्रीय दबदबे से ऊपर राष्ट्रीय रजिस्टर में भी इन जातियों का प्रभुत्व इसलिए बढ़ गया है क्योंकि ऊंची जातियों की तरह ये भी पूरे दमखम से हिंदुत्व की विचारधारा की व्याख्या कर सकते हैं.' बनारस की डोम जाति के इस झुकाव को हिंदुत्व की बहुसंख्यक संस्कृति के इस्तेमाल के प्रयासों जैसा नजर आता है.
जाति-विरोधी पहचान से हटकर दलितों के बड़ी हिंदू-सांस्कृतिक राजनीति में ढल जाने से हिंदू एकता का पता चलता है. यह स्पष्ट है कि यह हिंदू एकता जाति के वास्तविक हालात पर कभी सवाल नहीं उठाती है, बल्कि इस एकता का इस्तेमाल दूसरे धर्म, जो कि मुस्लिम धर्म है, के खिलाफ एकजुट किए जाने में होता है. जाति और उसके दावों को हिंदुत्व की कट्टरता से अलग नहीं किया जा सकता, और इसलिए मौजूदा राजनीति की इस्लामोफोबिक प्रकृति को भी समझने के लिए यह एक महत्वपूर्ण चिंतन है.
Gulabi
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