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योगी आदित्यनाथ पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं
विजय त्रिवेदी
क्या यह सवाल महत्वपूर्ण है? क्या कोई बड़ा बदलाव उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों (UP Assembly Election) के नतीजे के बाद नेतृत्व को लेकर हो सकता है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (PM Modi) ने रैलियों और जन सभाओं में बार-बार इस बात का ऐलान किया है –"आएगा तो योगी ही", फिर भी बहुत से सवाल हवा में तैर रहे हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) वो शख्सियत हैं जिसने साल 2017 में ना तो यूपी विधानसभा का चुनाव लड़ा और ना ही काफी समय से वो स्टार प्रचारक रहे. मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में भी उनका नाम नहीं था, इस सबके बावजूद बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया और फिर इस बात को लेकर कोई बड़ा विरोध इन पांच वर्षों में हुआ भी नहीं.
अब सवाल उठता है कि जब वे खुद मुख्यमंत्री हैं तो फिर दोबारा बीजेपी के सत्ता में आने के बाद योगी के कुर्सी संभालने पर अनिश्चय क्यों है? जबकि इस बार बीजेपी ने औपचारिक तौर पर उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है, वो स्टार प्रचारक हैं, चुनाव में टिकटों के बंटवारे में भी उनकी ही चली है. योगी आदित्यनाथ पर जातिवादी राजनीति के आरोपों के बावजूद पार्टी ने चेहरा बदलने की हिम्मत नहीं दिखाई. बीजेपी ने इस दौरान उत्तराखंड में दो बार, कर्नाटक में एक बार और गुजरात में तो पूरे मंत्रिमंडल को ही बदल दिया, लेकिन उत्तर प्रदेश को नहीं छेड़ा.
योगी आदित्यनाथ पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के पांच चरण में वोट डाले जा चुके हैं और इन पांच चरणों में पिछली बार बीजेपी ने सरकार बनाने के लिए ज़रूरी बहुमत जुटा लिया था. उस वक्त उसने इन पांच चरणों की 292 सीटों में से 240 सीटों पर जीत हासिल कर ली थी, यानि स्पष्ट बहुमत के लिए ज़रूरी आंकडों को हासिल कर लिया था तो क्या इस बार वो यह बहुमत हासिल नहीं कर पाएगा? हम चुनाव नतीजों पर मशक्कत नहीं कर रहे और ना ही कोई अंदाजा ज़ाहिर करना चाहते हैं. सवाल यह है कि यदि इन चुनावों में बीजेपी बहुमत हासिल करती है तो क्या योगी ही फिर से मुख्यमंत्री बनेंगे?
योगी आदित्यनाथ इन चुनावों में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं. यानि सबसे अहम छठा चरण और उसमें सबसे महत्वपूर्ण गोरखपुर सीट. पिछली बार विधानसभा चुनावों के नतीजे आते वक्त वो गोरखपुर सीट से लोकसभा सांसद थे और जब उन्हें विधायक दल का नेता चुन लिया गया तो उन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ने के बजाय विधानपरिषद का रास्ता अपनाया. उनके प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव भी पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं. अखिलेश ने भी साल 2012 में मुख्यमंत्री बनने के बाद विधान परिषद का रास्ता ही चुना था. योगी आदित्यनाथ इससे पहले गोरखपुर से ही 1998 से सांसद रह चुके हैं. उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ यहां से सांसद रहे थे.
राजनीतिक विशेषज्ञ योगी आदित्यनाथ को मूलत: बीजेपी या संघ परिवार का सदस्य नहीं मानते. वे उन्हें गोरखपुर पीठ के महंत और हिन्दू युवा वाहिनी के चेहरे के तौर पर देखते हैं. इसके मायने यह हैं कि योगी आदित्यनाथ बीजेपी के अनुशासन में चलने वाले नेता के तौर पर नहीं देखे जाते. यह आशंका भी जाहिर की जाती है कि अगर पार्टी नेतृत्व ने उनके ख़िलाफ़ कोई कदम उठाने की हिम्मत दिखाई तो वो अपना अलग रास्ता भी चुन सकते हैं. कुछ लोग इसे उनके नेतृत्व की ताकत और लोकप्रियता से जोड़ते हैं या फिर कुछ इसमें अनुशासनहीनता की आशंका देखते हैं. वैसे पिछले बीस साल में शायद ही कोई मौका हो जब योगी ने अपनी सीमाएं लांघी हों, सिवाय एक बार जब उन्होंने बीजेपी के अधिकृत उम्मीदवार शिव प्रताप शुक्ला के ख़िलाफ़ अपना उम्मीदवार ना केवल उतारा बल्कि शुक्ला को हरा भी दिया. शुक्ला अभी राज्यसभा के सदस्य हैं और मोदी सरकार में मंत्री भी.
बीते पांच वर्षों में योगी हर दौर से गुजरे
योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि दीक्षा लेने के बाद उन्होंने जाति की पहचान ही नहीं छोड़ी बल्कि अपना परिवार भी छोड़ दिया. बहुत से लोग उन पर जातिवादी राजनीति या ठाकुरवाद अपनाने का आरोप लगाते रहे हैं. योगी की इस राजनीति से उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों का एक बड़ा वर्ग उनसे नाराज बताया जाता है. यूं योगी की सरकार में आठ ब्राह्मण मंत्री हैं. राजनीतिक जानकार उन्हें कट्टर हिन्दुत्व की राजनीति करने वाला नेता के तौर पर मानते हैं तो उनके समर्थक योगी को हिन्दू हृदय सम्राट कहते हैं. आरोप है कि योगी की सवर्णों की राजनीति करते हैं. बीजेपी या उसके वोटर में एक बड़े तबके में इस बात को लेकर नाराज़गी अब भी बताई जाती है कि पिछला चुनाव केशव प्रसाद मौर्य के नेतृत्व में लड़ा गया, जिसका मतलब था कि वो ही मुख्यमंत्री बनेंगे, लेकिन उनके बजाय एक सवर्ण और कट्टर हिंदू नेता योगी को मुख्यमंत्री बना दिया गया. मौर्या को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया.
नाराजगी का यह सिलसिला तो शुरुआत में ही हो गया, जब यूपी सचिवालय के पंचम तल पर मुख्यमंत्री योगी के साथ वाले कमरे से मौर्य की नेम प्लेट हटा दी गई. योगी के ख़िलाफ़ नाराज़गी तो तब भी दिखाई दी जब सौ से ज़्यादा बीजेपी विधायकों ने अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर दिया. मुख्यमंत्री के तौर पर योगी आदित्यनाथ ने हिन्दुत्व का एजेंडा चलाया तो साथ में ही कानून व्यवस्था पुख्ता करने की अपनी छवि भी बनाई. उनकी 'ठोको नीति' की आलोचना जमकर हुई तो उसने एक बड़ा भक्त वर्ग उनके साथ खड़ा कर दिया. लव जेहाद पर सरकार की नीतियों ने उन्हें एक वर्ग में खासा लोकप्रिय बनाया. कोरोना के दौरान पहले चरण में प्रवासी मजदूरों के पैदल यूपी लौटने की तस्वीरों और दूसरे चरण में कई नदियों में बहती लाशों ने उन पर हमले गंभीर कर दिए. उसी दौरान उन्होंने अस्पतालों की व्यवस्था बेहतर करने, ऑक्सीजन उपलब्ध कराने की कोशिश की और मुफ्त राशन की व्यवस्था कर माहौल को ठीक करने का काम किया.
राम मंदिर निर्माण का काम हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद शुरू हुआ और उसका श्रेय भी ज़्यादातर लोग योगी के बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को देते हैं. इन पांच साल में योगी ना केवल 40 से ज़्यादा बार अयोध्या गए, वहां उन्होंने हर दीवाली पर लाखों दीपक जलाकर दीपोत्सव से अयोध्या शहर को नई पहचान देने का काम किया. फैज़ाबाद ज़िले का नाम बदल कर 'अयोध्या' किया. स्टेशन का नाम 'अयोध्या कैंट' कर दिया. रेलवे स्टेशन को नया रूप दिया. विकास की नई तस्वीर बनाई. एयरपोर्ट मंज़ूर किया और मंदिर निर्माण के लिए ज़मीन अधिग्रहण और खरीद का काम भी किया. इसके साथ इलाहाबाद अब योगी राज में 'प्रयागराज' हो गया तो मुगलसराय रेलवे स्टेशन अब 'दीन दयाल उपाध्याय' के नाम से जाना जाता है. काशी में विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण हुआ. माफिया के ख़िलाफ़ अभियान चलाकर योगी 'बाबा बुल्डोजर' हो गए. आरोप है कि उनका यह बुल्डोजर एक वर्ग विशेष माफिया के ख़िलाफ़ ही चला और जो माफिया जेल में गए या फिर एनकाउंटर में मारे गए, वो भी एक वर्ग विशेष के माने जाते हैं.
आरएसएस नेतृत्व का समर्थन मिलने से योगी का कद बढ़ गया
इन पांच वर्षों में योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं रही. बीजेपी ने उन्हें हैदराबाद, पश्चिम बंगाल, केरल,असम और तमिलनाडू जैसे इलाकों में भी प्रचार के लिए इस्तेमाल किया. संघ परिवार ने उन्हें हिन्दुत्व का चेहरा बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उनका इन इलाकों में प्रचार का असर भी दिखा. मुख्यमंत्री रहते हुए 2019 में लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी के तालमेल के बावजूद वे बीजेपी को प्रदेश में साठ से ज़्यादा सीटें दिलाने में कामयाब रहे. कांग्रेस के गढ़ रहे अमेठी को उन्होंने राहुल गांधी से छीन लिया.ऐसा नहीं है कि योगी आदित्यनाथ को लेकर पार्टी में सवाल नहीं उठे, एक वक्त तो ऐसा आया जब प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की मांग भी जोर पकड़ने लगी. तब संघ के वरिष्ठ नेताओं और बीजेपी नेताओं की दिल्ली और लखनऊ में कई बैठके हुईं और जीत योगी के पक्ष में ही हुई.
कुछ लोग मानते हैं कि आरएसएस नेतृत्व का समर्थन मिलने से योगी का कद बढ़ गया. बहुत से नेताओं के ना चाहते हुए भी योगी विधानसभा चुनावों में बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के चेहरे बन गए. संघ और योगी समर्थकों में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो योगी को मोदी के बाद नेतृत्व का चेहरा मान कर चल रहे हैं. राजनीति का मैदान ऐसी कहानियों से अक्सर ठसा रहता है. अभी तो पहला इम्तिहान इस विधानसभा चुनाव को जीतकर पार्टी के लिए बहुमत हासिल करना है, स्पष्ट बहुमत और फिर उनकी लड़ाई दूसरे स्तर पर होगी, मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने की. कहा जा रहा है कि अखिलेश यादव उनको कड़ी टक्कर दे रहे हैं. स्थानीय स्तर पर विधायकों के खिलाफ माहौल से मुश्किलें बढ़ी हैं, साथ में कुछ नेताओं का बीजेपी का साथ छोड़कर समाजवादी पार्टी का हाथ पकड़ने से सोशल इंजीनियरिंग में दरार भी लगी है.
योगी के राजनीतिक भविष्य पर सवाल उठाने से पहले उनके इतिहास को जान लेना चाहिए, खासतौर से योगी के पिछले बार अचानक से मुख्यमंत्री बनने की वो रहस्यमयी कहानी. 18 मार्च, 2017 की शाम लखनऊ के लोकभवन के बाहर मेला सा लगा था, तिल रखने भर की जगह नहीं. अंदर विधायक दल की बैठक शुरू हो गई. बीजेपी विधायक दल की बैठक से पहले तक किसी को योगी के नाम का अंदाज़ा नहीं था, यहां तक कि नाम का प्रस्ताव रखने वाले सबसे सीनियर आठ बार विधायक रहे सुरेश खन्ना को भी नहीं.
बीजेपी की स्पष्ट बहुमत से जीत यानि योगी की वापसी
लोक भवन के ऑडिटोरियम में माहौल में गर्माहट के साथ सस्पेंस का घेरा गहरा होता जा रहा था. राजनीतिक फ़िल्म संस्पेस और थ्रिलर में बदलती जा रही थी. विधायकों की धड़कनें बढ़ी हुई थीं. पश्चिम में सूरज जब डूबने की तैयारी कर रहा था तो उसे भी शायद अगली सुबह के लिए नए सूरज का इंतज़ार हो रहा था. पार्टी के दोनों पर्यवेक्षक वेंकैया नायडू और भूपेन्द्र यादव के साथ यूपी बीजेपी के अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य, दिनेश शर्मा, ओम प्रकाश माथुर और सुनील बंसल ऑडिटोरियम में पहुंचें. विधायकों की हैरानी तब बढ़ गई जब सभागार में योगी आदित्यनाथ की एंट्री हुई. बीजेपी की ज़्यादातर बैठकों में योगी शामिल नहीं होते थे. ज़्यादातर को तो इस बात का अंदाज़ा भी नहीं था कि योगी लखनऊ में हैं क्योंकि उससे एक दिन पहले उनके गोरखपुर होने की खबर चल रही थी.
वेंकैया नायडू ने अपने सहयोगी दलों अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के विधायकों को आगे आने के लिए निमंत्रण दिया. फिर बारी आई सुरेश खन्ना की. खन्ना का तीन मिनट का स्वागत भाषण विधायकों को मानो एक जिंदगी बीत जाने से लगा, बस नाम का इंतज़ार. आखिर में खन्ना ने कहा – "मैं बीजेपी विधायक दल के नेता का तौर पर योगी आदित्यनाथ के नाम का प्रस्ताव रखता हूं". अचानक पूरा माहौल बदल गया, एक उल्लास, एक जोश, एक हंगामा, बधाईयां, शोर.. इतना शोर और जोश कि वेंकैया नायडू को टोकना पड़ा – रुकिए, ऐसा नहीं होता, पहले कार्रवाई पूरी होने दीजिए, लेकिन कोई सुनने वाला ही नहीं. विधायक धर्मपाल सिंह ने प्रस्ताव का समर्थन किया. फिर वेंकैया नायडू ने पूछा कि किसी को कोई आपत्ति है. सवाल तालियों और उल्लास के शोर में दब गया हो मानो.
देश के सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री के लिए देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ने बड़े ही "लोकतांत्रिक तरीके" से नेता चुन लिया. बीजेपी ने बाहर आकर जैसे ही इसकी घोषणा की तो आग की तरह पूरे देश भर में खबर फैल गई. कार्यकर्ताओं का जोश देखते ही बनता था – हवा में "यूपी में रहना है तो योगी-योगी कहना है" के नारों की गूंज सुनाई दे रही थी. योगी मुख्यमंत्री बनेंगे या नहीं, इससे ज़रूरी सवाल यह भी है कि क्या इस बार फिर से बीजेपी की सरकार बनेगी. पिछले बीस साल में तो यूपी में किसी पार्टी की सरकार दोबारा नहीं बनी है और अब गठबंधन सरकार बने भी ज़माना बीत गया. बीजेपी की स्पष्ट बहुमत से जीत यानि योगी की वापसी, क्या "मोदी है तो मुमकिन है" का नारा यहां जादू दिखाएगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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