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यूपी विधानसभा चुनाव 2022
कार्तिकेय शर्मा।
उत्तर प्रदेश की चुनावी मंथन से एक चीज़ साफ होती है कि भारत में दलित राजनीति बौद्धिक स्तर पर सिमट कर रह गयी है . दलित राजनीति आज टीवी स्टूडियो, कक्षाओं, किताबों और एनजीओ सेक्टर तक सीमित है. उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में राजनीति हिंदुत्व की पिच से निकल कर पिछड़ी जातियों की पिच पर पहुंच गयी है लेकिन इसमें दलित नेतृत्व गायब है. बात पिछड़ों की है लेकिन दलित चेहरे नहीं है . घेराबंदी अतिपिछड़ों को लेकर है लेकिन फैसले की टेबल पर ये या तो दिखते नहीं और होते हैं तो महज़ स्टेम की तरह . मायावती तथाकथित दलित नेता हैं लेकिन उनका प्रदर्शन पिछले 2 चुनावों में बहुत खराब रहा है . दलित मुद्दों पर उन्हें कम ही बोलते सुना जाता है . उसके ऊपर कई पार्टियों का आरोप भी है कि वो जिस तरह से पश्चिम उत्तर प्रदेश में विधान सभा के टिकट बांट रही हैं वो केवल बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है.
अंबडेकर की बौद्धिक आलोचना बिना किसी विवाद के असंभव
आज महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की आलोचना करना आसान है लेकिन अंबडेकर की बौद्धिक आलोचना बिना किसी विवाद का हिस्सा बने नहीं हो सकता है. उनकी मूर्तियां भारत के हर गांव में हैं लेकिन उस गांव में दलित नेतृत्व नहीं होगा. सावरकर के बयानों को लेकर भरी भरकम बहस हो जाती है लेकिन अंबडेकर के विचार पर कोई विवाद नहीं होता है. बीजेपी भी अंबेडकर के सामने नतमस्तक है जबकि उनके विचार हिन्दू धर्म पर आरएसएस और बीजेपी से अलहदा थे. आज उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर यानी रावण बहन मायावती के बाद दूसरे दलित नेता माने जाते हैं लेकिन उनकी पहली कोशिश समाजवादी पार्टी से गठबंधन की है और दूसरी बीजेपी को हराने की. पंजाब में चन्नी को कांग्रेस ने दलित मास्टरकार्ड की तरह से पेश किया था लेकिन उनकी खुद की राजनीति मुख्यमंत्री बनने से पहले दलित राजनीति से अलग थी. बीजेपी, कांग्रेस, सपा, आरजेडी, एलजेपी में दलित नेता हैं लेकिन इनमें से कोई उत्तर भारत का दलित नेता नहीं कह सकता है. महाराष्ट्र में दलित राजनीति लेफ्ट पॉलिटिक्स से जुड़ कर सीमित हो गयी है और बची कुछी राजनीति को बीजेपी ने माओवाद का इलज़ाम लगा कर तिरस्कृत कर दिया है. आज़ादी के बाद अंबेडकर को अपने राजनैतिक जीवन को ज़िंदा रखने के लिए काफी जद्दो जहद करनी पढ़ी थी. वो लोक सभा का चुनाव भी हार गए थे और बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया था. लेकिन इस दौरान संविधान तैयार करने के अलावा उन्होंने दलित राजनीति की वैचारिक और राजनैतिक पृष्ठभूमि तैयार की थी. लेकिन अंबेडकर के बाद इस पृष्टभूमि पर काम कांशीराम ने किया लेकिन उसपर बौद्धिक तस्दीक़ नहीं होती है . दलित समाज के पास आज़ादी के बाद सबसे बड़ा आइकॉन था . ओबीसी समुदाय के पास साथ के दशक में चौधरी चरण सिंह, जैसे बड़े नेता और राम मनोहर लोहिया जैसे विचारक मिले जिसके कारण उत्तर के राज्यों में नया नेतृत्व पैदा हो पाया.
दलितों के नेतृत्व में ऊंची जातियां आगे रहीं
लेकिन दलित समाज में ऐसा नहीं हुआ. उनकी राजनीति बड़ी पार्टियों के भीतर सीमित रही. बीएसपी एक अपवाद है. कांग्रेस के बाद राष्ट्रीय स्तर पर दलित वोट बीजेपी में शिफ्ट हुआ . 1980 तक कांग्रेस को दलितों का वोट ऊंची जातियों के साथ जाता रहा. दलितों के नेतृत्व में ऊंची जातियां आगे रहीं. दलित राजनीति देश में आदिवासियों की तरह नेतृत्व में राजनैतिक विकल्प नहीं बन पायी. विकल्प के रूप में ओबीसी उभर आएं. पहले ओबीसी में डोमिनेंट ओबीसी ने मलाई खाई जिसको लेकर अब खासा बवाल मचा है.| लेकिन विकल्प इनके हाथ से बाहर नहीं निकला क्योंकि अब राजनैतिक नेतृत्व की लड़ाई ओबीसी में साइज में छोटी और बड़ी जातियों के बीच ही हैं. यही कारण है कि ऊंची जातियों के दबदबे के बाद अब भारत की राजनीति में ओबीसी का दबदबा है. 2022 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी दलित नेतृत्व गायब है. बिहार विधानसभा चुनावों में भी दलित नेतृत्व गायब था. यही हाल देश के लगभग सभी राज्यों में हैं जहा दलित नेतृत्व के नाम पर केवल दलित मंत्री हैं . चन्नी को दलित मंत्री के नाम पर बेचा जा रहा है लेकिन कांग्रेस ने मुख्यमंत्री कैंडिडेट घोषित नहीं किया है.
प्रतिनिधित्व मिला पर कमान नहीं
दलित समाज को लोक सभा और विधान सभाओं में प्रतिनिधित्व तो मिला लेकिन शासन की कमान नहीं मिल पायी. वैसे सत्ता की कमान ली जाती है कभी कोई समाज उसकी चाभी खुद नहीं देता है. देश में आज़ादी के बाद दलित चेहरे तो आये लेकिन उन्होंने दलित नेतृत्व तैयार नहीं किया. इसकी सबसे बड़ी मिसाल खुद मायावती हैं जिन्हे अब दलित नेता की जगह वोट काटने वाली पार्टी के नेता के रूप में देखा जा रहा है . इसलिए हिंदुत्व से मंडल की तरफ जाती राजनीति में ओबीसी नेतृत्व को फायदा हुआ लेकिन दलित राजनीति इसमें समाहित हो गयी है. तभी मैं कहता हूं कि आज दलित समाज के भगवान तो जीवंत हैं लेकिन राजनैतिक नेतृत्व मृत है. शायद तभी अंबेडकर इस बात को अंत तक कहते रहे कि सामजिक लोकतंत्र के बिना राजनैतिक और आर्थिक लोकतंत्र बेमानी है.
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