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जाति आधारित पार्टियां तो बहाना है
याद करके देखिए, 90 के दशक की राजनीति का वो दौर जब समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) की जीत सुनिश्चित करने के लिए लखनऊ से अरुण शंकर शुक्ला अन्ना (Arun Shankar Shukla Anna) और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से धर्मपाल सिंह उर्फ डीपी यादव (D. P. Yadav) जैसे बाहुबली इटावा पहुंचते थे. वक्त बदला, राजनीतिक परिस्थितियां बदलीं और इन बाहुबलियों को ये लगने लगा कि जब हम अपने बाहुबल से मुलायम और मायावती (Mayawati) जैसे नेताओं को चुनाव जितवा सकते हैं तो खुद चुनाव लड़कर क्यों नहीं जीत सकते. तो इन बाहुबलियों ने पार्टी में उम्मीदवारी जता दी और विधानसभा से लेकर संसद तक खड़ी हो गई इन बाहुबली नेताओं की फौज.
इस दौर को अगर 'अपराध का राजनीतिकरण' कहें तो शायद गलत नहीं होगा और इसमें क्या बीजेपी, क्या कांग्रेस, क्या एसपी और क्या बीएसपी सबने डुबकी लगाई. एक लम्बे कालखंड के बाद जब लोगों में राजनीतिक जागरुकता बढ़ी, राजनीतिक शुचिता की बात की जाने लगी और चुनाव आयोग का शिकंजा कसा तो इन बड़े दलों को इस बात का अहसास हुआ कि इससे पार्टी की साख खराब हो रही है तो इन बाहुबली नेताओं से किनारा करना शुरू कर दिया. ऐसे में अब इन बाहुबली नेताओं को सूबे की जाति आधारित छोटी-छोटी पार्टियां खूब भा रही हैं.
यूपी चुनाव के संदर्भ में बात करें तो खास बात ये भी है कि ये छोटी-छोटी पार्टियां भी मुख्य रूप से दो गठबंधनों का हिस्सा बन गई हैं जिसमें एक की कमान एसपी के पास तो दूसरे की कमान बीजेपी के पास है.
बीजेपी के बाहुबलियों का किधर होगा ठिकाना?
बीजेपी और निषाद पार्टी के कुछ नेताओं की कोशिश है कि निषाद पार्टी को गठबंधन में वही सीटें दी जाएं जिनपर बीजेपी से जुड़े बाहुबली नेता अपना दांव लगाने जा रहे हैं. कई गंभीर मामलों के आरोपी और पूर्व सांसद धनंजय सिंह 2002 और 2007 में रारी विधानसभा सीट से विधायक रहे हैं. 2009 में बीएसपी के टिकट पर वह लोकसभा भी पहुंचे लेकिन 2011 में बीएसपी से निकाले जाने के बाद आजकल उनका बीजेपी प्रेम किसी से छिपा नहीं है. माना जा रहा है कि आगामी चुनाव में धनंजय सिंह को मल्हनी सीट से बीजेपी की सहयोगी पार्टी अपना दल (एस) या फिर निषाद पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ाया जा सकता है. इसके अलावा धनंजय सिंह के करीबी कटेहरी के पूर्व ब्लॉक प्रमुख अजय सिंह सिपाही और अतरौलिया के पूर्व ब्लॉक प्रमुख अखंड सिंह भी निषाद पार्टी के संपर्क में हैं.
बीकापुर से पूर्व विधायक जितेंद्र सिंह बबलू की भी बीजेपी में सीधे एंट्री तो नहीं हो पाई है, लेकिन कहा जा रहा है कि वह भी निषाद पार्टी से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं. मिर्जापुर के पूर्व एमएलसी बाहुबली विनीत सिंह की बात करें तो बीजेपी भले ही सीधे तौर पर उन्हें स्वीकार न करे, लेकिन अपनी सहयोगी पार्टी अपना दल (एस) की बदौलत जरूर अपने करीब बनाए रखने की जुगत भिड़ा रही है. बाहुबली ब्रजेश सिंह फिलहाल वाराणसी से विधान परिषद के निर्दलीय सदस्य के तौर पर एमएलसी हैं. माना जा रहा है कि बृजेश सिंह भी इस बार के चुनाव में अपना भाग्य जरूर आजमाएंगे, लेकिन बीजेपी समर्थित किस पार्टी के टिकट पर यह अभी तय नहीं है.
बीजेपी विरोधी बाहुबलियों का ठिकाना
जब से योगी सरकार ने बाहुबली नेताओं और हिस्ट्रीशीटरों पर शिकंजा कसा है तब से खुद को बाहुबली कहने वाले नेता सीधे तौर पर दो धड़ों में बंट गए हैं- एक खेमा बीजेपी समर्थक तो दूसरा बीजेपी विरोधी खेमा बन गया. ऐसे में बीजेपी विरोध का झंडा उठाकर घूम रहे कद्दावर बाहुबली नेताओं ने भी अपना राजनीतिक ठिकाना ढूंढना शुरू कर दिया है. माफिया से नेता बने मुख्तार अंसारी ने भी 2022 की तैयारी कर ली है. इसका संकेत सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभाएसपी) के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने दे दिया है. बीजेपी के खिलाफ बड़ा मोर्चा खोल चुके राजभर एसपी के साथ गठबंधन की घोषणा करने के बाद यह तय कर चुके हैं कि बाहुबली मुख्तार को वह अपनी पार्टी से विधानसभा का चुनाव लड़वाएंगे.
अतीक अहमद की बात करें तो अभी तय नहीं है कि वो चुनाव लड़ते हैं या नही, लेकिन उनकी पत्नी शाइस्ता परवीन जरूर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी अखिल भारतीय मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन में शामिल हो गई हैं. ऐसा माना जा रहा है कि वह ओवैसी की पार्टी से प्रयागराज शहर दक्षिण से चुनाव मैदान में उतर सकती हैं जहां से अतीक अहमद पांच बार विधायक रहे हैं. इसके अलावा अयोध्या की गोसाइगंज विधानसभा से विधायक रहे बाहुबली अभय सिंह, सुल्तानपुर जिले के बाहुबली भाई चन्द्रभद्र सिंह उर्फ सोनू और यशभद्र सिंह उर्फ मोनू, आजमगढ़ के यादव बंधु यानि रमाकांत यादव और उमाकांत यादव समेत करीब दो दर्जन से अधिक बाहुबली नेता जाति आधारित पार्टियों के बैनर तले 2022 के चुनावी समर में कूदने को तैयार हैं.
अपनी पार्टी के खुद मालिक हैं ये बाहुबली नेता
पूर्वांचल में सबसे असरदार व समझदार दबंग बाहुबली नेता के तौर पर कुंडा विधायक रघुराजप्रताप सिंह उर्फ राजा भैया ने हाल ही में अपनी अलग पार्टी जनसत्ता दल का गठन किया है. उसी के झंडे पर वे इस बार कुंडा से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं. हालांकि राजा भैया को किसी भी पार्टी की सरकार हो, कभी कोई परेशानी नहीं हुई. दूसरी तरफ पश्चिमांचल की बात करें तो दादरी विधानसभा से बीजेपी के विधायक रहे महेंद्र भाटी हत्याकांड में बरी होने के बाद राष्ट्रीय परिवर्तन दल के अध्यक्ष धर्मपाल सिंह उर्फ डीपी यादव की भी एक बार फिर से यूपी की सियासत में एंट्री हो गई है. कहा जा रहा है कि डीपी यादव सम्भल की असमोली विधानसभा से चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं. चूंकि बीजेपी, एसपी और बीएसपी तीनों ही दलों के साथ डीपी यादव ने सियासत की है, लिहाजा डीपी का झुकाव किस पार्टी की तरफ रहेगा इसका फैसला चुनाव बाद ही तय होगा.
आखिर कब जागेगी विधायिका की अंतरात्मा?
बहरहाल, देखना बड़ा रोचक होगा कि यूपी चुनाव में तमाम बाहुबली नेताओं से जाति आधारित पार्टियां कितना फायदा उठा पाती हैं और चुनाव बाद एसपी, बीजेपी, बीएसपी या फिर कांग्रेस जो सीधे तौर पर टिकट देने से बच रही हैं, जीतने के बाद इन बाहुबली नेताओं से खुद को कितना दूर रख पाती हैं? ये दोनों सवाल इसलिए बहुत अहम हैं क्योंकि कहीं न कहीं विधायिका के साथ-साथ चुनाव आयोग पर भी 'अपराध के राजनीतिकरण' को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं. याद हो तो देश की शीर्ष अदालत ने कुछ महीने पहले ही तो कहा था- "राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण का खतरा बढ़ता जा रहा है. इसकी शुद्धता के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को कानून निर्माता बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. मगर हमारे हाथ बंधे हैं. हम सरकार के आरक्षित क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं कर सकते. हम केवल कानून बनाने वालों की अंतरात्मा से अपील कर सकते हैं." लेकिन शीर्ष अदालत की इस अपील से विधायिका की अंतरात्मा क्यों जागे जब राजनीति का मतलब ही चुनाव जीतना और उसके जरिए सत्ता पर काबिज होना रह गया हो.
हालांकि इस बात से इंकार नहीं कि चुनाव आयोग की सख्ती की वजह से ही तमाम बड़ी पार्टियों ने आपराधिक छवि वाले बाहुबली नेताओं से थोड़ा-थोड़ा किनारा किया है, लेकिन इससे ऐसे नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक तो लग नहीं गई. मान लीजिए कल को यूपी विधानसभा में समाजवादी पार्टी या फिर बीजेपी को बहुमत हासिल करने के लिए तीन सीटें कम पड़ जाएं और इसकी भरपाई बाहुबली विधायक करने की स्थिति में हों तो क्या एसपी के अखिलेश यादव या बीजेपी के योगी आदित्यनाथ इस आधार पर सरकार बनाने से इंकार कर सकते हैं कि समर्थन देने वाला विधायक बाहुबली है. अगर यह संभव नहीं तो फिर यही कहा जाएगा कि जाति आधारित पार्टियां तो बहाना है, असल में बाहुबलियों की बैक-डोर एंट्री कराना है. लिहाजा चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट और केंद्र में बैठी सत्ता को मिलकर राजनीति की ऐसी साफ-सुथरी तस्वीर बनानी होगी जिसमें आपराधिक छवि वाले बाहुबली नेताओं की कहीं से कोई एंट्री न होने पाए.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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