सम्पादकीय

UP Assembly Election 2022: नाकाम राजनीतिक प्रयोगों को दोहरा रहे हैं असदुद्दीन ओवैसी

Rani Sahu
17 Dec 2021 9:03 AM GMT
UP Assembly Election 2022: नाकाम राजनीतिक प्रयोगों को दोहरा रहे हैं असदुद्दीन ओवैसी
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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के आगामी विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) में असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) और उनकी पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (AIMIM) एक अहम धुरी बनती जा रही है

यूसुफ़ अंसारी उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के आगामी विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) में असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) और उनकी पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (AIMIM) एक अहम धुरी बनती जा रही है. असदुद्दीन ओवैसी दावा करते हैं कि उत्तर प्रदेश में मुसलमानों पर होने वाले ज़ुल्म को देखते हुए वो यहां उनका नेता बनने के लिए आए हैं. अपनी पार्टी के यूपी में पैर जमाने के लिए ओवैसी ताबड़तोड़ चुनावी रैलियां कर रहे हैं. पिछले रविवार को कानपुर में उनकी रैली थी और आने वाले रविवार को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले के नगीना में उनकी रैली होने जा रही है.

अपनी रैलियों में ओवैसी मुसलमानों से प्रदेश में मुस्लिम नेतृत्व को मज़बूत करने के लिए अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को ज़्यादा से ज़्यादा वोट देकर जिताने की अपील कर रहे हैं. उन्होंने 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर रखा है. पहले उनका गठबंधन ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से हुआ था. तब राजभर ने दलित और पिछड़ी जातियों के नेतृत्व वाली पार्टियों को एकजुट करके 'भागीदारी संकल्प मोर्चा' बनाया था. बाद में इस मोर्चे को ख़त्म करके उन्होंने अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से हाथ मिला लिया. लिहाज़ा ओवैसी अब अकेले अपने दम पर ही चुनाव में ताल ठोक रहे हैं. ऐसा ही उनके साथ पश्चिम बंगाल में भी हुआ था.
मुस्लिम नेतृत्व और उपमुख्यमंत्री का सब्ज़बाग़
असदुद्दीन ओवैसी मुसलमानों को उनके वोट के दम पर प्रदेश में पहला मुस्लिम उपमुख्यमंत्री बनाने का सब्ज़बाग़ दिखा रहे हैं. ओवैसी को लगता है कि अकेले मुस्लिम वोटों के दम पर उनकी पार्टी इतनी सीटें जीत सकती है कि उनके समर्थन के बग़ैर सूबे में किसी दल की सरकार नहीं बनेगी. इस सूरत में वो सरकार बनाने वाली पार्टी से अपनी पार्टी के लिए उपमुख्यमंत्री पद मांग सकते हैं. ओवैसी से पहले प्रदेश के कई मुस्लिम नेता ऐसी कोशिश कर चुके हैं. हर नेता को ऐसी कोशिशों में नाकामी ही मिली है. ऐसी कोशिशें करने वाले नेताओं ने कुछ चुनावों में तो खूब जद्दोजहद की लेकिन नाकामी हाथ लगने के बाद व निराश हो गए. धीरे-धीरे ये तमाम नेता गुमनामी के अंधेरे में ही खोकर रह गए.
डॉ. फरीदी की मुस्लिम मजलिस
विधानसभा में मुसलमानों की नुमाइंदगी बढ़ाने और उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के नाम पर असदुद्दीन ओवैसी उत्तर प्रदेश में जो प्रयोग करना चाहते हैं, वैसे प्रयोग उत्तर प्रदेश में पहले भी कई बार हो चुके हैं. सबसे पहले 1960-70 के दशकों में अंबेडकरवादी विचारधारा से प्रभावित डॉक्टर जलील फ़रीदी ने यह प्रयोग किया था. उन्होंने मुस्लिम मजलिस नाम से पार्टी बनाई थी. चौधरी चरण सिंह के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा था. 1974 में उनकी पार्टी को 12 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. उन्होंने ये सभी सीटें भारतीय क्रांति दल के टिकट पर जीती थीं. उसी साल उनके देहांत के बाद उनकी बनाई मुस्लिम मजलिस ताश के पत्तों की तरह बिखर गई. लेकिन तब उन्होंने तात्कालीन राजनीति को प्रभावित किया था.
डॉ. मसूद की नेश्नल लोकतत्रिंक पार्टी
मायावती ने 1995 में अपने सरकार में शिक्षा मंत्री रहे डॉ. मसूद को बाहर का रास्ता दिखाया तो उन्होंने अरशद ख़ान के साथ मिलकर नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी बनाई. उन दोनों का इरादा मुस्लिम वोटों को एकजुट करके उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़ा उलटफेर करने का था. एक दशक से ज्यादा अरसे में इस पार्टी ने कई लोकसभा और कई विधानसभा चुनाव लड़े. इस दौरान ये पार्टी महज़ एक सांसद और एक विधायक ही जिता पाई. बाद में दोनों नेताओं के बीच पार्टी नेतृत्व को लेकर झ़गड़ा हुआ, पार्टी में दो फाड़ हो गई. डॉ. मसूद पहले आरएलडी में गए फिर कंग्रेस में शामिल हुए. आज वो गुमनामी के अंधेरे में खो गए हैं. जबकि अरशद ख़ान ने अपने हिस्से वाली पार्टी का समाजवादी पार्टी में विलय कर लिया था. आज वो सपा के राष्ट्रीय महासचिव के तौर पर काम कर रहे हैं.
डॉ. अय्यूब की पीस पार्टी
नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी के गर्त में चले जाने के बाद 2008 में पीस पार्टी वजूद में आई. 2009 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद विधानसभा के दो उपचुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद इस पार्टी ने जलवा बिखेरना शुरू किया. 2012 के विधानसभा चुनाव में पीस पार्टी का ज़बरदस्त जलवा था. यह पहला मौका था कि जब किसी मुस्लिम नेतृत्व वाली पार्टी के पीछे कई पूर्व आईएएस और आईपीएस अधिकारी भी राजनीति में कूद पड़े थे. लग रहा था कि ये पार्टी प्रदेश की सियासत में लंबी पारी खेलेगी. 2012 में इसने 4 विधानसभा सीटें जीतीं. 3 सीटों पर नंबर दो रही और करीब 25 सीटों पर अच्छे वोट भी हासिल किए. लेकिन 2017 का चुनाव आते-आते इसका भी वही हश्र हुआ जो मुस्लिम मजलिस और नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी का हुआ था.
मौलाना आमिर रशादी की राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल
बटला हउस एनकाउंटर का मुद्दा उठा कर मौलाना आमिर रशादी ने 2008 में रष्ट्रीय उलेमा कौंसिल बनाई. 2009 का लोकसभा चुनाव लड़ा. 2012 का विधानसभा चुनाव लड़ा. कुछ सीटों पर अच्छे वोट हासिल करने के अलावा ये पार्टी भी कोई कमाल नहीं दिखा सकी. इसके बाद पार्टी के साथ रस्साकशी चलती रही. आमिर रशादी और डॉ. अय्यूब के बीच अच्छे ताल्लुक़ात रहे हैं. लिहाज़ा कई चुनावो में नाकामियों से सबक़ सीखते हुए इस बार दोनों पार्टियों ने आपस में गठबंधन कर लिया. शायद दोनों ही नेताओं ने अपना सियासी वजूद और अपनी पार्टियों की साख़ बचाने के लिए यह क़दम उठाया है. कुल मिलाकर मुस्लिम नेतृत्व मज़बूत करके सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने का इनका ख़्वाब भी अधूरा ही रहा. इस चुनाव में दोनों पार्टियों के सामने अपना वजूद बचाने की चुनौती है.
अंसारी बंधुओ की क़ौमी एकता दल
दबंग नेता माने जाने वाले मुख़्तार अंसारी और उनके भाई अफज़ाल अंसारी ने 2012 के चुनावों से पहले क़ौमी एकता दल नाम से एक पार्टी बनाई थी. अपने प्रभाव क्षेथ वाले पूर्वांचल के ग़ाज़ीपुर, मऊ, आज़मगढ़ और वाराणसी जैसे ज़िलों में उन्होने अपनी पार्टी का विस्तार भी किया. कभी समाजवादी पार्टी तो कभी बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतने वाले अंसरी बंधुओं का मक़सद भी मुस्लिम वोटों के बूते अपना खुद का राजनीतिक नेतृत्व खड़ा करना था. तब पीस पार्टी, क़ौमी एकता दल और राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल के बीच गठबंधन की बात भी चली थी. लेकिन कोई एक दूसरे का नेतृत्व क़बूल करने को तैयार नहीं था. बहरहाल क़ौमी एकता दल ने मुख्तार अंसारी और उनके भाई सिग्बातुल्ला के रूप में दो सीटें जीती थीं. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले अंसारी बंधुओं ने बहुजन समाज पार्टी में अपनी पार्टी का विलय कर लिया था.
पुराने रास्ते पर ओवैसी
ओवैसी के पास यूपी में 2022 के विधानभा चुनावों के लिए कोई नई योजना, नया एजेंडा या फिर नई रणनीति नहीं हैं. वो पिछले चुनावों के नाकाम प्रयोगों को ही दोहरा रहे हैं. 2012 के चुनाव में पीस पार्टी का कुर्मियों के नेतृत्व में पिछड़ों की बात करने वाले अपना दल के साथ गठबंधन था. ओवैसी ने पहले अति पिछड़ों की बात करने वाले राजभर के साथ गठबंधन किया. इसके टूटने के बाद वो अकेले ही ताल ठोक रहे हैं. अगर वो 4-5 सीटें जीत भी जाते हैं तो इससे न तो विधानसभा में मुसलमानों की नुमाइंदगी बढ़ेगी और ना ही सत्ता में उन्हें हिस्सेदारी मिलेगी. पीस पार्टी 2012 में 4 सीटें जीतने के बाद 2017 में ही अपना बजूद खो बैठी. ओवैसी बिहार में 5 सीटें जीतने के बावजूद कुछ हासिल नहीं कर सके.
एक अमेरिकी चिंतक ने कहा है कि अगर आप कोई काम ठीक उसी तरह करते हो जैसे आप से पहले लोगों ने किया है, तो यक़ीन जानिए आपको वही नतीजे मिलेंगे जो आपसे पहले लोगों को मिले हैं. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी भी उन्हीं तौर-तरीक़ों के साथ उतर रहे हैं जैसा कि उनसे पहले डॉ. फ़रीदी, डॉ. मसूद और डॉ. अयूब के अलावा बाक़ी मुस्लिम नेता उतरे थे. लिहाज़ा ओवैसी का भी वही हश्र होना तय लगता है, जो इन लोगों का हुआ है. ओवैसी यूपी में एक बार फिर मुस्लिम नेतृत्व की नाकामी का ही इतिहास दोहराते दिख रह हैं.


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