सम्पादकीय

दर्द की अनकही दास्तान

Subhi
14 Aug 2022 5:05 AM GMT
दर्द की अनकही दास्तान
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भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ‘वैधव्य’ स्त्री-जीवन की सबसे त्रासद स्थिति है। अपनों का जाना किसी भी इंसान के लिए दुखद होता है। हालांकि समय के साथ जीवन में फिर से लय और गति आ ही जाती है।

संगीता सहाय: भारतीय सामाजिक व्यवस्था में 'वैधव्य' स्त्री-जीवन की सबसे त्रासद स्थिति है। अपनों का जाना किसी भी इंसान के लिए दुखद होता है। हालांकि समय के साथ जीवन में फिर से लय और गति आ ही जाती है। पर एक स्त्री का जीवन उसके पति की मृत्यु के बाद कभी पूर्ववत नहीं होता। हमारे समाज में विधवा के प्रति नजरिए का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक समय ऐसा था जब पति के जाने के बाद उसे जीने का अधिकार भी नहीं था। सती प्रथा और जौहर प्रथा चलन में थी।

बदलते वक्त के साथ हमारे समाज सुधारकों के अथक प्रयासों से ऐसे बर्बर नियमों में बदलाव आया। समाज में जागरूकता आई, सती प्रथा के विरुद्ध कानून बना। आज समाज में समानता और स्वतंत्रता का महत्त्व है। हर स्तर पर स्त्रियां विकास की नई ऊंचाइयां छू रही हैं। पर आज भी सामान्यतया एक स्त्री के विधवा हो जाने का मतलब उसके जीवन से तमाम रंगों का लोप हो जाना है।

युगों से कृष्ण भक्ति के लिए प्रसिद्ध वृंदावन का एक अप्रिय पहलू भी है। इसे 'विधवाओं का शहर' के नाम से भी जाना जाता है। यहां परिवार द्वारा परित्यक्त लाखों विधवाएं निर्वासित जिंदगी जी रही हैं। इन गुमनाम स्त्रियों का कोई नामलेवा नहीं है।

समाज में व्याप्त अंधविश्वास के कारण आज भी देश के कई भागों में विधवाओं को दुर्भाग्य का प्रतीक माना जाता है। पति की मृत्यु के बाद उन्हें उनके सारे अधिकारों से वंचित कर घर से निकाल दिया जाता है। ऐसी हजारों महिलाएं कठिनतम जीवन जीती हुई वृंदावन को ही अपना मुक्तिधाम मान बैठती हैं। दो वक्त की रोटी के लिए ये बर्तन धोने, साफ-सफाई से लेकर सारे काम करती हैं।

यहां तक कि किसी आश्रम में जगह न मिलने पर ये भीख मांग कर जीवन जीने को अभिशप्त हो जाती हैं। इन महिलाओं का यौन-शोषण भी खूब होता है। वृंदावन के अलावा काशी, मथुरा, हरिद्वार सहित देश के अन्य कई हिस्सों में भी परिवार से निष्कासित विधवाएं आश्रमों और गलियों-चौराहों में नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं।

मगर घरों से निकाल दी गई और तन पर एक अदद वसन और दो वक्त की रोटी के लिए विधवा आश्रमों और वृंदावन की गलियों की खाक छानने वाली महिलाओं के अलावा घरों में रह कर सामान्य जीवन का भ्रम पाले विधवाओं पर गौर करें तो पाएंगे कि परंपरा, मिथ्या सम्मान और चालाकी भरी रणनीतियों के कुचक्र में फंसा कर किस प्रकार एक औरत की सर्वस्व इच्छाएं, खुशियां, शारीरिक और मानसिक जरूरतें उसके मृत पति के साथ ही चिता की अग्नि में भस्म कर दी जाती हैं।

सदियों से लगभग हर धर्म और वर्ग में पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा औरत के जीवन को बांधने, उसे अधिकार विहीन और अशक्त बना कर संपत्ति के रूप में उपभोग करने के लिए अनगिनत नियम बनाए गए हैं। उन्हें प्रमाणित करने के लिए धर्म-ग्रंथों में भी उनका वर्णन किया गया।

विभिन्न परंपराओं का जाल बुना गया और औरत लगातार कमजोर और बेचारी बनती गई। हालांकि बदलते वक्त के साथ बहुत सारे नियम और बंधन टूटे, पर आज भी विधवाएं शापित जीवन जीने को अभिशप्त हैं।

विधवा पुनर्विवाह के लिए चलाए गए आंदोलनों, कानून में बदलावों के बावजूद आज भी लगभग पूरा समाज इस संबंध में मौन है।

एक विधवा स्त्री अपनी कोशिशों से मान-सम्मान, संपत्ति आदि तो हासिल कर लेती है, पर उसका दुबारा विवाह लगभग असंभव है। किसी पुरुष के विधुर होते ही, चाहे उसकी उम्र तीस साल हो या साठ साल, उसके लिए नए रिश्ते आने लगते हैं।

परिवार से लेकर समाज तक उसके अकेलेपन और भविष्य को लेकर चिंतित हो जाता है और चंद माह के भीतर उसकी शादी भी हो जाती है। उसके लिए कोई परंपरा और नियम नहीं होता। जबकि उम्रदराज महिलाओं की कौन कहे, बाईस-पच्चीस साल की युवा विधवा को भी पूरी उम्र अकेले काटनी पड़ती है। उनकी मानसिक और शारीरिक जरूरतों पर हमारे समाज में एक अजीब-सा मौन है।

अगर विधवा स्त्री की शादी कहीं तय भी होती है, तो उसके बच्चे स्वीकार्य नहीं होते। स्त्री की यौन शुचिता के रूढ़िवादी मापदंड विधवा विवाह की राह में सबसे बड़ी बाधा हैं। यौनिक पवित्रता-अपवित्रता की दुर्भावना से ग्रस्त पुरुषवादी व्यवस्था विधवा स्त्री को अपवित्र और शादी के अयोग्य मानता है।

स्त्री का वैधव्य उसके संपूर्ण जीवन को बदल देता है। यह अवस्था उसकी गरिमा और पहचान को गौण कर देती है। चूंकि उसका नारीत्व अपने पति यानी सौभाग्य (?) की रक्षा नहीं कर पाया, इसलिए उसे लांक्षित किया जाता है। गरीब और पिछड़े परिवारों की तुलना में संपन्न और संभ्रांत परिवारों की विधवाओं को अधिक क्रूर व्यवहार का सामना करना पड़ता है।

उनके क्रियाकलापों पर पाबंदिया लगा दी जाती हैं। शादी-ब्याह और अन्य मांगलिक कार्यों से दूर रखा जाता है। जिन बच्चों की परवरिश में वे अपना जीवन खपा देती हैं, उनके वैवाहिक कार्यक्रमों से भी उन्हें दूर कर दिया जाता है। लोग शुभ कार्य में विधवा स्त्री की छाया से भी दूर भागते हैं।

यह सब कमोबेश शिक्षित और अशिक्षित, आधुनिक और पंपरागत सभी परिवारों में होता है। लोग इस कृत्य को धार्मिक मान्यताओं की चाशनी में डुबो कर अंजाम देते हैं। जो विधवा स्त्री आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होती, उसे व्यापक वित्तीय और आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जब मृतक कमाई करने वाला एकमात्र सदस्य होता है, तो समस्याएं और विकराल हो जाती हैं।

परिवार में ज्यादातर चल और अचल संपत्ति पर पुरुषों का ही मालिकाना हक होता है। ऐसे में विधवा होने की स्थिति में स्त्री चाह कर भी अपने और अपने बच्चों के जीवन का निर्णय नहीं ले पाती। चाहे-अनचाहे उसे दूसरों की इच्छानुसार चलना पड़ता है।

उनके सही-गलत निर्णयों को मानना और अपने आत्मसम्मान को भुलाकर हां में हां मिलानी पड़ती है। संपत्ति के बंटवारे में अकसर उसकी अनदेखी की जाती है। कई बार पारिवारिक संपत्ति से वंचित कर उन्हें मायके भेज दिया जाता है, जहां ज्यादातर उन्हें अवमाननापूर्ण जीवन जीना पड़ता है। संपत्ति को लेकर विधवा औरतों की हत्या भी कर दी जाती है। उन्हें डायन या पागल ठहरा कर उनसे छुटकारा पाने की साजिशें रची जाती हैं।

यह हमारे समाज की विडंबना है कि लाखों-करोड़ों स्त्रियां वैधव्य के नैराश्यपूर्ण जीवन से जूझ रही हैं। जिंदा रहने के द्वंद में उलझी हर रोज मर-खप रही हैं। समाज के निर्माण में स्त्री और पुरुष दोनों की समान सहभागिता है।

दोनों की बेहतरी ही समाज की बेहतरी है। इसलिए मानवतावादी और समतामूलक विकास के लिए सदियों से आधी आबादी के विरुद्ध परंपरा और नियमों के नाम पर रचे गए षड्यंत्रों पर पूर्ण विराम लगाने की आवश्यकता है। स्त्री की यौन शुचिता के मिथक को तोड़ना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि तमाम पितृसत्तात्मक सोच और परंपरा की घुन लगी दीवार को ढहाया जाए।

वैधव्य जीवन की एक सामान्य अवस्था है। विधवा स्त्री को भी जिंदगी की सारी खुशियों को जीने का उतना ही हक है, जितना अन्य को। इस बात को स्त्री-पुरुष सबको समान रूप से समझना और अपने जीवन में उतारना होगा। जिंदगी मौत से बड़ी और महत्त्वपूर्ण है, उसके हर सफे को जश्न के साथ जीना पुरुष के साथ-साथ स्त्री का भी हक है।


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