सम्पादकीय

जघन्य अपराधों के प्रति अनावश्यक नरमी: न्यायपालिका का पहला काम समाज सुधार या निरपेक्ष रूप से न्याय करना?

Gulabi Jagat
3 May 2022 4:40 AM GMT
जघन्य अपराधों के प्रति अनावश्यक नरमी: न्यायपालिका का पहला काम समाज सुधार या निरपेक्ष रूप से न्याय करना?
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ओपिनियन
विकास सारस्वत। एक अच्छी शासकीय व्यवस्था में न्यायालय की सर्व स्वीकार्यता नितांत आवश्यक है। कानून का राज और शासकीय गरिमा के लिए न्यायालय के आदेशों का सम्मान सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, परंतु जब न्याय व्यवस्था में दोहरे मापदंड दिखने लगें या न्यायिक फैसले राष्ट्रीय चेतना को झकझोर दें तो उन पर टिप्पणी नागरिक समाज का दायित्व बन जाती है। अभी हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने चार वर्षीय बच्ची के दुष्कर्मी और हत्यारे की मृत्युदंड की सजा को घटाकर आजीवन कारावास में बदल दिया। नौ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में हुए इस बर्बर अपराध की विवेचना में पाया गया कि अभियुक्त ने बच्ची से दुष्कर्म करते समय उसका गला दबाकर रखा, जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गई। चार साल की बच्ची के साथ ऐसे जघन्य अपराध की कल्पना मात्र रोंगटे खड़े कर देती है।
सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने माना कि उक्त मामले में अभियोजन पक्ष द्वारा दी गई दलीलें और साक्ष्य पुख्ता हैं और अभियुक्त फिरोज के दोषी होने में कोई गुंजाइश नहीं है, लेकिन निचली अदालत और उच्च न्यायालय के मृत्यदंड के फैसले को उसने रेस्टोरेटिव जस्टिस यानी पुनर्स्‍थापनात्मक न्याय के सिद्धांत का हवाला देकर पलट दिया। इस फैसले में आस्कर वाइल्ड को उद्धृत करते हुए कहा कि 'संत और पापी के बीच एकमात्र अंतर यह है कि प्रत्येक संत का एक अतीत होता है और प्रत्येक पापी का एक भविष्य होता है।
पीठ की इस टिप्पणी को ठीक से समझा जाए तो न्यायालय की नजर में चाहे अपराधी हो या विधिबद्ध नागरिक, अपने मूल चरित्र में हर व्यक्ति नैतिक रूप से एकसमान है। नैतिक सापेक्षवाद बनाम नैतिक निरपेक्षवाद की यह बहस दार्शनिक और साहित्यिक चर्चा के लिए भले ही रोचक हो, परंतु न्यायिक सिद्धांत के रूप में नैतिकता पर न्यायतंत्र का तटस्थ भाव और वह भी सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर गंभीर चिंता का विषय है। इस भाव में जहां सदाचार और विधि सम्मत आचरण के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है, वहीं अपराध के प्रति भय बनाने में ऐसी धारणा प्रभावहीन सिद्ध होती है। न्याय के जिस पुनस्र्थापनात्मक सिद्धांत का जिक्र इस केस में किया गया, वह भी कम दुविधाजनक नहीं है। हर अपराध के लिए दंड और समानुपात सजा का प्रविधान दर्शाता है कि प्रतिशोध न्याय का मुख्य आयाम है। दूसरी तरफ अपराधी को सुधार का मौका देने के हिमायती पुनर्स्‍थापनात्मक सिद्धांत में भी अपराधी और पीडि़त या उसके परिजनों के बीच वार्ता एक अहम बिंदु होता है, परंतु उपरोक्त मामलों में सजा कम करते समय बच्ची के परिजनों की हामी नहीं थी।
हालांकि, किसी समझौते के बाद भी यदि सजा कम करने का निर्णय लिया जाए, तब भी यह सिद्धांत आधुनिक न्याय की कल्पना के साथ खिलवाड़ है, क्योंकि पुनर्स्‍थापनात्मक न्याय के नतीजों में भारी भेद हो सकता है और यह कमजोर पीडि़त पक्ष को आसानी से दबाव में ला सकता है। इस न्यायिक सिद्धांत की मार सबसे अधिक पीडि़त महिलाओं या बालिकाओं पर ही पड़ती है, जैसा कि इस मामले में भी देखने को मिला। सही मायने में ऐसी न्यायिक कल्पना सतर्कता न्याय यानी विजिलांटिज्म का ही परिष्कृत रूप है।
मृत्युदंड का विरोध न्यायपालिका के एक वर्ग का शगल बन गया है, फिर चाहे अपराध कितना भी घिनौना क्यों न हो और न्याय का पुनर्स्‍थापनात्मक सिद्धांत इस बाबत प्रयोग में लाया जाने वाला सुविधाजनक हेतु बन गया है। ऐसा मानने का कारण यह है कि पिछले कुछ समय में अनेक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने निचली अदालतों द्वारा जारी और उच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखी गई फांसी की सजाओं को रोक दिया है। जहां मंदसौर में सात साल की बच्ची के दुष्कर्मी और हत्यारे की फांसी को रोका गया, वहीं देहरादून में 11 वर्षीय बच्ची के दुष्कर्मी और हत्यारे जयप्रकाश की फांसी की सजा पर रोक लगा दी गई है। दिल्ली के कुतुब विहार इलाके में निर्भया कांड से भी अधिक लोमहर्षक अनामिका कांड में तीन दोषियों की सजा पर निर्णय अभी सुरक्षित है। छन्नूलाल वर्मा केस के बाद ऐसे सभी फैसलों में फांसी से पहले दोषियों के मनोरोग मूल्यांकन को भी आवश्यक बना दिया गया है। न्याय की यह नई कल्पना कई चिंताजनक प्रश्न खड़े करती है। क्या ऐसे अपराधियों के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता जघन्यतम अपराधों की गंभीरता की अवहेलना नहीं है? क्या किसी जघन्य अपराध की पुनरावृत्ति बारंबार होने लगे तो वह 'विरले से भी विरला' यानी 'रेयरेस्ट आफ रेयर' सिद्धांत के अंतर्गत नहीं आएगा? क्या चार, आठ, दस वर्ष की बच्चियों से दुष्कर्म और हत्या ऐसा जघन्यतम अपराध नहीं, जिसके पुन: वर्गीकरण की कोई आवश्यकता नहीं है?
सवाल यह भी है कि न्यायपालिका का पहला काम समाज सुधार है या निरपेक्ष रूप से न्याय करना? आखिर न्यायपालिका का मूल उद्देश्य अपराधियों में कानून का भय बनाना है या प्रगतिवादी मूल्यों पर खरा उतरना? क्या न्यायाधीश अपराध की प्रकृति को दरकिनार कर मृत्युदंड के फैसलों को सिर्फ इसलिए रोक रहे, क्योंकि पश्चिमी न्याय व्यवस्थाओं में अधिक मृत्युदंड ठीक नहीं माने जाते? सवाल यह भी है कि एक ही कानून के अंतर्गत निचली अदालतों और सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों में लगातार इतना भेद क्यों रहता है? मृत्युदंड ही नहीं सर्वोच्च न्यायालय के अन्य फैसलों में भी विरोधाभास साफ दिखाई पड़ते हैं। जहां शाहीन बाग धरने और तथाकथित किसान आंदोलन की सुनवाई देश को हुए भारी नुकसान के बावजूद टलती रही, वहीं जहांगीरपुरी में अनधिकृत निर्माण तुरंत रोक दिया गया। इसी तरह किसी सामान्य जन की तुलना में राणा अयूब, आकार पटेल या तीस्ता सीतलवाड़ की सुनवाई आनन-फानन हो जाती है। प्रक्रिया में विरोधाभास और न्यायिक आदेशों में भारी अंतर पर कानूनविद फाली नरीमन का मानना था कि 'अच्छी न्याय व्यवस्था वह है, जिसमें कानून का शासन हो, न कि व्यक्तियों का।' इसका आशय यही था कि न्यायाधीश अपनी निजी मान्यताओं को छोड़कर दंड संहिता का कड़ाई से पालन करें।
कभी व्यक्तित्व आकलन तो कभी रेयरेस्ट आफ रेयर सिद्धांत के तहत और फिर कभी वैकल्पिक सजा या अब मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन के नाम पर भारतीय दंड विधान में दिए गए मृत्युदंड के प्रविधान को जघन्यतम अपराधों में भी लगभग समाप्त कर दिया गया है। ऐसी न्यायिक सक्रियता के बीच एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि ऐसे जघन्य अपराध, जिनमें अबोध बच्चे शिकार बन रहे हों, उन पर दंड विधान विधायिकाएं तय कर सकेंगी या फिर सब कुछ न्यायाधीशों के विवेक पर ही छूटा रहेगा?
(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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