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भारत अपने आर्थिक-विकास के लिए चाहे जो रास्ता चुने, अंत में सारा दारोमदार इसी पर होगा कि हमारे लोग कितने क्षमतावान हैं
रघुराम राजन का कॉलम:
भारत अपने आर्थिक-विकास के लिए चाहे जो रास्ता चुने, अंत में सारा दारोमदार इसी पर होगा कि हमारे लोग कितने क्षमतावान हैं। जहां हमारे सर्वश्रेष्ठ अस्पताल और स्कूल आज दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अस्पतालों और स्कूलों से होड़ लगा रहे हैं, हमारी स्वास्थ्य और शिक्षा प्रणालियां कुल-मिलाकर आम आदमी के लिए अनुपयुक्त सिद्ध होती हैं। महामारी ने बच्चों की शिक्षा पर जो असर डाला है, उसे अगर भुला दें, तब भी 2019 में ही एएसईआर की रिपोर्ट ने बता दिया था कि तीसरी कक्षा के लगभग आधे छात्र ही पहली कक्षा के स्तर पर पढ़ पाते हैं।
भारत के बच्चों में कुपोषण का स्तर 30% से अधिक बना हुआ है, जो घाना और केन्या से भी अधिक है। क्या कारण है कि भारत जैसा सजीव लोकतंत्र शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल नहीं कर पाया है? इसका एक उत्तर तो यह हो सकता है कि किसी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या सरकारी स्कूल- जहां अकसर दवाइयां नहीं होतीं या शिक्षक नदारद रहते हैं- के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
इस तरह के मामलों को प्रभावित करने की शक्ति सामान्यतया राजधानी में होती है, जहां पहुंचने की क्षमता स्थानीयजनों या पंचायत प्रतिनिधियों में नहीं होती। इसलिए स्थानीय चुनाव यदाकदा ही सार्वजनिक सेवाओं में सुधार के मुद्दे पर लड़े जाते हैं, क्योंकि स्थानीय प्रशासन के पास यथास्थिति में बदलाव लाने की न क्षमता होती है, न फंड, न स्टाफ। साथ ही, स्कूल की गुणवत्ता किसी राजनेता के लिए इतना छोटा मुद्दा माना जाता है कि वह उस पर अपना चुनाव अभियान नहीं चलाता।
इसके बजाय लोकलुभावन वादों पर चुनाव लड़ता है कि मैं कर्ज माफ करवा दूंगा या मुफ्त राशन दिलवाऊंगा। वह युवाओं को नौकरियां पाने के लिए बेहतर सुविधाएं देने का वादा करने के बजाय किसी जाति, धर्म या उपसमूह को नौकरियों में आरक्षण दिलवाने पर ज्यादा ध्यान देता है। ऐसा नहीं है कि हमें जिन सुधारों की जरूरत है, उनके लिए हमारे पास विस्तृत रिपोर्टें नहीं हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सेवाओं की आपूर्ति की स्थिति सुधर रही है, किंतु धीमी गति से। विकास की दिशा ऊपर से नीचे नहीं नीचे से ऊपर होनी चाहिए।
हमें प्रशासन के केंद्रीकरण के बजाय विकेंद्रीकरण की जरूरत है। हमें हितग्राहियों का सशक्तीकरण करना होगा। हमें अपने लोकतंत्र की शक्ति को साधना है, केवल उसके लोकलुभावन आयामों पर ही रुक नहीं जाना है। अगर स्थानीय प्रशासन के हाथ में कुछ शक्तियों का हस्तांतरण किया जाए तो कुछ समस्याओं का समाधान हो सकेगा। बेहतर होगा अगर हम ऐसे स्कूल बोर्ड या हेल्थ बोर्ड का गठन कर सकें, जो स्थानीय प्रशासन के निर्णयों के लिए प्राथमिक इनपुट्स दे सकें।
दिल्ली की सरकार लगभग किसी महापालिका की तरह संचालित होती है, उसने स्कूलों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की दशा में जो सुधार किया है, वह दूसरे स्थानीय प्रशासनों के लिए एक मॉडल हो सकता है। हो सकता है गरीब खराब सेवाओं का प्रतिकार नहीं कर सके, खासतौर पर तब जब सेवा-प्रदाता की सामाजिक स्थिति उससे बेहतर हो। लेकिन जब गरीबों को अपनी नागरिक शक्तियों का पता चलेगा तो उनके डर खत्म हो जाएंगे।
न्यायपूर्ण अधिकारों को लागू करते हुए उत्तम सेवाओं के लिए नागरिकों की मांग को मजबूत बनाया जा सकता है। जैसे अच्छी शिक्षा का कानूनी अधिकार। सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता इसलिए भी औसत रहती है, क्योंकि मध्यवर्ग उनका उपयोग नहीं करता। वह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए तभी भेजेगा, जब उनकी गुणवत्ता श्रेष्ठ होगी।
निजी सेवा प्रदाता लोगों को अधिक विकल्प प्रदान कर सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से निजी क्षेत्र के प्रति हम इतने संशयग्रस्त रहते आए हैं कि इससे विकास बाधित होता है। उन्हें प्रभावी रूप से नियमित करने के बजाय राज्यसत्ता या तो उन्हें आवश्यक बुराई की तरह देखती है या लोभी प्रतिस्पर्धी की तरह। नतीजा यह रहता है कि गरीबों के सामने बेहतर निजी विकल्प नहीं आ पाता।
पारदर्शिता जरूरी
पारदर्शिता हो तो चयन के बेहतर स्रोत मिलते हैं। अभिभावकों को स्थानीय स्कूलों के टेस्ट परफॉर्मेंस और शिक्षकों की योग्यता के बारे में पता होना चाहिए। साथ ही राज्य की नियामक एजेंसी को उसकी सेवा प्रदाता शाखा से पृथक रखा जाना चाहिए। ऐसा ही स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए भी किया जा सकता है।
(सह लेखक- रोहित लाम्बा, पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिस्ट)
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