- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- अनजाने आंदोलनों, लोगों...
x
आजादी के 75 साल का अवसर अब दूर नहीं है
संजय द्विवेदी का ब्लॉग:
आजादी के 75 साल का अवसर अब दूर नहीं है. हम सब इसके स्वागत में खड़े हैं. ये वर्ष जितना ऐतिहासिक और गौरवशाली है, देश इसे उतनी ही भव्यता और उत्साह के साथ मनाने की तैयारी कर रहा है.
भारत के पीएम नरेंद्र मोदी ने दांडी यात्ना की वर्षगांठ पर 12 मार्च को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की कर्मस्थली गुजरात से आजादी के अमृत महोत्सव की शुरुआत की थी. ये हम सभी का सौभाग्य है कि हम आजाद भारत के इस ऐतिहासिक कालखंड के साक्षी बन रहे हैं. हमारे यहां मान्यता है कि जब कभी ऐसा अवसर आता है, तब सारे तीर्थो का एक साथ संगम हो जाता है.
'आजादी का अमृत महोत्सव' एक राष्ट्र के रूप में भारत के लिए भी ऐसा ही पवित्न अवसर है. ये वो अवसर है जब आजादी के असंख्य संघर्ष, बलिदानों और तपस्याओं की ऊर्जा पूरे भारत में एक साथ पुनर्जागृत हो रही है. ये अवसर है देश के स्वाधीनता संग्राम में खुद को आहूत करने वाली महान विभूतियों के चरणों में आदरपूर्वक नमन का.
ये अवसर है उन वीर जवानों को प्रणाम करने का, जिन्होंने आजादी के बाद भी राष्ट्र रक्षा की परंपरा को जीवित रखा और देश की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान दिए. ये अवसर है उन पुण्य आत्माओं का वंदन करने का, जिन्होंने आजाद भारत के पुनर्निर्माण में प्रगति की एक-एक ईंट रखी और 75 वर्ष में देश को यहां तक लाए.
हमारे स्वाधीनता संग्राम में ऐसे कितने आंदोलन हैं, जो देश के सामने उस रूप में नहीं आए जैसे आने चाहिए थे. ये एक-एक संघर्ष अपने आप में भारत की असत्य के खिलाफ सत्य की सशक्त घोषणाएं हैं, भारत के स्वाधीन स्वभाव के सबूत हैं और इस बात का भी साक्षात प्रमाण हैं कि अन्याय, शोषण और हिंसा के खिलाफ भारत की जो चेतना राम के युग में थी, महाभारत के कुरुक्षेत्न में थी, हल्दीघाटी की रणभूमि में थी, शिवाजी के उद्घोष में थी, वही शाश्वत चेतना, वही अदम्य शौर्य भारत के हर क्षेत्न, हर वर्ग और हर समाज ने आजादी की लड़ाई में अपने भीतर प्रज्ज्वलित करके रखी थी.
'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' ये मंत्न आज भी हमें प्रेरणा देता है. कोल आंदोलन हो या 'हो संघर्ष', खासी आंदोलन हो या संथाल क्रांति, कछोहा कछार नागा संघर्ष हो या कूका आंदोलन, भील आंदोलन हो या मुंडा क्रांति, संन्यासी आंदोलन हो या रमोसी संघर्ष, कित्तूर आंदोलन, त्नावणकोर आंदोलन, बारडोली सत्याग्रह, चंपारण सत्याग्रह, संभलपुर संघर्ष, चुआर संघर्ष, बुंदेल संघर्ष, ऐसे कितने ही आंदोलनों ने देश के हर भूभाग को, हर कालखंड में आजादी की ज्योति से प्रज्ज्वलित रखा.
इस दौरान हमारी सिख गुरु परंपरा ने देश की संस्कृति, अपने रीति-रिवाज की रक्षा के लिए, हमें नई ऊर्जा दी, प्रेरणा दी, त्याग और बलिदान का रास्ता दिखाया. आजादी के आंदोलन की इस ज्योति को निरंतर जागृत करने का काम, पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण हर दिशा में, हर क्षेत्न में, हमारे संतों ने, महंतों ने, आचार्यो ने निरंतर किया. एक प्रकार से भक्ति आंदोलन ने राष्ट्रव्यापी स्वाधीनता आंदोलन की पीठिका तैयार की.
पूर्व में चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस और श्रीमंत शंकर देव जैसे संतों के विचारों ने समाज को दिशा दी. पश्चिम में मीराबाई, एकनाथ, तुकाराम, रामदास, नरसी मेहता हुए, उत्तर में संत रामानंद, कबीरदास, गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, गुरु नानकदेव, संत रैदास, दक्षिण में माधवाचार्य, निम्बार्काचार्य, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य हुए, भक्ति काल के इसी खंड में मलिक मोहम्मद जायसी, रसखान, सूरदास, केशवदास, विद्यापति जैसे महानुभावों ने अपनी रचनाओं से समाज को अपनी कमियां सुधारने के लिए प्रेरित किया. हमें इन महान आत्माओं का जीवन इतिहास देश के सामने पहुंचाना है.
इन लोगों की जीवन गाथाएं हमारी आज की पीढ़ी को जीवन का पाठ सिखाएंगी. एकजुटता क्या होती है, लक्ष्य को पाने की जिद क्या होती है, इसका सही मतलब बताएंगी. याद करिए, तमिलनाडु के 32 वर्षीय नौजवान कोडि काथकुमरन को. अंग्रेजों ने उस नौजवान के सिर में गोली मार दी, लेकिन उन्होंने मरते हुए भी देश के झंडे को जमीन पर नहीं गिरने दिया.
तमिलनाडु में उनके नाम से ही कोडि काथ शब्द जुड़ गया, जिसका अर्थ है झंडे को बचाने वाला. तमिलनाडु की ही वेलू नाचियार वो पहली महारानी थीं, जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. ओडिशा में चक्रा बिसोई ने लड़ाई छेड़ी, तो लक्ष्मण नायक ने गांधीवादी तरीकों से चेतना फैलाई.
आंध्र प्रदेश में अल्लूरी सीताराम राजू ने रम्पा आंदोलन का बिगुल फूंका. पासल्था खुन्गचेरा ने मिजोरम की पहाड़ियों में अंग्रेजों से लोहा लिया था. गोमधर कोंवर, लिसत बोरफुकन और सीरत सिंग जैसे असम और पूर्वोत्तर के अनेक स्वाधीनता सेनानियों ने देश की आजादी में योगदान दिया है. देश इनके बलिदान को हमेशा याद रखेगा.
Next Story