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शनिवार को 9/11 आतंकी हमले की 20वीं बरसी पर विश्व शोक-संतप्त था। आंखें नम थीं।
दिव्याहिमाचल.
शनिवार को 9/11 आतंकी हमले की 20वीं बरसी पर विश्व शोक-संतप्त था। आंखें नम थीं। यह अभी तक का सबसे विध्वंसक आतंकी हमला है, जिसमें करीब 3000 मासूम लोग मारे गए और 25,000 से ज्यादा ज़ख्मी हुए। कितना नुकसान हुआ, उसका आज तक कोई सटीक आकलन नहीं है। हत्यारों का जिस ज़मीन से सीधा नाता था और अलकायदा सरगना लादेन शुरू में वहीं छिपा था, उस अफगानिस्तान में आज 'आतंकी कैबिनेटÓ है। यह दुनिया का सबसे भयावह यथार्थ है। अफगान के अंतरिम प्रधानमंत्री समेत कुल 33 मंत्रियों में से 16-18 मंत्री 'घोषित या संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित आतंकीÓ हैं। कइयों पर करोड़ों के इनाम भी घोषित हैं। सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव पारित कर आतंकियों की एक काली सूची भी तैयार की थी। विडंबना है कि संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने ही देशों से अपील की है कि अफगानिस्तान की मदद करें। उसकी फंडिंग न रोकी जाए। उसकी सामाजिक व्यवस्था बिखर चुकी है। अर्थव्यवस्था की बुरी हालत है। दूसरी ओर काबुल में ही तालिबानी आतंकियों ने यूएन कार्यालय में तोडफ़ोड़, लूटपाट और कर्मियों के साथ मारपीट की है। महिला कर्मियों को काम पर आने से रोका जा रहा है। अमरीकी दूतावास पर तालिबान का झंडा लगा दिया गया है।
नॉर्वे के दूतावास में विध्वंस की कोशिशें की गईं। अजीब विरोधाभास है कि एक देश पर प्रतिबंधित आतंकी काबिज हैं और यूएन उस देश की मदद का आह्वान कर रहा है? क्या यूएन असहाय हो गया है? क्या आज यूएन की प्रासंगिकता और उसके अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगे हैं? क्या एक लंबी खामोशी, निष्क्रियता और कभी-कभार उपदेशात्मक बयान के लिए ही यूएन का बजट 3.2 अरब डॉलर पारित किया गया था? उसके सहयोगी संगठनों के बजट तो अलग-अलग हैं। 'सफेद हाथी पालने का दुनिया और अफगानों को बुनियादी लाभ क्या है? शायद 1945 के द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूएन के गठन का औचित्य आज समाप्त हो चुका है? इस पहलू पर अब विश्व को विमर्श करना चाहिए, क्योंकि सभी देश आर्थिक रूप से योगदान देते हैं। यकीनन अफगानिस्तान के हालात बेहद गंभीर हैं। मानवीय स्तर पर उसकी मदद की जानी चाहिए। अफगानिस्तान की करीब 72 फीसदी आबादी गरीबी-रेखा के नीचे है। खाद्यान्न संकट 'भुखमरी तक फैल गया है। इधर एक सर्वे आया है कि अफगानिस्तान में औसतन 3 में से एक व्यक्ति भूखा है और उसकी आजीविका छिन चुकी है। निश्चित तौर पर 1.8 करोड़ अफगानियों के सामने खाने का घोर भीषण संकट है, लेकिन तालिबान आतंकी बिरयानी चाट रहे हैं। ऐसे में मदद किसकी की जाए? क्या वैश्विक मदद औसत अफगान तक पहुंचेगी? देश के जीडीपी का करीब 41 फीसदी हिस्सा विदेशी फंडिंग के भरोसे ही रहा है। अब अफगानिस्तान की ही करीब 10 अरब डॉलर जमा-पूंजी को अमरीका ने सीज कर रखा है।
आईएमएफ और विश्व बैंक ने भी 'मान्यता प्राप्त सरकार को ही आर्थिक मदद देने की बात कही है। जर्मनी, यूरोपीय संघ और नाटो देशों ने भी आर्थिक मदद रोक रखी है। हालांकि चीन ने 3.1 करोड़ डॉलर की मदद देने की घोषणा की है। संयुक्त अरब अमीरात का एक विमान खाद्यान्न, दवाएं और अन्य जरूरत की चीजें लेकर काबुल पहुंचा था। सवाल यह है कि यदि मदद दी जाए, तो क्या काबुल की 'आतंकी कैबिनेट को ही सौंपनी पड़ेगी? अफगानिस्तान की अवाम के प्रति उसकी जवाबदेही और चिंता कितनी है, यह दुनिया के सामने स्पष्ट होता जा रहा है। यूएन को इन हालात का संज्ञान लेकर कोई समाधान देना चाहिए। यह सब कुछ तय करने में यूएन इतना नकारा क्यों लग रहा है? आतंकवाद अभी तक 9 लाख से ज्यादा जि़ंदगियां लील चुका है। उसके बावजूद आज का यथार्थ यह है कि अफगानिस्तान में आतंकी खुलेआम घूम रहे हैं। तालिबान हुकूमत के बाद करीब 2300 कैदी विभिन्न जेलों से रिहा किए गए। क्या यूएन लोकतंत्र की सत्ता पर आतंकियों की हुकूमत को, परोक्ष रूप से, मान्यता देने के मूड में है? आतंकवाद पर यूएन आम सभा की बैठकों समेत कई मंचों पर असंख्य प्रस्ताव पेश किए गए, पारित भी किए गए, लेकिन आश्चर्य है कि आज तक आतंकवाद की सर्वसम्मत, अधिकृत परिभाषा तय नहीं की गई। क्या यूएन ऐसे देश को मूकदर्शक या अपील करके ही देखता रहेगा? तो फिर यूएन का औचित्य ही क्या है?
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