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यह 1960 के दशक की शुरुआत की बात है। जब भी हम गांव जाते, अपने पितामह को विशाल घर के दरवाजे पर बैठा पाते
शशि शेखर
यह 1960 के दशक की शुरुआत की बात है। जब भी हम गांव जाते, अपने पितामह को विशाल घर के दरवाजे पर बैठा पाते। वह हमेशा लोगों से घिरे रहते और अक्सर पुलकित भाव से कहते सुने जाते कि तुम लोग भाग्यशाली हो, आजाद भारत में पैदा हुए हो।
वह स्वर्गीय सिद्धगोपाल चतुर्वेदी थे, मेरे पिता के चाचा और मैनपुरी षड्यंत्र केस के सजायाफ्ता अभियुक्त। उन्होंने लंबा समय ब्रिटिश भारत की जेलों में काटा। हम बच्चों को उनसे राम प्रसाद 'बिस्मिल', चंद्रशेखर आजाद आदि की कहानियां सुनने को मिलती थीं। बाद में उन्हीं के जरिये अमर शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की बहन शास्त्री देवी कई बार हमारे घर अपने पुत्र के साथ आईं। उनकी ससुराल मैनपुरी के कोसमा गांव में थी और बिस्मिल जब उन्हें ससुराल छोड़ने जाते, तो उनके पैरों में पिस्तौलें बांध दिया करते। उन्हें लगता था कि पकडे़ जाने पर पुलिस कम से कम बहन की इस तरह से तलाशी तो नहीं लेगी कि पिस्तौलें पकड़ी जाएं। ऐसा कई बार हुआ था। कौन कहता है कि आजादी कुछ दीवानों का ख्वाब था?
यहां बताने में हर्ज नहीं है कि शास्त्री देवी बेहद मुफलिसी में जी रही थीं और उसी में मरीं। उनके पुत्र चाय की दुकान चलाया करते थे। आजादी के बाद हमारा नेतृत्व उन लोगों को इज्जत बख्शने में नाकाम रहा, जो अपनी सेवाओं का खुद ढिंढोरा पीटने से हिचक गए। उन्हें न आजादी की 25वीं वर्षगांठ पर ताम्र-पत्र से नवाजा गया और न ही उनके किसी वंशज को सरकारी नौकरी में आरक्षण मिला। मशहूर लेखक बनारसी दास चतुर्वेदी की कोशिशों से उन्हें 'कभी' 40 रुपये महीने की पेंशन मिलनी शुरू हुई थी, जो बकौल शास्त्री देवी उनका 'अकेला सहारा' थी।
ऐसे लाखों लोगों के अनथक प्रयासों से भारत को आजादी तो मिली, पर वह कैसी थी? मुल्क दो टुकड़ों में बंट गया, लाखों मारे गए और उससे कई गुना अधिक बेघर हुए। गांधी, नेहरू और जिन्ना को शुरू में लगता था कि हम दोनों देश सगे भाइयों की तरह रहेंगे, पर यह सपना 1947 के कबायली हमले के समय ही बिखर गया। अगले साल जिन्ना की मौत ने जैसे इस आसमानी ख्वाब के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी। विभाजन का वह घाव आज तक रिस रहा है और बाद में 1971 में बने मुल्क बांग्लादेश को मिला दें, तो तीन देश इसका दंश भोगने को अभिशप्त हैं।
अफसोस करने के ऐसे तमाम कारण हैं, मगर आजादी के 'अमृत महोत्सव' के मौके पर ऐसा भी बहुत कुछ है, जो हमें गर्व से भर सकता है। आइए, कुछ आंकड़ों से आपको रूबरू कराता हूं।
आजादी के वक्त हमारी कुल आबादी 34 करोड़ थी, जो बढ़कर अब 138 करोड़ तक जा पहुंची है। जल्दी ही हम संसार का सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश बनने जा रहे हैं। अक्सर माना जाता है कि अधिक आबादी अभिशाप होती है, पर भारत ने अपने जन-बल को बेहतरीन कार्य-बल में तब्दील करने का कमाल किया है। यही वजह है कि हमारी जीडीपी 75 वर्षों में 2.7 लाख करोड़ से बढ़ 147.36 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गई है। विश्व की कुल सकल आय में भारत की हिस्सेदारी तब तीन फीसदी होती थी, जो अब 7.2 प्रतिशत हो गई है। पश्चिम कभी हमें संपेरों, आदिवासियों और अशिक्षितों का देश मानता था। आज भारत की साक्षरता दर 78 प्रतिशत के आसपास है और संसार में सर्वाधिक स्नातक भी हिन्दुस्तान के ही पास हैं। कभी इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने 'इंडियन इंडिपेंडेंस बिल' की बहस में कहा था- 'अगर भारत को आजादी दी जाती है, तो सत्ता धूर्तों और लुटेरों के हाथों में चली जाएगी। भारतीय नेता अक्षम हैं। उनके पास मीठी जुबान, मगर छोटा दिल है। वे सत्ता के लिए आपस में लड़ेंगे और भारत राजनीतिक झगड़ों में खो जाएगा।'
स्वतंत्रता हासिल करने के साढे़ सात दशकों में भारत और भारतीयों का काम पूर्व हुक्मरानों को आईना दिखाने के लिए काफी है। एक भारतवंशी ऋषि सुनक इंग्लैंड के प्रधानमंत्री पद के प्रबलतम दावेदार हैं। विश्व इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि वंचितों, शोषितों और शासितों के बीच से आया हुआ कोई शख्स शासकों के देश में अपनी बादशाहत की इतनी मजबूत दावेदारी करे। आज नहीं तो कल, इंग्लैंड और अमेरिका सहित तमाम देशों के प्रमुखतम पदों पर भारतवंशियों का आधिपत्य होगा। इतिहासकार गलत नहीं कहते कि यह भारतीयों का ही बूता था कि उन्होंने लगभग सौ साल लंबी लड़ाई लड़ी, जीती और खुद को इस मुकाम पर पहुंचाया कि अब दुनिया हिन्दुस्तान को सबसे तेजी से उभरती आर्थिक ताकत के तौर पर देखती है। यह सिर्फ इसलिए संभव हो सका कि हमने एक समावेशी समाज की स्थापना की।
इसके उलट पाकिस्तान में एक हिंदू महिला के डिप्टी एसपी नियुक्त होने पर 'इंटरनेशनल मीडिया' में सुर्खियां बन जाती हैं, जबकि हिन्दुस्तान में 25 साल पहले ही इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री की कुरसी पर जा बैठे थे। वह बतौर शरणार्थी दिल्ली आए थे और पहली रात स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर गुजारी थी। बाद में 10 साल तक देश का प्रधानमंत्री रहने का गौरव अर्जित करने वाले मनमोहन सिंह और भारतीय जनता पार्टी के सबसे कद्दावर नेता रहे लालकृष्ण आडवाणी इसी जमात में शामिल हैं। आज भारत में एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर आसीन हैं। कभी चाय बेचने का काम करने वाले नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। इसके अलावा तीन बार मुस्लिम और दो बार दलित कुल में जन्मे लोग राष्ट्रपति की कुरसी तक पहुंचने का गौरव हासिल कर चुके हैं। यह लोकतंत्र के प्रति आस्था नहीं, तो और क्या है कि दलित, आदिवासी और पिछड़े तबकों के लोग समाज-शासन की अगली जमात में बैठ रहे हैं।
हर गौरवगाथा की तरह हिन्दुस्तान की कहानी के कुछ स्याह पहलू भी हैं। इधर के सालों में सामाजिक दूरी घटने के बजाय बढ़ी है। आर्थिक विषमता की खाई भी चौड़ी हुई है। देश की कुल आय का 57 प्रतिशत सिर्फ 10 फीसदी लोगों के हाथों में है। किसी को गरीब मानने के सरकारी आंकडे़ भी गरीबों का मखौल उड़ाते हैं। नियमानुसार जो व्यक्ति 33 रुपये प्रतिदिन खर्च करता है, उसे निर्धन नहीं माना जाता। कोई आश्चर्य नहीं कि लोग कहते हैं, गोरे साहब चले गए, पर उनकी जगह काले साहिबान ने ले ली।
पता नहीं क्यों, कवि प्रदीप याद आ रहे हैं- हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के। यह ठीक है कि देश हमने टूटने नहीं दिया, पर यह भी कटु सत्य है कि हम आजादी के लड़ाकों के स्वप्न को पूरा करने में अभी तक कामयाब नहीं हुए हैं।
आप सबको आजादी का 'अमृत महोत्सव' मुबारक हो! मुझे भरोसा है कि सौवें साल तक पहुंचने से पहले हम इन चुनौतियों से निपटने में पूर्णत: सफल हो चुके होंगे।
Twitter Handle: @shekharkahin
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Rani Sahu
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