सम्पादकीय

अमृत काल की अनोखी चुनौती

Rani Sahu
20 Aug 2022 5:22 PM GMT
अमृत काल की अनोखी चुनौती
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शशि शेखर
'ऐसा नहीं कि हमने तरक्की नहीं की, अलबत्ता, यह हकीकत अपनी जगह मौजूद है कि जिस तवज्जो और रफ्तार से हमें अपनी मंजिल को हासिल करना था, इसमें हमसे इज्तिमाई (सामूहिक) कोताहियां हुई हैं।' -पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ गुजरी 14 अगस्त को जब अपने वतन की 75वीं वर्षगांठ पर तकरीर कर रहे थे, तो उनके लहजे से गहरी मायूसी टपक रही थी। जो लोग पाकिस्तान के हालात जानते-पहचानते हैं, उन्हें कोई अचरज न था। हमारा सहोदर अपनी खोदी खाई की तली से जा चिपका है।
हिन्दुस्तान में हालात और भावनाएं इसके ठीक विपरीत हैं। गुजरी 15 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी के लंबे भाषण के इस अंश पर गौर फरमाइए- 'जब भारत अपनी स्वतंत्रता की 100वीं वर्षगांठ मनाएगा, तब युवा, जो आज अपनी 20-25 वर्ष की आयु में हैं, वे 45 से 50 की उम्र में होंगे। आपके जीवन के आने वाले 25 वर्ष देश के संकल्पों को पूरा करने का समय है। मेरे साथ शपथ लो, इस तिरंगे की शपथ लो कि 100वीं वर्षगांठ पर हमारा देश एक विकसित राष्ट्र होगा।'
जानने वाले जानते हैं। विभाजन के साथ पाकिस्तान को बेहतर जमीन और हालात मिले थे, फिर ऐसा क्यों हुआ? दरअसल, पाकिस्तान शुरू से एक संशयशील मुल्क रहा है। लोग अक्सर 'कायदे-आजम' मोहम्मद अली जिन्ना को 'सेक्युलर' बताते हुए उनके 11 अगस्त, 1947 के इस भाषण को उद्धृत करते हैं, 'आप सब मेरी इस बात से यकीनन सहमत होंगे कि हुकूमत का पहला फर्ज कानून का राज कायम करना है, ताकि राज्य अपने अवाम की जान, दौलत और धार्मिक आस्था की पूरी तरह हिफाजत कर सके।' हालांकि, जिन्ना साहब ने उससे पहले और बाद में कई बार यह भी कहा था कि अगर पाकिस्तान में शरिया कानून लागू हो जाए, तब भी क्या बुराई है? 1944 से 47 के बीच में उनसे जब भी पूछा जाता कि पाकिस्तान के भावी निजाम पर आपका तसव्वुर क्या है, तो वह डांटने-डपटने पर उतर आते। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों से बातचीत के दौरान भी उन्होंने कहा था, एक बार पाकिस्तान बन जाने दीजिए, तब देख लेंगे।
उनके मुकाबले भारत के हुक्मरानों की नजर ज्यादा साफ थी। अविभाजित हिन्दुस्तान में पाकिस्तान की मांग को जोर-शोर से बढ़ावा देने वाले अधिकांशत: जमींदार थे। यही वजह है कि वहां भूपतियों का तिलिस्म आज तक खत्म नहीं हुआ, जबकि भारत में पांच साल के अंदर न केवल जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया गया, बल्कि 1971 में राजे-रजवाड़ों के 'प्रिवी पर्स' भी खत्म कर दिए गए। दलितों, वंचितों को आगे लाने के लिए यहां सरकारी नौकरियों और विधायी संस्थाओं में पाकिस्तान के मुकाबले कारगर और पारदर्शी आरक्षण व्यवस्था लागू की गई। इससे शताब्दियों से पिछड़ते चले आ रहे लोगों को नई राहें मिलीं। पाकिस्तान में ऐसा नहीं हो सका, जबकि दोनों मुल्कों में पहले-पहल कानून मंत्री की कुरसी पर बैठने वाले दलित थे। बात यहीं खत्म नहीं होती। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर को भारत में उनके योगदान के लिए 'अवतारों' जैसा दर्जा हासिल हुआ, जबकि वहां के पहले विधि मंत्री जोगेंद्रनाथ मंडल को अपमानित होकर भारत लौटने पर मजबूर होना पड़ा। वह कलकत्ता (अब कोलकाता) में एक गुमनाम मौत मरे।
यही वजह है कि तमाम आरोपों के बावजूद भारत दलितों और अल्पसंख्यकों के हक-हुकूक के मामले में पाकिस्तान से कहीं आगे है। हमने तमाम झटकों के बावजूद धार्मिक स्वतंत्रता को कायम रखा और आज भी, जब अल्पसंख्यकों या वंचित समूहों पर कोई चोट होती है, तो सड़क से लेकर संसद तक गूंज जाया करते हैं। इस वैविध्य का एक कारण शायद यह भी है कि पाकिस्तान का लोकतंत्र सेना के रहमो-करम पर चलता है, हिन्दुस्तान में संसद और चुनी हुई सरकार ही नियामक है।
पाकिस्तान ने एक और गलती की कि अपने उद्भव के साथ ही वह अमेरिका की गोद में जा बैठा। महाशक्तियां किसी की दोस्त नहीं होतीं, वे सिर्फ इस्तेमाल करती हैं। यही वजह है कि अमेरिकी हथियारों पर मदमाते पाकिस्तानी हुक्मरानों ने कभी भारत से 'हजार साल लड़ने की' कसम खाई, तो कभी हमें 'हजार जख्म देने' का नापाक इरादा पाला। आतंकवादियों को पालते-पालते पाकिस्तान खुद कब सेना, आईएसआई और दहशतगर्दों के गठबंधन का 'बंधक' बन गया, उसे मालूम ही नहीं पड़ा। 1980 के दशक तक जिस पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था भारत से मजबूत थी, आज वह हिन्दुस्तानी अर्थव्यवस्था से नौ गुना छोटा है। यही वह मुकाम है, जो चिंता पैदा करता है, क्योंकि पतनशील पाकिस्तान के परमाणु जखीरे कभी भी अराजक मनसूबों वाले हुक्मरानों के हाथ चढ़ सकते हैं। पड़ोसी अफगानिस्तान में जिस तरह तालिबान ने दोबारा सत्ता हथियाई, उससे यह आशंका और धारदार हो जाती है।
सिर्फ पाकिस्तान ही क्यों, पड़ोस के नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका के हालात भी डगमगा रहे हैं। श्रीलंका में पिछले महीने जिस अराजकता का नंगा नाच हुआ, उसने इस नामुराद भय को और बल दिया कि हमारा पड़ोस हर तरफ से सुलग रहा है। किसी भी मुल्क की उदार संस्थाएं जब कमजोर होने लगती हैं, तो अनुदार तत्व खुद-ब-खुद हावी होने लगते हैं। यही वजह है कि इस्लामाबाद, ढाका, नेपिडो, माले और कोलंबो में भारत विरोधी भाव पनप रहे हैं। वहां के हुक्मरां एवं एक बड़ा तबका नई दिल्ली और बीजिंग के बीच पनप रही खटास के मद्देनजर दोनों देशों से फायदा उठाने की फिराक में रहने लगा है।
एक उदाहरण। चीन चाहता था कि उसका जासूसी युद्धपोत कुछ दिनों के लिए श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह पर लंगर डाले। भारत के विरोध के बाद श्रीलंका ने शुरुआत में तो कहा कि वह चीन को इसकी इजाजत नहीं देगा, पर 24 घंटे में ही उसके सुर बदल गए। गुजरी 16 अगस्त को युआन वांग-5 जब वहां पहुंचा, तब श्रीलंकाई प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे की अगुवाई में उसके चालक दल को 'रेड-कारपेट वेलकम' दिया गया। इस अवसर पर विक्रमसिंघे ने जहां खुशी जताई वहीं कोलंबो में चीन के राजदूत क्वी जेनहोंग भारत पर तंज कसने से नहीं चूके। वह अंग्रेजी बोलने वाली महिला दुभाषिया के जरिये मौजूद लोगों को संबोधित कर रहे थे। यकीनन, यह भारत से विश्वासघात है, क्योंकि यही विक्रमसिंघे कुछ दिनों पहले तक हिन्दुस्तानी इमदाद के लिए सार्वजनिक तौर पर शुक्रिया अदा करते नहीं थक रहे थे।
इस मामले में नई दिल्ली की असहजता वाजिब है। इस युद्धपोत के रडार और अत्याधुनिक उपकरण 750 किलोमीटर तक प्रक्षेपास्त्रों और अन्य सुरक्षा संस्थानों की गतिविधियों पर नजर रख सकते हैं। नतीजतन, सारे दक्षिण भारतीय बंदरगाह, परमाणु संयंत्र और ओडिशा स्थित चांदीपुर मिसाइल रेंज तक इसकी जासूसी की जद में आ गए हैं। अभी तक घोषित कार्यक्रम के अनुसार, 22 अगस्त तक युआन वांग-5 हंबनटोटा पर डेरा डाले रहेगा। इस दौरान तमाम अपशकुनी आशंकाएं आकार लेती रहेंगी।
यह पोत वहां खड़ा रहे या 22 अगस्त को चला जाए, पर यह साफ है कि दोनों ही स्थितियों में हमारी सुरक्षा-व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है। इसका एक सबक यह भी है कि कमजोर पड़ोसी कभी भी खतरनाक साबित हो सकते हैं। अपनी आजादी के अमृत काल में महाशक्ति बनने का संकल्प लिए हिन्दुस्तान के समक्ष बदलते वैश्विक परिदृश्य में यह अनोखी चुनौती है।
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