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आदित्य चोपड़ा: उत्तराखंड के पुनः मुख्यमन्त्री बने श्री पुष्कर सिंह धामी ने जिस तरह राज्य में एक समान नागरिक आचार संहिता को लागू करने के अपनी पार्टी भाजपा के चुनावी फैसले को लागू करने का इरादा जाहिर किया है उसका देश के सभी राज्यों में स्वागत किया जाना चाहिए और इसे मजहब या साम्प्रदायिकता की राजनीति से ऊपर उठ कर पूरे देश की सामाजिक समरसता के नजरिये से देखा जाना चाहिए। संवैधानिक दृष्टि से भी यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है क्योंकि भारत का संविधान धर्म या जात-बिरादरी अथवा स्त्री-पुरुष या क्षेत्रीय पहचान की परवाह किये बिना प्रत्येक नागरिक को एक समान अधिकार देता है। मगर आजादी के बाद जिस तरह मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों को उनकी मजहब की पहचान के आधार पर जिस तरह उनके धार्मिक कानूनों को मान्यता देने का प्रावधान किया गया वह देश की आन्तरिक एकता व समरसता में व्यवधान पैदा करने वाला था हालांकि संविधान के निदेशक सिद्धान्तों में ही स्पष्ट कर दिया था कि सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता लागू करने पर विचार किया जाना चाहिए। इसके बावजूद संविधान को लागू हुए 72 वर्ष बीत जाने के बावजूद इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहने दिया गया। वास्तव में इसके राजनीतिक कारण थे जिसकी वजह से इस विषय पर बात तक करने से बचा गया और मुसलमानों को केवल मजहब की चारदीवारी के भीतर ही बन्द रखने की कोशिश की गई जिसकी वजह से उनकी पुरातनपंथी सोच ही उन पर प्रभावी रह सके और मुल्ला-मौलवियों के फरमानों से उनका सामाजिक जीवन निर्देशित होता रहे। सबसे दुखद यह है कि 1947 में मजहब के आधार पर ही मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र पाकिस्तान बनाये जाने के बावजूद हमने अपनी राष्ट्रीय नीति में परिवर्तन नहीं किया और इसके उलट उन्हीं प्रवृत्तियों व मानसिकता को मुल्ला-मौलवियों व मुस्लिम उलेमाओं की मार्फत संरक्षण दिया गया जिन्होंने भारत के बंटवारे तक में अहम भूमिका निभाई थी। बेशक देवबन्द के उलेमाओं के एक गुट और जमीयत- ल-उलेमाए-हिन्द ने बंटवारे का विरोध किया था और देश की आजादी की लड़ाई में कांग्रेस का साथ दिया था मगर आजाद भारत में इन संगठनों ने भी कभी मुसलमानों को भारत की राष्ट्रीय धारा में मिलने की प्रेरणा नहीं दी और उनकी मजहबी पहचान को खास रुतबा दिये जाने के ही नुक्ते ही लम्बी हुकूमत में रहने वाली पार्टी कांग्रेस को सुझाये। जिसकी वजह से भारत में मुसलमानों की राजनैतिक पहचान एक 'वोट बैंक'के रूप में बनती चली गई जिसकी वजह से 'मुस्लिम तुष्टीकरण' का अघोषित एजेंडा चल पड़ा। मगर मुल्ला-मौलवियों ने इसका जिस तरह जम कर लाभ उठाया उससे मुस्लिम समुदाय ही लगातार सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ता चला गया। उत्तराखंड पूरे देश में 'देवभूमि' के नाम से जाना जाता है क्योंकि हिन्दुओं के एेसे तीर्थ स्थल हैं जिनका सम्बन्ध भारत की उस मूल पहचान से है धर्म से ऊपर उठ कर जो किसी भी व्यक्ति में ईश्वर की सर्व व्यापी निरंकार सत्ता का बोध कराती है और पेड़- पौधों से लेकर पर्वतों व नदियों और प्राकृतिक मनोरमता तक में प्रत्येक व्यक्ति उस सत्ता का बोध अनायास ही करने लगते हैं। ईश्वर की पृथ्वी पर इस निकटता को केवल सनातन या हिन्दू दर्शन अथवा इस धरती से उपजे अन्य धर्म दर्शन ही बताते हैं। अतः बहुत आवश्यक है कि इस देवभूमि में सभी नागरिकों का आचरण एक समान ही हो और सभी के लिए सामाजिक नियम एक समान हों। वैसे गौर से देखा जाये तो 2000 में उत्तराखंड बनने से पहले और बाद में भी इसकी पर्वतीय जनसंख्या में खासा परिवर्तन आया है और पहाड़ों पर मुस्लिम जनसंख्या में खासा इजाफा हुआ है। बेशक इसकी वजह रोजी-रोटी की तलाश भी हो सकती है जिसका हक प्रत्येक हिन्दोस्तानी को है मगर यह हक किसी नागरिक को नहीं है कि वह किसी प्रदेश के सांस्कृतिक वातावरण को प्रदूषित करने का प्रयास केवल इसलिए करे कि उसके मजहब की वे मान्यताएं नहीं हैं जो वहां सदियों से प्रचलित हैं और जो उसकी पहचान बन कर पूरे भारत को अपनी तरफ आकर्षित करती रही हैं। इस मामले में एक समान आचार संहिता की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है । परन्तु मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों को अपने मजहब के अनुसार अपने घरेलू व खानदानी विरासत आदि के झगड़े निपटाने के अधिकार देकर हमने धर्मनिरपेक्ष भारत को ही दो अलग-अलग भागों में बांटने का इन्तजाम केवल इस वजह से कर डाला कि मुसलमान लगातार एक वोट बैंक के रूप में एकत्र रह सकें और भारत के चुनावी लोकतन्त्र में अपने संख्या बल के आधार पर राजनीति को प्रभावित कर सकें जबकि हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य था कि उन्हें सबसे पहले जागरूक मतदाता बनाया जाये। मगर इसी वजह से उत्तराखंड में मदरसों की संख्या तक में अभिवृद्धि हो रही है जिनसे निकलने वाले छात्रों को भारत से प्रेम करने की जगह अपने मजहब से प्रेम करने की शिक्षा दी जाती है। एक समान नागरिक आचार संहिता का विरोध करने वाले अक्सर संविधान के अनुच्छेद 371 की दुहाई देते हैं जिसमें भारत के आधिवासी व जनजातीय समाज की परंपराओं के अनुसार सामाजिक व्यवस्था कायम करने की छूट दी गई है। सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि जन जातीय लोग किसी एक विशेष धर्म को मानने वाले नहीं होते। उनके विविध कबीले होते हैं जिनकी धार्मिक मान्यताएं भी अलग-अलग हो सकती हैं अतः यहां धर्म के आधार पर नहीं बल्कि जनजातीय मान्यताओं व परंपराओं के आधार पर यह छूट प्रदान की गई है। परन्तु मुस्लिम समुदाय को तो उनके मजहब के आधार पर 'मुस्लिम पर्सनल ला' दिया गया है जिसे पंथ निरपेक्ष भारत में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।