- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- समान नागरिक संहिता अभी...

x
By: divyahimachal
प्रधानमंत्री मोदी के आक्रामक आह्वान के साथ समान नागरिक संहिता का प्रचार एक बार फिर शुरू हुआ था। प्रधानमंत्री ने सवाल किया था कि घर में दो कानून संभव नहीं हैं, तो देश दोहरी व्यवस्था कैसे ढो सकता है? तुरंत विश्लेषण किए गए कि यह 2024 के आम चुनाव का बुनियादी मुद्दा होगा और केंद्र सरकार इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का गंभीर प्रयास करेगी। फिलहाल यह मुद्दा नेपथ्य में डाल दिया गया है। संसद के जरिए सूचना मिली है कि यदि विधि आयोग की संपूर्ण रपट भी आ जाए और कुछ भाजपा-शासित राज्यों में भी लागू कर दी जाए, उसके बावजूद समान नागरिक संहिता का बिल मानसून सत्र में पेश नहीं किया जाएगा। अभी भारत सरकार, राज्यों के साथ, इस मुद्दे पर व्यापक विमर्श करना और आम सहमति बनाना चाहती है। यानी आईने की तरह साफ है कि मोदी सरकार के मौजूदा कार्यकाल में समान नागरिक संहिता का कानून नहीं बनेगा। दरअसल यह मुद्दा सात दशक पुराना है, जब डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ‘राष्ट्रीय जनसंघ’ की स्थापना की थी। उससे पहले अप्रैल, 1948 में तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री डा. भीमराव अंबेडकर ने ‘हिंदू कोड बिल’ का मसविदा संविधान सभा के सामने रखा था और कानूनों को संहिताबद्ध करने का विचार दिया था। उसका खूब विरोध किया गया और डा. अंबेडकर को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। ‘जनसंघ’ राजनीतिक दलीलें देता रहा कि समान नागरिक संहिता देश भर में लागू की जाए। अप्रैल, 1980 में भाजपा के गठन के बाद, प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार के दौरान, जब शाहबानो के विवादित केस में संसद में बिल पारित कराया गया और सर्वोच्च अदालत का फैसला निरस्त कर दिया गया, तो भाजपा ने व्यापक स्तर पर समान नागरिक संहिता का प्रचार किया। अंतत: 1989 में इस मुद्दे को पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में शामिल किया गया और यह सिलसिला 2019 के लोकसभा चुनाव तक बदस्तूर जारी रहा। सवाल है कि प्रधानमंत्री के आक्रामक आह्वान के बावजूद यह मुद्दा फिलहाल ठंडे बस्ते में क्यों डाल दिया गया? उत्तराखंड, हिमाचल, उप्र, मध्यप्रदेश, असम आदि भाजपा-शासित राज्यों में समान नागरिक संहिता पर विशेष समितियां गठित की गईं। उन्होंने बड़े आक्रामक अंदाज में विमर्श की प्रक्रियाएं भी शुरू कीं। संघ की भी इच्छा रही है कि उसके सनातन, परंपरागत मुद्दे को भी कानून का रूप दिलाया जाए, ताकि उसकी बुनियादी विचारधारा देश भर में लागू की जा सके। बहरहाल इस मुद्दे को फिलहाल टाल देने के पीछे जो भी कारण और राजनीतिक मजबूरियां होंगी, धीरे-धीरे वे सार्वजनिक हो सकती हैं, लेकिन विविधताओं के इस खूबसूरत देश में न तो एक कानून लागू है और न ही ऐसी संभावनाएं हैं। मसलन-अरुणाचल प्रदेश भारत का ही अभिन्न राज्य है, लेकिन देश का औसत नागरिक आराम से वहां नहीं जा सकता। उसके लिए ‘परमिट’ लेना अनिवार्य है। इसी तरह पहाड़ी और पूर्वोत्तर के राज्यों में, देश से अलग, विभिन्न कानून हैं। आम भारतीय चाहे, तो इन राज्यों में मकान, दुकान, संपत्ति खरीदना निषिद्ध है। आम नागरिक मौलिक अधिकारों के मुताबिक इन राज्यों में जाकर बस भी नहीं सकता। बाकी तो सब कुछ भिन्न है। हिंदू विवाह अधिनियम और स्पेशल मैरिज एक्ट में अलग-अलग कानून निहित हैं। कई विसंगतियां भी हैं। भारत में 11 करोड़ से ज्यादा आदिवासी रहते हैं और वे देश के नागरिक हैं। उनके कबीलाई दौर के कानून एवं मान्यताएं हैं। उन्हें कैसे बदला जा सकता है। जो कानून आईपीसी और सीआरपीसी के तहत लागू होते हैं, उनमें आज तक सुधार या संशोधन नहीं किए जा सके हैं। यह मुद्दा मुसलमानों के शरिया कानूनों और मजहबी रीति-रिवाज, मान्यताओं के मद्देनजर नहीं है। समान नागरिक संहिता वहां तक सीमित भी नहीं है। अभी तो गैर-मुस्लिम जमात में बहुत कुछ विरोधाभासी और अवांछित है। सारांश यह है कि देश में एक ही कानून लागू किया जाना व्यावहारिक नहीं है। यहां कानून के भीतर कानून निहित हैं। समान नागरिक संहिता कैसे संभव होगी, कमोबेश ऐसा विधेयक बनकर सामने आएगा, तभी कुछ कहा जा सकता है। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड पहला ऐसा राज्य है जहां अपनी समान नागरिक संहिता बनाने पर काम चल रहा है। बहरहाल, एनडीए इस मसले पर पीछे हटता दिखाई दे रहा है।
Next Story