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सबके हित में है समान नागरिक संहिता
प्रो. हरबंश दीक्षित। अदालत ने एक बार फिर सरकार से समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी लागू करने का आग्रह किया है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसे मौजूदा वक्त की जरूरत बताया है, ताकि हमारा समाज और अधिक समरस हो सके और उसमें एकजुटता बढ़ सके। संविधान का अनुच्छेद 44 सबसे अधिक दुष्प्रचारित हिस्सों में से एक है। इसके साथ बहुत अन्याय हुआ है। इसमें देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून बनाने की बात कही गई है। सरकार से अपेक्षा की गई है कि वह पंथ, क्षेत्र, भाषा आदि बंटवारा करने वाले आधारों की परवाह किए बगैर सभी के लिए एक जैसा कानून बनाए। ऐसी व्यवस्था बनाए, जो मानवीय गरिमा का सम्मान करती हो, उसे सुरक्षा बोध दे और सभ्य समाज के मानकों पर खरी उतरे।
दुर्भाग्यवश अनुच्छेद 44 की इस पवित्र मंशा को आगे बढ़ाने के बजाय हमने अपनी फितरत के मुताबिक एक हौवा खड़ा कर दिया। उस पर तार्किक बहस करने के बजाय उसे सांप्रदायिक रूप देकर अछूत बना दिया। सुप्रीम कोर्ट का आग्रह बेकार गया। इस मामले में तो हम लोकशाही की महान परंपराओं से भी मुंह चुराने लगते हैं। इस विषय पर स्वस्थ बहस करने के बजाय इसके प्रस्तावकों की लानत-मलानत करने लगते हैं और उसे तब तक जारी रखते हैं जब तक सामने वाला थक हार कर बैठ न जाए।
संविधान निर्माताओं ने महसूस किया कि विवाह और भरण पोषण से जुड़े मामलों का संबंध किसी उपासना पद्धति से नहीं है, बल्कि इसका संबंध इंसानियत से है। नि:संतान व्यक्ति यदि किसी बच्चे को गोद लेकर अपनी वंश परंपरा को आगे बढ़ाना चाहता है या उससे उसे सुरक्षा बोध का अहसास होता है तो आखिर इससे किसी उपासना पद्धति की अवमानना कैसे हो सकती है? यदि किसी कानून से किसी महिला को सामाजिक सुरक्षा मिलती है या पति से अलग होने के बाद उसे दरबदर भटकने के बजाय गुजारे-भत्ते की व्यवस्था की जाती है तो इसमें मजहब कहां से आड़े आता है? महिला-पुरुष के वैवाहिक संबंधों में यदि समानता सुनिश्चित की जाती है तो इससे किसी भी सभ्य समाज को शर्मिदगी नहीं, अपितु गर्व होना चाहिए।
आजादी के बाद हिंदू विधि में व्यापक परिवर्तन किए गए। पहले, पुरुष एक से अधिक शादियां कर सकता था, लेकिन हिंदू विवाह अधिनियम के द्वारा उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। पति-पत्नी को विवाह विच्छेद करके सम्मानपूर्वक एक-दूसरे से अलग रहने का अधिकार दिया गया। महिलाओं की आíथक सुरक्षा के मद्देनजर उन्हें भरण पोषण का अधिकार दिया गया। पिता की संपत्ति में बेटियों को भी अधिकार देने की परंपरा की शुरुआत हुई। संतान को गोद लेने के मामलों में भी पति के एकाधिकार को तोड़ते हुए महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की कोशिश की गई। हिंदू कानून में किए गए सुधारों में पारंपरिक विधि की जगह मानवाधिकारों और समानता के सिद्धांतों को तरजीह दी गई, पर वोट बैंक खिसकने के स्वार्थी सोच के कारण दूसरी जगहों पर ऐसा नहीं हो सका। उन्हें बेहतर होने के मौके से लगातार वंचित रखा गया। संविधान का अनुच्छेद 44 और अदालतों के कई निर्देश भी इस सोच पर बेअसर रहे।
आधुनिक सोच का लाभ केवल हिंदुओं तक ही सीमित न रहे और वह दूसरे मतावलंबियों को भी हासिल हो, इसके लिए अदालतें लगातार कोशिश करती रही हैं। मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो (1985) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि यह अत्यंत खेद का विषय है कि संविधान के अनुच्छेद 44 में तय की गई राज्य की जिम्मेदारी अब निर्जीव शब्द समूहों का संग्रह मात्र बनकर रह गई है। सरकारी उपेक्षा को ध्यान में रखते हुए अदालत ने कहा था कि मुस्लिम समाज को इस मामले में पहल करने की जरूरत है, ताकि प्रगति की दौड़ में वे दूसरों से पीछे न रहें। हैरानी की बात यह है कि शाहबानो के जिस मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने लोगों से इस दिशा में आगे बढ़ने का आह्वान किया, उसके दुष्प्रचार ने सबसे अधिक चोट समान नागरिक संहिता की पहल को पहुंचाई।
शाहबानो प्रकरण के बाद सरला मुदगल (1995) तथा लिली थामस (2000) जैसे कई प्रकरणों में सर्वोच्च न्यायालय ने समान नागरिक कानून के नहीं होने के दोषों को उजागर करते हुए इसका तुरंत क्रियान्वयन करने का निर्देश दिया। वैवाहिक मामलों में वैयक्तिक विधि के दुरुपयोग से विचलित होकर अदालत ने कहा कि अब तो इसका दुरुपयोग कानून को धोखा देने के लिए होने लगा है। जब वैवाहिक साथी से छुटकारा पाना हो तो कुछ समय के लिए अपना मजहब बदलकर दूसरी शादी कर ली, क्योंकि दूसरे मजहब से जुड़े कानून में उसे मान्यता दी गई है। उसके बाद अपनी मर्जी से तलाक देकर उस महिला से छुटकारा पा लिया, क्योंकि उस मजहब का कानून इसकी इजाजत देता है।
सुप्रीम कोर्ट और दूसरे विद्वानों ने इस कमी की ओर बार-बार इशारा किया, लेकिन हमारे राजनीतिक नेतृत्व के ऊपर इसका कोई असर नहीं पड़ा। ढाक के वही तीन पात रहे, क्योंकि वे शाहबानो प्रकरण से सहमे हुए थे। इसके पहले अन्य विद्वानों ने भी इसकी वकालत की है। न्यायमूर्ति मुहम्मद करीम छागला ने मोतीलाल नेहरू व्याख्यानमाला में, प्रोफेसर ताहिर महमूद ने अपनी पुस्तक 'मुस्लिम पर्सनल लॉ' (1977) में तथा न्यायमूर्ति एमयू बेग ने 'इंपैक्ट ऑफ सेक्युलरिज्म' (1973) में भी संविधान के अनुच्छेद 44 को अमली जामा पहनाने का आह्वान किया, किंतु शाहबानो प्रकरण के दु:स्वप्न से अभी भी कोई उबरने को तैयार नहीं है। समाज के व्यापक हितों के मद्देनजर पंथनिरपेक्ष हितचिंतकों को आगे बढ़कर इस दिशा में पहल करने जरूरत है, ताकि हम एक प्रगतिशील समाज के रूप में एकजुट हो सकें।
(लेखक विधि मामलों के जानकार एंव उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के सदस्य हैं)
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