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हर क्षेत्र में एक समान क़ानून और संहिताएं
समान नागरिक संहिता का मतलब और इससे संबंधित समझ क्या है? क्या एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए समान नागरिक संहिता एक अहम जरूरत है? समान नागरिक संहिता के सन्दर्भ में यह उल्लेख कर देना बेहद जरूरी है कि समान नागरिक संहिता की अवधारणा को "सांप्रदायिकता की सत्ता राजनीति" के नज़रिए से प्रस्तुत और परिभाषित किया गया है. भारत की आज़ादी और भारत के संविधान की रचना का मूल आधार केवल एक विदेशी सरकार से मुक्ति हासिल कर लेने की इच्छा भर नहीं था.
अपने विचारों में विविधता के बावजूद महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरु, सरदार वल्लभ भाई पटेल और डॉ. बीआर अंबेडकर का मकसद व्यक्ति की आज़ादी और ऐसे समाज की स्थापना करना था, जिसमें प्रेम, समानता, न्याय और अमन के सूत्र जीवन के आधारभूत सिद्धांत हों. यह उल्लेख करना जरूरी है कि जिस वक्त भारत आज़ाद हुआ था, उस वक्त हिन्दू समुदाय में स्त्री-पुरुषों में तलाक की व्यवस्था नहीं थी, जबकि पुरुषों को एक से ज्यादा विवाह करने का अधिकार था. इसके दूसरी तरफ, विधवाओं को पुनर्विवाह करने का अधिकार भी नहीं था.
विधवा महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से भी वंचित रखे जाने की व्यवस्था थी. तब भी महिलाओं को अपने पिता या पति या परिवार की संपत्ति पर कोई हक़ नहीं था. व्यापक तौर पर महिलाओं को संपत्ति में अधिकार तो आज भी नहीं मिलता है. हम ऐसे समाज के हिस्से हैं, जहां सामाजिक व्यवस्था, जिसमें स्त्रियों को सामाजिक-आर्थिक नियमों के जरिये गुलाम बनाए रखा जाता है और इन्हें "धर्म के सिद्धांत-धर्म के निजी क़ानून" के रूप में पेश किया जाता है, ताकि कोई इस पितृसत्ता को चुनौती देने की हिम्मत न कर सके.
संविधान के अनुच्छेद 35 पर चर्चा
23 नवम्बर 1948 को जब संविधान के उस अनुच्छेद 35 पर चर्चा शुरू हुई, जिसमें समान नागरिक संहिता (राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा.) का उल्लेख था, तब इस पर हुई चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि तब शोषण से मुक्ति और समानता के अधिकार को धर्म के सिद्धांतों के खिलाफ समझा जा रहा था. संविधान सभा के सदस्य मोहम्मद इस्माइल साहब ने कहा कि "निजी कानूनों पर चलने वाले लोगों के लिए इन पर चलना उनके जीवन का भाग है; यह उनके धर्म का भाग है और संस्कृति का भाग है.
यदि निजी कानूनों पर प्रभावकारी कोई बात की जाती है, तो यह उनके जीवन की प्रणाली में हस्तक्षेप करने के बराबर है. हम जो असांप्रदायिक राज्य बनाना चाहते हैं, उसे लोगों के धर्म या जीवन की प्रणाली में हस्तक्षेप करने का कोई काम नहीं करना चाहिए". विश्व में कई देशों में अल्पसंख्यकों के निजी और पारिवारिक कानूनों से सम्बंधित संरक्षण के प्रावधान हैं, किन्तु मेरा संशोधन केवल अल्पसंख्यकों के विषय में ही नहीं है, अपितु सबके सम्बन्ध में है, जिनमें बहुसंख्यक जाति भी सम्मिलित हैं".
उन्होंने डा. अम्बेडकर द्वारा पेश किये गए अनुच्छेद में यह जोड़ने का सुझाव दिया "पर किसी वर्ग, सम्प्रदाय या जाति का यदि कोई निजी क़ानून हो तो उसे वह क़ानून छोड़ने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा.; इस संशोधन का अर्थ यह निकलता है कि जब तक धार्मिक या सामाजिक समूह के सहमति न मिल जाए, तब तक ऐसी संहिता नहीं बनाई जा सकेगी.
धर्म की स्वतंत्रता पर संविधान
नजीरुद्दीन अहमद का कहना था कि हमनें अपने संविधान में धर्म की स्वतंत्रता के मूलभूत लिखा है कि सब व्यक्तियों को विश्वास-स्वातंत्र्य का तथा धर्म को अबाध-रूपेण मानने तथा प्रचार करने का समान अधिकार होगा और राज्य को ऐसे क़ानून बनाने से नहीं रोकेगी जो धार्मिक आचरण से सम्बंधित आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बन्धन करते हैं. इसका मतलब है कि संसद को ऐसे क़ानून और नीतियां बनाने की शक्ति दी जा चुकी है, जो जनकल्याण और संवैधानिक प्रावधानों के उचित क्रियान्वयन के नज़रिए से महत्वपूर्ण लगते हैं.
समान नागरिक संहिता का मूल अर्थ यह नहीं रहा है कि भारत में रहने वाले सभी संप्रदायों को एक जैसे त्यौहार मनाने होंगे, एक जैसी प्रार्थना पद्धति अपनाना होगी, एक जैसी संस्कृति, भाषा या रहन-सहन अपनाना होगा. इस संहिता का मूल विश्वास यह है कि भारत के विभिन्न संप्रदायों में कुछ व्यवहार ऐसे हैं, जो लैंगिक असमानता बनाए रखते हैं, उन्हें बदलने की जरूरत है. ऐसे व्यवहार धार्मिक संभाषणों के आधार पर बनाए रखे गए हैं, किन्तु वास्तव में उनका व्यवहार अनुचित है और देश में समानता का लक्ष्य हासिल करने में बाधक है. के. एम. मुंशी ने संविधान सभा में 23 नवम्बर 1948 को ही कहा था कि मैं जानता हूं कि हिन्दुओं में भी ऐसे बहुत से लोग हैं, जो एकविध व्यवहार संहिता नहीं चाहते.
उनकी भावना है कि उत्तराधिकार आदि का निजी क़ानून वास्तव में उनके धर्म का भाग है. यदि ऐसा है तो आप महिलाओं को कभी समानता प्रदान नहीं कर सकते हैं, जबकि मूलाधिकार में लिखा है कि लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा."
विवाह प्रणाली तथा उत्तराधिकार कानूनों पर हस्तक्षेप
ब्रिटिश सरकार पहले ही आर्थिक और सामाजिक विषयों पर ऐसे क़ानून बना चुकी थी, जो सभी धार्मिक समूहों पर एक समान रूप से लागू होने लगे थे. मसलन रजिस्ट्रेशन क़ानून, अवधि क़ानून (लिमिटेशन एक्ट), व्यवहार विधि संहिता, आपराधिक विधि संहिता, दंड संहिता, साक्ष्य क़ानून, संपत्ति हस्तांतरण क़ानून, शारदा क़ानून. लेकिन महबूब अली बेग बहादुर का कहना था कि "अंग्रेजों ने विवाह प्रणाली तथा उत्तराधिकार के कानूनों को लीजिये, उन्होंने इसमें कभी हस्तक्षेप नहीं किया.
मेरा निवेदन है कि इन मामलों में हस्तक्षेप धीरे-धीरे होना चाहिए और समय के साथ इसमें प्रगति होना चाहिए. मुझे इसमें संदेह नहीं है कि एक समय आएगा जब कि व्यवहार क़ानून एक रूप होगा, किन्तु अभी ऐसा समय नहीं आया है. किसी सम्प्रदाय विशेष के सम्बन्ध में धार्मिक कानूनों को उस संप्रदाय की सहमति के बिना नहीं बदलना चाहिए और यह सहमति ऐसी प्रणाली द्वारा विदित की जाना चाहिए, जो कि संसद क़ानून द्वारा निश्चित करे. चाहे संसद उस जाति की इच्छा उनके प्रतिनिधियों द्वारा जी जानने का निश्चय करे.
यह प्रतिनिधि अपने निर्वाचन-भाषणों और प्रतिज्ञाओं द्वारा उनकी इच्छा जान सकते हैं. वास्तव में यह किसी निर्वाचन में विश्वास की कसौटी बनाई जा सकती है. मेरा विश्वास है कि इससे देश के बहुत से वर्गों में अत्यधिक गलत-फहमी और घृणा उत्पन्न हो जायेगी. हमें शीघ्रता नहीं करना चाहिए, वरन सावधानी से, अनुभव से, सूझबूझ से तथा समानुभूति से कार्य करना चाहिए".
अल्पसंख्यकों के मन का डर
बी. पोकर साहब ने कहा कि "क्या यह परिषद् इन सब विभिन्नताओं (देश में रहने वाली कई जातियां अलग-अलग व्यवस्था में अलग-अलग व्यवहार करती हैं, यही विविधता है) को मिटाकर उन्हें एकरूप करने जा रही है? इतनी अनेकों जातियां हैं, जो शताब्दियों से या हज़ारों सालों से विभिन्न रीतियों का पालन करती हैं. ज़रा सा लिख देने (संविधान में समान नागरिक संहिता का प्रावधान) से ही आप उन सबको अवैध कर देना चाहते हैं?"
हुसैन इमाम ने एक महत्वपूर्ण बात कही थी. आज़ादी के बाद सांप्रदायिकता का भय जड़ से मिटाने की पहल देश के राजनीतिक दलों को करना चाहिए थी, वह नहीं की गयी. इसके उलट चुनावी राजनीति में जाती, पूंजी, संपदा, सांप्रदायिक वैमस्यता को मुख्य रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया गया. इससे यह बात साफ़ हो गयी कि संप्रदायों में समान नागरिक संहिता के बारे में फैले हुए भ्रम को दूर करना आसान काम न होगा.
अल्पसंख्यकों के मन में यह डर बैठा हुआ है कि समान नागरिक संहिता का इस्तेमाल उनकी धार्मिक व्यवस्थाओं को खत्म करने के लिए किया जाएगा. इस पर हुसैन इमाम ने स्पष्ट रूप से कहा था कि "मेरे विचार से भी एकविध क़ानून बनाना सर्वथा उपयुक्त और वांछनीय है. इसके लिए हमें उस समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए, जबकि सारा भारत शिक्षित हो जाए, जब जनसाधारण की निरक्षरता दूर हो जाए, जब लोग प्रगतिशील हो जाएं, जब उनकी आर्थिक अवस्था अब से अच्छी हो जाए, जब प्रत्येक मनष्य अपने पैरों पर खडा हो होने लगे तथा अपने जीवन-संग्राम में स्वयं लड़ सके. तब आप समान क़ानून बना सकते हैं."; अब प्रश्न यह है कि क्या हमनें यह स्थितियां हासिल कर ली हैं?
हर क्षेत्र में एक समान क़ानून और संहिताएं
के. एम. मुंशी का तर्क था कि हम धर्म को निजी क़ानून से अलग करना चाहते हैं, उसे सामाजिक संबंधों से अथवा उत्तराधिकार के विषय में पक्षकों के अधिकारों से अलग करना चाहते हैं. इन चीजों का धर्म से क्या सम्बन्ध है? अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर का मानना था कि समाज को आगे बढना होगा. उत्तराधिकार और अन्य विषयों में अलग-अलग व्यवस्थाओं के कारण भी विभिन्न जातियों में अंतर (असमानता) पैदा हुई है. हमारे पूर्वजों ने एकविध राष्ट्र को लोकतंत्र के धागे में बांधने की कल्पना भी नहीं की थी.
सदा अतीत से चिपटे रहने से कोई लाभ नहीं है. हम एक महत्वपूर्ण बात में अतीत से विदा ले रहे हैं, वह यह है कि हम सारे भारत को एक ही राष्ट्र के रूप में बनाना तथा संगठित करना चाहते हैं. क्या हम उन बातों में सहायता दे रहे हैं, जो एक राष्ट्र के संगठन में सहायक होती हैं अथवा क्या हम इस देश को सदा प्रतिद्वंदी जातियों का स्थान बनाए रखना चाहते हैं? यही प्रश्न विचारणीय है.
डा. अंबेडकर ने कहा कि हमारे यहां मानवीय संबंधों के लगभग हर क्षेत्र में एक समान क़ानून और संहिताएं हैं. दंड-विधान, सम्पूर्ण आपराधिक क़ानून, आपराधिक विधि संहिता, संपत्ति हस्तांतरण क़ानून, नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट सरीखे असंख्य उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि इस देश में लगभग एक ही व्यवहार संहिता है. अब तक केवल विवाह और उत्तराधिकार के क्षेत्र में राज्य का व्यवहार क़ानून नहीं बन पाया है. यही एक छोटा सा कोना है, जिसमें हम अब तक हस्तक्षेप नहीं कर पाए हैं, और अनुच्छेद ३५ की इच्छा इसी सुधार को लाने की है.
डा. अंबेडकर ने सभी तर्कों को खारिज करते हुए कहा कि यह मानना सही नहीं है कि पूरे देश में अलग-अलग क्षेत्रों में हिन्दुओं और मुसलमानों के एक जैसे निजी क़ानून व्यवहार में आते हैं. डा. बीआर अंबेडकर ने समान नागरिक संहिता में बदलाव के लिए प्रस्तुत किये गए संशोधनों के सुझाव को खारिज कर दिया. वे मानते थे कि भारत में स्त्रियों को समानता का हक़ दिलाने के लिए धर्म के नाम पर बनी हुई व्यवस्थाओं और नियमों को "राज्य के कानूनों" से ही सुधारा जा सकता है. समाज खुद उन व्यवस्थाओं में बदलाव नहीं करेगा, जो पुरुषों को मालिक का दर्ज़ा देते हैं. स्वतंत्र भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता के लिए समान नागरिक संहिता जरूरी होगी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
सचिन कुमार जैन , निदेशक, विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.
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