सम्पादकीय

'छत्तीसगढ़ मित्र' और 'हिंदी केसरी' के माध्यम से पत्रकारिता में किया गया 'माधवराव सप्रे' का कार्य अविस्मरणीय

Gulabi
19 Jun 2021 5:46 AM GMT
छत्तीसगढ़ मित्र और हिंदी केसरी के माध्यम से पत्रकारिता में किया गया माधवराव सप्रे का कार्य अविस्मरणीय
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'माधवराव सप्रे' का कार्य अविस्मरणीय

प्रो. संजय द्विवेदी। Pandit Madhavrao Sapre Birth Anniversary आजादी के आंदोलन की पहली पंक्ति के नायकों ने जहां देश में जागरूकता पैदा की, वहीं साहित्य, कला, संस्कृति और पत्रकारिता में सक्रिय नायकों ने अपनी लेखनी और सृजनात्मकता से भारतबोध और हिंदी प्रेम की गहरी भावना समाज में पैदा की। 19 जून, 1871 को मध्य प्रदेश के दमोह के पथरिया में जन्मे माधवराव सप्रे एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। आज के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र तीन राज्य उनकी पत्रकारीय और साहित्यिक यात्र के केंद्र रहे। सप्रे जी एक कुशल संपादक, प्रकाशक, शिक्षक, कथाकार, निबंधकार, अनुवादक, आध्यात्मिक साधक सब कुछ थे। वे हर भूमिका में पूर्ण थे। हालांकि वह सिर्फ 54 साल जिए, किंतु जिस तरह उन्होंने अनेक सामाजिक संस्थाओं की स्थापना की, पत्र-पत्रिकाएं संपादित कीं, अनुवाद किया, अनेक नवयुवकों को प्रेरित कर देश के विविध क्षेत्रों में सक्रिय किया, वह विलक्षण है। 26 वर्षो की अपनी पत्रकारिता और साहित्य सेवा के दौर में उन्होंने कई मानक रचे।

वर्ष 1900 में उन्होंने छत्तीसगढ़ के छोटे से कस्बे पेंड्रा से 'छत्तीसगढ़ मित्र' का प्रकाशन प्रारंभ किया। दिसंबर 1902 तक इसका प्रकाशन मासिक होता रहा। 'छत्तीसगढ़ मित्र' की प्रकाशन अवधि हालांकि बहुत कम है, किंतु इस समय में भी उसने गुणवत्तापूर्ण और विविधतापूर्ण सामग्री को प्रकाशित कर आदर्श संपादकीय और लेखकीय परंपरा को निíमत करने में मदद की। हालांकि अभावों के चलते इसका प्रकाशन बंद हो गया और सप्रे जी नागपुर के देशसेवक प्रेस में काम करने लगे। वहीं पर सप्रे जी ने जीवन के कठिन संघर्षो के बीच 1905 में हिंदी ग्रंथ प्रकाशन-मंडली की स्थापना की। इसके माध्यम से हिंदी भाषा के विकास और उत्थान तथा अच्छे प्रकाशनों का लक्ष्य था। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के कार्यो से प्रभावित सप्रे जी ने 13 अप्रैल, 1907 से 'हिंदी केसरी' का प्रकाशन आरंभ किया। भारतबोध की भावना भरने, लोकमान्य तिलक के आदर्शो पर चलते हुए इस पत्र ने सामाजिक जीवन में बहुत खास जगह बना ली। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के मई, 2007 के अंक में लिखा, 'हिंदी केसरी निकल आया। अच्छा निकाला। आशा है इस पत्र से वही काम होगा जो तिलक महाशय के मराठी पत्र से हो रहा है। इसके निकालने का सारा पुण्य पंडित माधवराव सप्रे बी.ए. को है। महाराष्ट्री होकर भी हिंदी भाषा पर आपके अखंड प्रेम को देखकर उन लोगों को लज्जित होना चाहिए, जिनकी जन्मभाषा हिंदी है, पर जो हिंदी में एक अक्षर भी नहीं लिख सकते या फिर लिखना नहीं चाहते हैं।'
सप्रे जी में हिंदी समाज की समस्याओं और उसके उत्थान को लेकर एक ललक दिखती है। वे भाषा को समृद्ध होते देखना चाहते हैं। हिंदी निबंध और कहानी लेखन के क्षेत्र में वे अप्रतिम हैं तो समालोचना के क्षेत्र में भी निष्णात हैं। सप्रे जी ने उस समय की लोकप्रिय पत्रिकाओं में 150 से अधिक निबंध लिखे। छत्तीसगढ़ मित्र में छह कहानियां लिखीं।
सप्रे जी ने अनुवाद कर्म से हिंदी की दुनिया को समृद्ध किया। एक अनुवादक के रूप में उनका सबसे बड़ा काम है हिंदी के पाठकों को 'दासबोध' उपलब्ध कराना। वर्ष 1909 के आरंभ में सप्रे जी वर्धा के पास हनुमानगढ़ में संत श्रीधर विष्णु परांजपे से दीक्षा लेते हैं और उनके आश्रम में कुछ समय गुजारते हैं। इसके पश्चात गुरु आज्ञा से उन्होंने दासबोध के 13 पारायण किए और रायपुर में रहते हुए उसका अनुवाद किया। समर्थ गुरु रामदास रचित 'दासबोध' एक अद्भुत कृति है, जिसे पढ़कर भारतीय परंपरा का ज्ञान और सामाजिक उत्तरदायित्व का भाव दोनों से परिचय मिलता है। लोकमान्य तिलक जिन दिनों मांडले जेल में थे, उन्होंने कारावास में रहते हुए 'गीता रहस्य' की पांडुलिपि तैयार की। इसका अनुवाद करके सप्रे जी ने हिंदी जगत को एक खास सौगात दी।
माधवराव सप्रे की 150वीं जयंती का वर्ष मनाते हुए हमें यह ध्यान रखना है कि उनका योगदान उतना ही महत्व का है, जितना भारतेंदु हरिश्चंद्र या महावीर प्रसाद द्विवेदी का। लेकिन इन दोनों की तरह सप्रे जी की परिस्थितियां असाधारण हैं। उनके पास काशी जैसा समृद्ध बौद्धिक चेतना संपन्न शहर नहीं है, न ही 'सरस्वती' जैसा मंच। सप्रे जी बहुत छोटे स्थान पेंड्रा से 'छत्तीसगढ़ मित्र' का प्रारंभ करते हैं और बाद में नागपुर से 'हिंदी केसरी' निकालते हैं। उनका समूचा व्यक्तित्व हिंदी की सेवा को समíपत है। किंतु हिंदी संसार ने इस नायक को भुला दिया है। शायद इसलिए कि माधवराव सप्रे सिर्फ हिंदी नवजागरण के ही नहीं, बल्कि भारतबोध के भी प्रखर प्रवक्ता हैं।
माधवराव सप्रे की भावभूमि और वैचारिक अधिष्ठान भारत की जड़ों से जुड़ा हुआ है। वे अनेक संस्थाओं की स्थापना करते हैं, जिनमें हिंदी सेवा की संस्थाएं हैं, सामाजिक संस्थाएं तो विद्यालय भी हैं। जबलपुर में हिंदी मंदिर, रायपुर में रामदासी मठ, जानकी देवी पाठशाला इसके उदाहरण हैं। 23 अप्रैल, 1926 में उनका निधन हो जाता है। बहुत कम वर्षो की जिंदगी जीकर वे कैसे खुद को सार्थक करते हैं, यह सब कुछ हमारे सामने है। उनके बारे में गंभीर शोध और अध्ययन की बहुत आवश्यकता है। इससे भारतीय समाज को उनके वास्तविक योगदान का पता चलेगा। माधवराव सप्रे को याद करना सही मायने में अपने उस पुरखे को याद करना है जिसने हमें भाषा दी और उसके संस्कार दिए।
[महानिदेशक, भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली]


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