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आकलन एक बार एकतानगर जाकर ही किया जा सकता है।
देश को जब 1947 में आजादी मिली, तो पांच सौ बासठ छोटी रियासतों से लेकर हैदराबाद, जूनागढ़ और जोधपुर जैसे बड़े देसी राज्य देश की एकता और अखंडता के सामने प्रश्नचिह्न बनकर खड़े थे। इन सैकड़ों रियासतों का सार्वभौम गणतांत्रिक भारत में विलय करने का पूरा श्रेय वल्लभभाई पटेल को मुक्त कंठ से दिया जाता है, लेकिन 2020 में जब उसी लौह पुरुष के जन्मदिन पर प्रधानमंत्री मोदी के हाथों उनकी एक सौ बयासी मीटर ऊंची भव्य प्रतिमा का अनावरण किया गया, तो असहमति की बहुत-सी आवाजें सुनी गईं।
पांच वर्ष पहले जब सरदार सरोवर बांध पर विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति (अमेरिका की स्टेच्यु ऑफ लिबर्टी से दोगुनी ऊंची) स्थापित करने का निर्णय लिया गया था, इस सोच की तीखी आलोचना चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई थी। यह आलोचना उस विरोध से थोड़ी ही कम कटु थी, जो नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर बांध बनाए जाते समय मेधा पाटकर और बाबा आमटे जैसे समाजसेवियों ने की थी। सरदार पटेल का कल जन्मदिन है, ऐसे मौके पर इस कटु आलोचना का मूल्यांकन करना उचित होगा।
एकता की मूर्ति के पहले एक नजर डालनी चाहिए सरदार सरोवर बांध के इतिहास पर। मध्य प्रदेश से चलकर अरब सागर में विलीन होने वाली नर्मदा नदी पर तीस बड़े, एक सौ पैंतीस मझोले और तीन हजार छोटे बांध बनाकर और नर्मदा सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाकर महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेश में चालीस लाख लोगों को पेयजल, सिंचाई जल और विद्युत् आपूर्ति करने की महती योजना 1961 में बनते ही विवादों में घिर गई।
इन्हें सुलझाने के लिए गठित आयोग ने फैसला देने में बरसों लगाए। अंततः 1979 में योजना पर काम शुरू हुआ, लेकिन 1985 में मेधा पाटकर ने नर्मदा घाटी परियोजना क्षेत्र का दौरा किया, तो पाया कि जिन लाखों आदिवासियों और जनजातियों की जमीनें इस योजना की बलि चढ़ने वाली थीं, उन्हें उस साल की फसल के अतिरिक्त और कोई नकद मुआवजा नहीं दिया गया था, न ही उनके पुनर्वास की कोई व्यवस्था की गई थी। जमीन के स्वामित्व के दस्तावेजों की जांच किए बिना और पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव की चिंता किए बिना शुरू कर दी गई इस योजना का मेधा पाटकर ने डटकर विरोध किया।
उन्होंने हजारों समर्थकों के साथ छत्तीस दिन का एकता मार्च किया और बाईस दिनों तक भूख हड़ताल की। अंततः कुछ छोटे-मोटे परिवर्तनों के साथ नर्मदा घाटी और सरदार सरोवर बांध योजनाएं पूरी हुईं। आज उन्हें बुरा भला कहा जाता है, लेकिन निष्पक्ष दृष्टि डालने से लगता है कि मेधा पाटकर की आपत्तियों के कारण ही योजना में पर्यावरण और जनजातियों के पुनर्वास से संबंधित कई सुधार किए जा सके। लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन के आयोजकों की यह धारणा, कि इस योजना से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में पेयजल, सिंचाई और विद्युत् आपूर्ति की आशा एक झूठा सपना भर थी, काफी हद तक निर्मूल निकली।
हाल ही में वहां से होकर आने के बाद यह लेखक इस नतीजे पर पहुंचा है कि सरदार सरोवर बांध का निर्माण जितना लाभदायक रहा, प्रसिद्ध मूर्तिकार राम सुतार द्वारा निर्मित सरदार की मूर्ति की एकता के प्रतीक के रूप में स्थापना भी उतनी ही दूरगामी सोच का नतीजा है। इस निर्माण के पीछे वर्षों की सोच और योजनाबद्ध तैयारी, विश्व की नामी पर्यावरण संस्थाओं से वर्षों चली सलाह और भारत की निर्माण विशेषज्ञ कंपनी लार्सन एंड टूब्रो की व्यावसायिक और वैज्ञानिक क्षमता है।
आज सरदार की प्रतिमा के मूल स्थान केवड़िया गांव से लगा हुआ एकतानगर नामक एक नया बसाया गया शहर है, जो आधुनिक सुविधाओं से लैस है। देश ही नहीं, विदेशों से भी बड़ी संख्या में आ रहे सैलानियों को लुभाने वाली 'एकता की प्रतिमा' एकतानगर का अकेला सैलानी आकर्षण नहीं है। प्रतिमा के चारों तरफ फैले चौबीस एकड़ के क्षेत्र में विशाल बायोडाइवर्सिटी पार्क है। बाईस लाख वृक्षों की संपदा से लैस फूलों की घाटी में तीन हजार से भी अधिक तरह के फूल हैं।
विश्व स्तर के इस नए सैलानियों के स्वर्ग में पुनर्वासित जनजातियों के सदस्यों को न केवल नकद मुआवजा, बल्कि बिजली पानी से सुसज्जित आवासीय घर और माली, दरबान, फूड कोर्ट में वेटर आदि किस्म की तमाम अकुशल और अर्धकुशल नौकरियां भी मुहैया कराई गई हैं। पारंपरिक हस्तकौशल से बनी वस्तुएं, और पेड़ पौधों के बीज से लेकर, आयुर्वेदिक जड़ी बूटियां और बोनसाई पौधे तक बेचने के लिए पुनर्वासित पुरुषों और महिलाओं को शॉपिंग मॉल में और अन्य दर्शनीय स्थानों पर फुटकर दूकानें दी गई हैं। एकता नगर पहुंचते ही सौ-दो सौ गुलाबी ऑटो रिक्शा दिखते हैं, जिन्हें चलाती हैं पुनर्वासित आदिवासी परिवारों की किशोरियां जो स्थानीय विद्यालयों में मुफ्त शिक्षा प्राप्त करके एक नए युग में प्रवेश कर चुकी हैं।
इतना सब कुछ देखकर कोई भी आश्वस्त हो सकता है कि नर्मदा सागर बांध को लेकर मेधा पाटकर की चिंता किसी हद तक उचित और स्थानीय आदिवासियों के हित में थीं, लेकिन शायद इस योजना के सकारात्मक पहलुओं का सही अनुमान वह नहीं लगा पाई थीं। लौहपुरुष की विशाल प्रतिमा को फिजूलखर्ची का उदाहरण समझाने वालों से भी शायद यही भूल हुई है। इस विशाल प्रतिमा की स्थापना के पीछे कितनी भव्य और दूरगामी सोच थी, इसका उचित आकलन एक बार एकतानगर जाकर ही किया जा सकता है।
सोर्स: अमर उजाला
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Neha Dani
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