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- वंचित, प्रवंचित लोग
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उन्होंने हमें अच्छी तरह समझा दिया है कि हमारा भला अपना किसी किस्म का अधिकार मांगने में नहीं है। हम तो पीढिय़ों से वंचित, पिछड़े हुए और भूखे नंगे लोग हैं। कोरोना से लेकर डेंगू तक, अकाल से लेकर भूचाल तक अपने सींकिया बदन पर सहते आये हैं। हमें इससे पहले कभी कुछ नहीं मिला, तो आज अपनी मेहनत के लिए मांगने, उसका पूरा मूल्य चाहने का यह शौक कैसे पाल लिया? अरे पालना ही था तो कोई इज्जतदार शौक पालते। तीतर-बटेर लड़ाने का शौक पालते। वहां तक हाथ नहीं पहुंचता था, तो कनकौआ लड़ाने चले जाते। लेकिन तुम रहे, सदा फटी पतंगों के वारिस। आकाश में पतंगों के साथ उडऩे का सपना पालते हो। बेहतर हो इस डोर से बिछुड़ी पतंग को ही अपना मान अपने टूटे सपनों की आरती उतार लो। पतंगबाज तो वहां बैठे हैं ऊंची अट्टालिकाओं में। तुमने इनकी भ्रष्टाचार की पतंग नोटबंदी करके काटनी चाही, तो उन्होंने अपने काले नोटों को, देश की गरीबों की कतार में खड़े आखिरी आदमियों को बैंकों की नोट बदलने की कतार में खड़ा करके सफेद कर लिया। नोटबंदी का अभियान समाप्त हुआ तो पता चला कि बैंकों के पास जितने पुराने नोट पहले जमा थे, उससे अधिक नोट सफेद होकर बैंक खातों में जमा हो गये। सदियों से तुम जंगली लकड़ी बीन, उपले थाप अपना चूल्हा जलाते थे, उसके धुएं को फूंक-फूंक कर उससे अपनी आंखें गंवाते थे।
उन्होंने तुम्हें चौका बासन क्रांति को उज्ज्वल करार देकर तुम में मुफ्त सिलेंडर बांट दिये। लेकिन बड़े लोगों के समूह ने पैट्रोल और गैस के उत्पादन में कटौती करके पैट्रोल और डीजल ही नहीं, गैस भी अनुपलब्ध करार दी। अब लाओ, भला कहां से लाओगे उनके रीफिल भरने के दाम? छोड़ो इस उज्ज्वलता के अंधेरे का दामन। लकड़ी और उपले जला कर अपना रोटी पकाने का गुर कहीं नहीं गया। अपनी जड़ों से टूटना हमेशा हानिकर होता है, बन्धु। कौआ मोर की चाल चला था, अपनी चाल भी भूल गया। इसलिए अब यह गैस का सिलेंडर और उसकी सबसिडियों की खैरात छोड़ो। वैसे भी यह अब कीमत बढऩे से घट कर कुछ सिक्के रह गई है। आधुनिकता का दामन छोड़ो। अतीत की ओर लौटो, बाबा आदम के जमाने का चूल्हा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। पुराने जमाने का चूल्हा, धौंकनी से उसकी आग फूंको। उसका धुआं निकल कर तुम्हारी अधमरी आंखों को धुएं की सौगात दे देगा। इस सौगात ने तुम्हारी आंखों को अंधराता और मोतियाबन्द दे दिया, तो अच्छा ही है। ऐसी अवश आंखों से अपनी गरीबी हरने वाले मसीहा का चेहरा भी सुन्दर लगने लगता है। उसने दया करके लंगर का पैकेट ही नहीं दिया, अच्छे दिन आने की सौगात भी दे दी। आओ, इस मधुर कल्पना के नीचे रौशनी का दिया जलाएं। कल्पना साकार लगने लगेगी। इन धुंधली आंखों से देखो तो लगेगा शहर के पैट्रोल पम्पों के बाहर पैट्रोल और डीजल भरवाने के इच्छुक वाहन चालकों की कतार लम्बी हो गयी। खबर फैल गई कि सरकारी कर कटौती के कारण पैट्रोल और डीजल के आकाश छूते दाम आधे रह गये। लोग अपने-अपने खटारा वाहनों की टंकी भरवाने के लिए लगी कतारों में धक्का-मुक्की कर रहे हैं।
लेकिन यह धक्का-मुक्की तो सस्ते अनाज की बन्दरबांट के लिए हो रही थी। तुम्हारी धुंधली होती आंखों ने फिर तुम्हें धोखा दे दिया। पैट्रोल पम्पों के पाइप तो उसी तरह औंधे पड़े हैं। कभी-कभी कोई वाहन चालक वहां चला आता, जैसे किसी बहेलिये के जाल में अकेला पंछी फंसा हो। धनी देश भला क्यों अपना उत्पादन बढ़ा अपने पर्स को ढीला करेंगे। सरकार क्यों टैक्स घटा अपने खजाने को दीमक लगाये? आगे ही महामारी की वजह से राजस्व की राशि शर्मिंदा शर्मिंदा सी लगती है। ठेकेदारों को काम का मंदा लगा है। दलाल वैकल्पिक रोजगार तलाश रहे हैं और बड़े बाबू को अपने फल और मिठाई की डलिया खाली नजर आती है। लगता है जैसे किसी सेवानिवृत्त कर्मचारी के घर यह डलिया पड़ी हो। अब ऐसी हालत में करों की दर घटा देंगे, तो कर चोरी का मैदान भी उतना ही तंग हो जायेगा। बालाई आमदन वाले अपना खेल दिखायेंगे तो कैसे?
सुरेश सेठ
By: divyahimachal
Rani Sahu
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