सम्पादकीय

राष्ट्रपति ने जिस दंड प्रक्रिया पहचान विधेयक को मंजूरी दी, उसके तहत पुलिस को अपराधियों के जैविक नमूने लेने की होगी अनुमति

Gulabi Jagat
20 April 2022 3:46 PM GMT
राष्ट्रपति ने जिस दंड प्रक्रिया पहचान विधेयक को मंजूरी दी, उसके तहत पुलिस को अपराधियों के जैविक नमूने लेने की होगी अनुमति
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राष्ट्रपति ने जिस दंड प्रक्रिया पहचान विधेयक को मंजूरी दी
राष्ट्रपति ने जिस दंड प्रक्रिया पहचान विधेयक को मंजूरी दी, उसके तहत पुलिस को आपराधिक मामलों में गिरफ्तार लोगों और दोषी करार दिए गए अपराधियों के जैविक नमूने लेने की अनुमति होगी। पुलिस को यह सुविधा प्रदान करने वाले किसी कानून की सख्त आवश्यकता थी, क्योंकि अपराधी नई-नई तकनीक से लैस होते जा रहे हैं और कई मामलों में यह सामने आता है कि पुख्ता साक्ष्य के अभाव में उन्हें सजा देना कठिन होता है। यह कानून 80 साल पुराने कैदी पहचान अधिनियम की जगह लेगा। स्पष्ट है कि कानून को संशोधित करने में देर हुई। इसके बाद भी विपक्ष ने संसद में बहस के दौरान इस आधार पर इस प्रस्तावित कानून का विरोध किया कि इसका दुरुपयोग हो सकता है।
दुनिया में ऐसा कोई कानून नहीं, जिसके दुरुपयोग की आशंका न हो, लेकिन इसके चलते सक्षम कानून बनाने से बचने की पैरवी करने का कोई मतलब नहीं। जब कानून एवं व्यवस्था के साथ आंतरिक सुरक्षा के समक्ष खतरे बढ़ते जा रहे हैं, तब सक्षम कानूनों के निर्माण का विरोध करना एक तरह से देश को जानबूझकर खतरे में डालने वाला काम है। यह ठीक नहीं कि हमारे राजनीतिक दल अराजकता और खासकर आतंकवाद पर अंकुश के मामले में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर विचार करने के लिए मुश्किल से ही तैयार होते हैं। इसी कारण अतीत में पोटा और टाडा जैसे कानून रद किए गए। यदि किसी कानून में खामी मिले तो उसे दूर करने का काम किया जाना चाहिए, न कि कानून को रद करने का।
उम्मीद की जाती है कि दंड प्रक्रिया पहचान कानून पर तेजी से अमल होगा और इसके जरिये अपराधियों पर अंकुश लगेगा। अपराधियों के मन में कानून का भय पैदा करने के लिए अन्य आवश्यक उपाय भी किए जाने चाहिए, क्योंकि अपराध के नए-नए तरीके उभर रहे हैं। इस चुनौती का सामना तभी किया जा सकता है, जब पुलिस सक्षम कानूनों के साथ उन संसाधनों से भी लैस होगी, जो उसके लिए आवश्यक हो चुके हैं। इस मामले में जो प्रगति हुई है, उसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पुलिस सुधार संबंधी उन दिशानिर्देशों पर अभी तक ढंग से अमल नहीं हो सका है, जो सुप्रीम कोर्ट की ओर से 2006 में दिए गए थे। निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक में लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या निराशाजनक ही है।
दैनिक जागरण के सौजन्य से सम्पादकीय
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