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- विचाराधीन पर विचार
बिभा त्रिपाठी: भूल सुधार के अनेक विषयों की पृष्ठभूमि का एक लंबा और पुराना इतिहास है। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण है विचाराधीन कैदियों की संख्या, स्थिति और उनसे या उनको होने वाली समस्याओं पर विचार करना। विधायिका द्वारा कानूनों में संशोधन, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के कई गए निर्णयों, आपराधिक न्याय, प्रशासन में सुधार के लिए गठित समितियों की सिफारिशों, मानवाधिकार आयोग के आदेशों के बावजूद जमीनी हकीकत नहीं बदलती है, उन पक्षों की गहराई से पड़ताल करना अनिवार्य हो जाता है, जो इस समस्या के लिए जिम्मेदार माने जा सकते हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2020 की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक प्रत्येक चार में से तीन विचाराधीन कैदी हैं और इनका कुल प्रतिशत 76.1 है। इस अध्ययन के अनुसार 2015 से 2020 के बीच सिद्ध दोष अपराधियों की संख्या तो घटी है, पर विचाराधीन कैदियों की संख्या में इजाफा हुआ है।
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी इस पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि विश्व के अन्य सभी लोकतांत्रिक देशों की तुलना में भारतीय लोकतंत्र में यह संख्या अपेक्षाकृत अधिक है। ऐसे में महिला विचाराधीन कैदियों की समस्या विशेष रूप से विचारणीय बन जाती है, क्योंकि कुल 1427 महिला कैदियों के साथ 1628 बच्चे भी जेल में रह रहे हैं। इनमें से 1184 महिलाएं विचाराधीन कैदी हैं, जिनके साथ 1345 बच्चे रह रहे हैं। इसके विपरीत 214 सिद्ध दोष महिला कैदियों के साथ 246 बच्चे रह रहे हैं।
जेल आचार संहिता में प्रावधान है कि छह वर्ष की उम्र तक के बच्चे अपनी मां के साथ ही रहेंगे। प्रावधान की मंशा सुधारवादी भले हो, लेकिन जब किशोरवय के बच्चों को वयस्कों से अलग रखा जाता है तो ऐसी महिलाओं के साथ कुछ अन्य विकल्पों पर विमर्श क्यों नहीं होता? ऐसे अबोध बालकों, जिनकी अपनी कोई गलती नहीं उनके जीवन की शुरुआत ही कारावास से हो रही है, तो जेल के विभिन्न नियमों में आवश्यक बदलाव की आवश्यकता भी महसूस होती है। क्या ऐसी महिलाओं के लिए आवासीय प्रशिक्षण केंद्रों की व्यवस्था नहीं की जा सकती, जहां वे अपनी आजीविका चलाने के बारे में भी कुछ सीख सकें।
राष्ट्रीय विधि सहायता प्राधिकरण, राज्य विधि सहायता प्राधिकरण और जिला विधि सहायता प्राधिकरण द्वारा किए जाने वाले प्रयास नेक तो हैं, लेकिन प्रश्न है कि क्यों इसका लाभ वास्तव में उन व्यक्तियों को नहीं मिल पा रहा है? क्यों विचाराधीन कैदियों की समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा है? इसके पीछे कौन से ऐसे कारण हैं जिस पर दृष्टिपात करने की आवश्यकता है?
आपराधिक कानून में सुधार की पहल लगातार चल रही है। लगातार सुझाव दिए जा रहे हैं कि कुछ अपराधों को आपराधिक कानून की परिधि से बाहर निकाला जाए और सुधारात्मक कानूनों और नीतियों का अधिकाधिक प्रयोग किया जाए। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 का सर्वाधिक उल्लेख किया जाता है। 2005 में संशोधन करके इसमें धारा 436 (क) जोड़ी गई। इसके अनुसार ऐसे अपराध जिसमें तीन वर्ष से कम की सजा का प्रावधान हो, उसके आरोपी को जमानत पर छोड़ा जाना, उसके लिए जमानत की मांग करना और उसे स्वीकार करना कैदी का एक मौलिक अधिकार है।
मगर निर्धन व्यक्तियों को न छोड़ा जाना समस्या को लगातार गंभीर बना रहा है। इस धारा में प्रावधान है कि जहां मृत्युदंड से भिन्न किसी भी अन्य दंड से दंडनीय व्यक्ति को, जिसकी अन्वेषण जांच और सुनवाई की अवधि के दौरान कारावास की अधिकतम अवधि के जो उस कानून के अधीन उस अपराध के लिए निर्दिष्ट की गई है, आधी से अधिक का कारावास व्यतीत कर चुका है तो उसे भी न्यायालय द्वारा छोड़ दिया जाएगा।
इसमें विचाराधीन विदेशी नागरिकों की बाबत भी उपबंध किए गए थे। हाल ही में न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और अभय एस. ओका की पीठ ने चौहत्तर वर्षीय माओवादी नेता असीम भट्टाचार्य की जमानत याचिका स्वीकृत करते हुए कहा कि ह्यत्वरित न्याय न मिलना न्याय प्रशासन पर जनता का भरोसा कमजोर करता है।
प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एनवी रमण, न्यायमूर्ति सूर्यकांत तथा न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना की पीठ ने पत्रकार सिद्दीक कप्पन के मामले में कहा था कि 'जीवन का अधिकार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अधिकार है, वह एक विचाराधीन कैदी को भी उपलब्ध है।' इसके बाद न्यायमूर्ति एसके कौल और एमएम सुरेश की पीठ द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय को दिया गया निर्देश भी उल्लेखनीय है, जिसमें कहा गया है कि उन दोषियों को जमानत देने पर विचार किया जाए, जिन्होंने कोई दूसरा अपराध नहीं किया है और चौदह वर्ष से अधिक की सजा काट चुके हैं।
हमारे आपराधिक कानूनों का आयाम लगातार बढ़ता जा रहा है और पारंपरिक अपराधियों के साथ सामाजिक और आर्थिक अपराधों की रोकथाम के लिए नित नए कानून भी बनते जा रहे हैं। चाहे वह बच्चों के लैंगिक अपराध का मामला हो, नशीले पदार्थों का मामला हो या फिर गैरकानूनी गतिविधियों का मामला, इन कानूनों का जिक्र विचाराधीन कैदियों के संदर्भ में करना इसलिए भी आवश्यक है कि ऐसे कानूनों में एक ओर अधिकतम सजा का प्रावधान है, तो वहीं न्यूनतम दंड का प्रावधान ऐसे अधिनियमों को और कठोर स्वरूप प्रदान करता है।
ऐसे में महत्त्वपूर्ण है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 (क) के प्रावधान को इन अधिनियमों के तहत विचाराधीन कैदियों पर लागू करने के लिए कठोर दिशा-निर्देश दिए जाएं। यह भी सोचना होगा कि यह एक ऐसी समस्या है जिसकी जड़ों में अनेक समस्याएं सह-उत्पाद के रूप में जन्म लेती रहती हैं।
कोबाड गांधी ने अपनी किताब में कहा था कि विचाराधीन कैदियों को होने वाली परेशानियां सिद्ध दोष अपराधियों से कहीं ज्यादा होती हैं, क्योंकि जेल सुधार और कैदियों के मानवाधिकारों के नाम पर जो कुछ किया जाता है वह सिर्फ सिद्ध दोष कैदियों के लिए होता है। विचाराधीन कैदी ऐसे लाभकारी प्रावधानों से वंचित रहते हैं।
यह बात दीगर है कि अगर ऐसे विचाराधीन कैदी की मौत हो जाती है तो मानवाधिकार आयोग क्षतिपूर्ति के आदेश अवश्य जारी करता है। यानी कहा जा सकता है कि एक व्यक्ति को अभियुक्त बना कर गिरफ्तार किए जाने के बाद और आपराधिक न्याय प्रशासन के समापन तक विचाराधीन कैदी की जो संज्ञा उसे मिलती है, उस पृष्ठभूमि में न्यायिक पहल की एक लंबी फेहरिस्त और मानवाधिकारों की दुहाई के लंबे इतिहास के बावजूद 'जमानत एक नियम के रूप में और जेल एक अपवाद के रूप में' तब्दील नहीं हो पा रहा है।
किसी अपराध की शिकायत प्राप्त होने पर न तो शिकायतकर्ता के प्रति पूर्वाग्रह होना चाहिए न ही आरोपित व्यक्ति के प्रति किसी प्रकार का दुराग्रह होना चाहिए। वास्तव में अभियुक्त, पीड़ित और समाज के हितों के बीच एक संतुलन की आवश्यकता है। जहां न्याय व्यवस्था दंडात्मक के बजाय उपचारात्मक आयामों पर ध्यान केंद्रित करे और पीड़ित की पहचान और पुनर्वासन को केंद्र में रखते हुए न्याय प्रशासन की ओर से पहल की जाए, ताकि परस्पर विरोधी हितों के बीच एक स्वस्थ संतुलन स्थापित हो सके और कारागार की कुछ मूलभूत समस्याओं मसलन अत्यधिक भीड़, सुनवाई में विलंब, स्वास्थ्य की अनदेखी और मानवाधिकारों की पहेली को सुलझाया जा सके।
सुनवाई में लगने वाले समय को कम करने का प्रयास हो, जज और जनता के अनुपात में सुधार हो, छोटे-छोटे अपराधों में कारावास के बजाय सामुदायिक सेवा जैसे विकल्पों का चयन किया जाए, ताकि न्याय की मूल संकल्पना प्राप्त हो सके।