सम्पादकीय

बेकाबू महंगाई

Subhi
14 May 2022 5:05 AM GMT
बेकाबू महंगाई
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अप्रैल में खुदरा महंगाई दर 7.8 फीसद हो गई। यह पिछले आठ साल में सबसे ज्यादा है। यह चिंताजनक इसलिए है कि महंगाई दर रिजर्व बैंक के निर्धारित छह फीसद के दायरे से पहले ही काफी ऊपर जा चुकी है।

Written by जनसत्ता: अप्रैल में खुदरा महंगाई दर 7.8 फीसद हो गई। यह पिछले आठ साल में सबसे ज्यादा है। यह चिंताजनक इसलिए है कि महंगाई दर रिजर्व बैंक के निर्धारित छह फीसद के दायरे से पहले ही काफी ऊपर जा चुकी है। हालांकि रिजर्व बैंक कहता रहा है कियह साल महंगाई की मार में ही गुजरेगा। सबसे ज्यादा दाम खाने-पीने के सामान के बढ़ रहे हैं।

रोजमर्रा के इस्तेमाल का सामान बनाने वाली कंपनियां उत्पादों के दाम बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहीं। गौरतलब है कि आटा पिछले एक साल में तेरह फीसद से ज्यादा महंगा हो गया है। साबुन, शैंपू जैसे उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली कंपनियों ने उत्पादों के दाम पंद्रह फीसद तक बढ़ा दिए हैं।

ऐसे में त्वरित उपभोग का सामान बनाने वाली कंपनियां कैसे पीछे रहतीं! मैगी, बिस्कुट, चाय, काफी जैसे खाद्य उत्पादों के दामों में खासा इजाफा हो रहा है। अप्रैल में भी खुदरा महंगाई इसीलिए बढ़ी है कि सब्जियां पंद्रह फीसद से ज्यादा और खाने के तेल सत्रह फीसद से ज्यादा महंगे हो गए। र्इंधन की कीमतें अपनी रफ्तार से बढ़ ही रही हैं। बीते महीने ईंधन के दामों में करीब ग्यारह फीसद का इजाफा हुआ है। ऐसे में खुदरा महंगाई कैसे नहीं बढ़ती?

महंगाई बढ़ने के पीछे जो कारण हैं, वे अभी भी वहीं हैं जो पिछले कई महीनों से चले आ रहे हैं। खुदरा महंगाई में सबसे ज्यादा आग पेट्रोल और डीजल के लगातार बढ़ रहे दामों ने लगाई है। अब तक यही कहा जा रहा है कि रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से कच्चा तेल महंगा है और इसका असर पेट्रोल-डीजल के दाम पर पड़ रहा है।

पेट्रोल-डीजल महंगा होने से माल ढुलाई भी बढ़ती जा रही है। जाहिर है, इसका सीधा असर आम आदमी की जेब पर पड़ रहा है। खाने की थाली से जुड़ी शायद ही कोई ऐसी चीज हो जो महंगाई की मार से अछूती हो। गुजरे दो साल में हल्दी के दाम करीब साठ फीसद तक बढ़ गए। मसाले पंद्रह से बीस फीसद महंगे हो गए। चावल के दाम में बीस फीसद से ज्यादा की तेजी आ गई।

यह भी गौर करने वाली बात है कि देश के अलग-अलग राज्यों में महंगाई भी अलग-अलग तरह से असर दिखा रही है। कुल मिला कर आम आदमी महंगाई के ऐसे दुश्चक्र में फंस गया है कि वह मुंहमांगा दाम देने को मजबूर है। देखा जाए तो उसके सामने इसके अलावा और चारा रह भी क्या गया है!

महंगाई के मामले में चिंताजनक बात यह भी है कि शहरों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में महंगाई के तेवर ज्यादा तीखे हैं। जहां शहरों में खुदरा महंगाई 7.8 फीसद रही, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह 8.38 फीसद दर्ज हुई। यह ज्यादा संकट की बात इसलिए भी है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के पास रोजगार नहीं है, आमद के स्रोत भी बेहद सीमित हैं, ऊपर से महंगाई की मार अलग।

वैसे तो शहरों में भी रोजगार और आमद का हाल कोई अच्छा नहीं है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि केंद्र और राज्यों की ओर से अब तक ऐसे कोई कदम उठते नहीं दिख रहे जो महंगाई पर लगाम लगा सकें। महंगाई के मुद्दे पर भी राजनीति ही देखने के मिल रही है। पेट्रोल-डीजल पर करों में कटौती को लेकर जिस तरह से केंद्र और राज्य एक दूसरे पर ठीकरे फोड़ते दिखते हैं, वह महंगाई की मार से कहीं ज्यादा पीड़ादायक है।

इससे पता चलता है कि आम आदमी के दर्द को लेकर सरकारें कितनी संवेदनहीन हैं। महंगाई को थामने के लिए रिजर्व बैंक ने नीतिगत दरें बढ़ाने का दांव तो चला है। लेकिन यह कितना कामयाब रहता है, इसका पता तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा।


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