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- लावारिस अफगानिस्तान!
आदित्य नारायण चोपड़ा: यह कितनी विचित्र बात है कि जिस अमेरिका ने नाटों फौजों के साथ अफगानिस्तान से 2001 में तालिबान शासन का सफाया किया था आज फिर से वही अमेरिका 20 साल बाद इस देश का शासन उन्हीं तालिबानों के हाथ में देने पर आमादा दिखाई पड़ता है। इससे सिद्ध होता है कि अमेरिका अफगानिस्तान में मानवाधिकारों की बहाली या इस देश में सभ्य शासन स्थापित करने नहीं गया था बल्कि केवल अलकायदा जैसे संगठन से अपना बदला लेने गया था। 2001 में न्यूयार्क के वर्ल्ड टावर पर हमला करने से पूर्व अलकायदा व जैश-ए-मोहम्मद व लश्करे तैयबा जैसे आतंकवादी संगठन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में दहशतगर्दी का तेजाब छिड़क रहे थे और निरीह नागरिकों की जान ले रहे थे। बेशक इन्हें पाकिस्तान का पूरा समर्थन प्राप्त था और इसकी सरजमी भारत जैसे दूसरे देशों में आतंकवाद फैलाने के लिए प्रयोग की जा रही थी। इसी वजह से अमेरिका ने पाकिस्तान को नाटो संगठन का मित्र देश बना कर अलकायदा के खिलाफ मुहीम भी छेड़ी मगर इसका परिणाम यह हुआ कि अलकायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान से ही पकड़ा गया। जाहिर है कि पाकिस्तान ने अपने कई बड़े शहरों में तहरीके तालिबान पाकिस्तान की नींव डाल कर तालिबानों की फसल को जिन्दा रखने की कोशिश की और दूसरी तरफ वह अमेरिका व नाटों देशों का सहयोगी भी बना रहा। अब जब नाटो व अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान से हट रही हैं तो पुनः पाकिस्तान ने तालिबान की हिमायत शुरू कर दी है । मगर इस बार गुणात्मक अन्तर यह आया है कि स्वयं अमेरिका ने तालिबान की ताजपोशी करने का सामान मुहैया कराया है। यदि गौर से देखें तो यह कहा जा सकता है कि अफगानिस्तान आज की तारीख में अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों का कब्रिस्तान बना हुआ है। अमेरिका ने आदमखोर तालिबानों के आगे निरीह अफगानी नागरिकों को छोड़ दिया है जिसकी वजह से रूस व चीन जैसे देश इस स्थिति में अपने हित तलाश रहे हैं। बाजाब्ता तौर पर किसी सरकार के अख्तियार में अफगानिस्तान के नागरिकों के न होने के बावजूद अमेरिका का यह फैसला भारतीय उपमहाद्वीप में अराजकता के साम्राज्य को दावत देने के अलावा दूसरा नहीं कहा जा सकता था। इस क्षेत्र की सबसे बड़ी शक्ति भारत की बहुत बड़ी जिम्मेदारी बन जाती है कि वह आतंकी ताकतों को रोकने के लिए सभी कूटनीतिक रास्तों का इस्तेमाल करे। भारत की विदेश नीति का यह शुरू से ही नियम रहा है कि यह किसी अन्य देश के लोगों की इच्छा को सर्वोपरि मानती आयी है। जब नेपाल में शाही तख्ता पलट हुआ था और वहां के राजा ने भारत से मदद की गुहार लगाई थी तो भारत ने साफ कह दिया था कि भारत वही चाहता है जो नेपाल की जनता चाहती है। भारत की संसद से अनेकों बार यह आवाज गूंजी है कि भारत किसी देश के आन्तरिक मामलों में दखल नहीं देता है और मानता है कि यह किसी भी देश की जनता का अधिकार है कि वह अपने लिए किस तरह का शासन पसन्द करती है। आज अफगानी नागरिक स्वयं को लावारिस स्थिति में पा रहे हैं क्योंकि विश्व की सबसे बड़ी शक्ति अमेरिका ने उनका साथ छोड़ दिया है और अपने नागरिकों को काबुल से निकालने की उसने अन्तिम तिथि 31 अगस्त घोषित कर दी है। राष्ट्रपति जो बाइडेन एेलान कर चुके हैं कि अमेरिका अनिश्चितकाल तक अफगानिसतान में नहीं रह सकता। उसका लक्ष्य अलकायदा जैसे संगठन को समाप्त करना था जो पूरा हो चुका है। अब अफगानियों को अपने देश की खुद हिफाजत करनी होगी क्योंकि यह उनका देश है। अमेरिका वहां कोई विकास करने नहीं गया था। मगर इस देश का इतिहास गवाह है कि 1973 तक जब तक इस मुल्क में सम्राट जहीर शाह का शासन था यह देश बहुमुखी तरक्की कर रहा था और यहां के पढे़-लिखे लोग आधुनिक जीवनशैली को अपना रहे थे। बेशक उस समय शहरी और ग्रामीण जीवन में बहुत बड़ा फासला था मगर मानवीय अधिकारों का सम्मान होता था । इसके बाद जब सोवियत संघ ने इस देश में प्रवेश किया तो उसने आनन-फानन में इसे कम्युनिस्ट देश में परिवर्तित करना चाहा जिसकी वजह से विभिन्न कबीलों में बंटे इस देश में सोवियत संघ के खिलाफ विद्रोह पनपा और तभी अमेरिका की मदद से इस मुल्क में मुजाहिदीन आन्दोलन शुरू हुआ जिसमें इस्लामी कट्टरपंथियों ने अपनी जगह बनाई और बाद में पाकिस्तान की मदद से इसका स्वरूप तालिबानी हुआ।संपादकीय :बाजार हुए गुलजार लेकिन...कश्मीर में हुर्रियत का चेहरासरकार का मिशन पाॅम ऑयल75 वर्ष बाद दलितों की स्थितितालिबान की हिमायत का 'कुफ्र'राखी प्यार का त्यौहार इन्हीं तालिबानों ने 1996 से लेकर 2001 तक इस देश को तहस-नहस कर डाला और पूरे मुल्क में आदमखोरी का एेसा राज स्थापित किया कि शरीया के नाम पर औरतों के साथ जानवरों से भी बदतर सुलूक किया गया। अब ये ही तालिबान फिर से काबुल के आका बन बैठे हैं जिनके खौफ से आम अफगानी घबरा रहा है। अफगानिस्तान में 65 प्रतिशत आबादी 20 साल के उम्र के लोगों की है जिन्होंने तालिबान का पिछला शासन नहीं देखा है। इसके साथ औसतन तालिबानी की उम्र भी 25 साल के नीचे बताई जाती है। 2000 से लेकर अब तक का दौर सूचना प्रौद्योगिकी की क्रान्ति का रहा है जिसकी वजह से तालिबानी भी सोशल मीडिया के प्रभाव से भली-भांति परिचित हैं। यही वजह है कि वे खुद को बदला हुआ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं मगर उसकी कट्टरपंथी-जेहादी जहनियत में कोई फर्क नहीं आया है। दूसरी वजह यह भी है कि खुद को काबुल में तालिबान काबिज करके पूरे मुल्क के निजाम को तब तक नहीं चला सकते जब तक कि उनके पास पर्याप्त आर्थिक स्रोत न हों । यही वजह है कि पाकिस्तान की सलाह पर ये कट्टरपंथी दुनिया के सामने अपना चेहरा उदारवादी दिखाना चाहते हैं। यह हकीकत भारत अच्छी तरह जानता है क्योंकि पिछले तीस साल से वह आतंकवाद को झेल रहा है। अतः रूस व चीन को कूटनीतिक तौर-तरीकों से उसे सही रास्ता दिखाने की कोशिशें करनी पड़ेंगी और इसके साथ ही अफगानिस्तान से लगते पूर्व सोवियत देशों को भी सचेत करना पड़ेगा। 26 अगस्त को नई दिल्ली में अफगानिस्तान मुद्दे पर जो सर्वदलीय बैठक बुलाई गई है उसमंे इस नुक्ते से भी गौर किया जाना चाहिए।