सम्पादकीय

काबुल पर अनिश्चितता कायम

Rani Sahu
12 Nov 2021 7:39 AM GMT
काबुल पर अनिश्चितता कायम
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अफगानिस्तान की जो कहानी करीब चार दशक पहले तत्कालीन सोवियत संघ की फौज के आने के साथ शुरू हुई थी

राजीव डोगरा अफगानिस्तान की जो कहानी करीब चार दशक पहले तत्कालीन सोवियत संघ की फौज के आने के साथ शुरू हुई थी, उसकी पटकथा भले बदलती रही, लेकिन भूमिका एक ही है। पाकिस्तान आग का एक दरिया है और अफगानिस्तान के लिए इसमें से डूबकर जाना है। फिर चाहे वह अमेरिका हो, चीन हो, भारत या अन्य कोई देश। अफगानिस्तान के मामले में तमाम मुल्कों के लिए पाकिस्तान या तो रास्ते का पत्थर है या वह राह देता भी है, तो अपनी शर्तों पर। दुनिया इस मसले का समाधान अब तक ढूंढ़ नहीं पाई है। ऐसे में, 10 नवंबर को दिल्ली में, और 11 नवंबर को इस्लामाबाद में अफगानिस्तान मसले पर जो बैठकें हुईं, उनके अलग-अलग पहलू स्वाभाविक थे, पर मकसद समान था कि अफगानिस्तान अब जिस दिशा में जा रहा है, उसका समाधान क्या है?

पहले चर्चा दिल्ली में हुई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बैठक की। इसमें अमेरिका, चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे अहम देश शामिल नहीं हुए। मगर जो दुखियारे राष्ट्र थे और जिनको लग रहा था कि काबुल के बदलते घटनाक्रम का उन पर नकारात्मक असर पड़ेगा, वे सभी एकजुट हुए। इस बैठक के दो आयाम हैं। पहला, तमाम राष्ट्र अफगानों को मानवीय मदद पहुंचाने के हिमायती हैं। काबुल से यही खबरें आ रही हैं कि वहां बच्चों तक को खाना नहीं मिल पा रहा और परिवार असहाय हैं। इनको मदद पहुंचाने को लेकर बैठक में शामिल सभी राष्ट्र एकमत हैं।
बैठक की दूसरी वजह थी, क्षेत्रीय सुरक्षा। आज अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के अधीन जो कुछ हो रहा है, वह सुखद नहीं है। हालांकि, इसे तालिबानी नहीं, हक्कानी शासन कहना ज्यादा उचित होगा, और यह सभी जानते हैं कि हक्कानी पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का अभिन्न अंग है। आईएसआई के अफसरान अफगानिस्तान में सुरक्षा से जुड़े तमाम विभागों से जुड़े हैं। नंगरहार प्रांत में तो जमात-उद-दावा के रंगरूटों को ट्रेनिंग भी दी जा रही है, जिनका निशाना कौन-कौन होगा, यह कोई अबूझ पहेली नहीं है। भारत तो स्वाभाविक तौर पर केंद्र में होगा, लेकिन ताजिकिस्तान भी 90 के दशक में तालिबान को भुगत चुका है। उज्बेकिस्तान को लेकर रूस की अपनी चिंताएं हैं। इस बदलते घटनाक्रम से नशे की तस्करी में इजाफा होने की आशंका भी मास्को को परेशान कर रही है।
रही बात, गुरुवार को पाकिस्तान में हुई बैठक की, तो इसमें अफगानिस्तान मसले से जुड़े तमाम खिलाड़ियों ने शिरकत की। चीन और रूस का बैठक में शामिल होना समझा जा सकता है, लेकिन अमेरिकी प्रतिनिधि का इस्लामाबाद पहुंचना समझ से परे है। तब तो और, जब अफगानिस्तान की दो दशक लंबी जंग में पाकिस्तान के कारण ही अमेरिकी फौज को हार का मुंह देखना पड़ा हो। बेशक ह्वाइट हाउस न चाहता हो कि 'दिल्ली डायलॉग' में वह ईरान के सामने आए, लेकिन कम से कम भारत के पक्ष में एक बयान तो जारी कर ही सकता था। नई दिल्ली हमेशा से अमेरिका की तरफदारी करती रही है, जबकि इस्लामाबाद उसके साथ परोक्ष जंग में भी मुब्तिला रहा। बावजूद इसके, अमेरिका ने पाकिस्तान से दोस्ती और भारत से दूरी का परिचय दिया। उसके इस रुख का अफगानिस्तान पर आगे क्या असर होगा, इसका पता तो बाद में चलेगा, लेकिन इसी कूटनीति ने अफगानिस्तान में उसकी लुटिया डुबोई है।
अफगानिस्तान के मामले में पाकिस्तान किस तरह से दुनिया को गुमराह कर रहा है, इसका एक ज्वलंत उदाहरण पिछले दिनों दिखा। दरअसल, भारत ने वहां 50 हजार टन गेहूं और मेडिकल सप्लाई भेजनी चाही थी, लेकिन पाकिस्तान ने ट्रकों को रास्ता नहीं दिया। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान अफगानिस्तान को राहत पहुंचाने की झूठी वैश्विक अपील कर रहे हैं। अगर उनकी कथनी और करनी एक होती, तो वह बेबस अफगान नागरिकों की मदद की भारतीय कोशिशों में रुकावट नहीं पैदा करते।
इस्लामाबाद बैठक के भी दो पक्ष हैं। एक पहलू तो विशुद्ध राजनीतिक है। पाकिस्तान और चीन की मंशा यही है कि तालिबान की नई सरकार की नीतियां उनके अनुकूल हों। चीन के शिनजियांग प्रांत के उइगर अलगाववादी अफगानिस्तान में पनाह पाते रहे हैं। चीन चाहता है कि तालिबान सरकार में ऐसा कतई न होने पाए। पाकिस्तान की चिंताएं आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान को लेकर है, जिसे तालिबान से मदद मिल सकती है।
इस बैठक का दूसरा मकसद अफगानिस्तान पर नियंत्रण हासिल करना है। पाकिस्तान को यह डर भी है कि उसके यहां कहीं अफगान शरणार्थियों की आमद न बढ़ जाए। चूंकि पश्तून पाकिस्तान में आकर दुखी हैं। ऐसे में, अगर और शरणार्थी यहां आ गए, तो पाकिस्तान के लिए सुरक्षा का मसला खड़ा हो सकता है।
लिहाजा, सवाल यह है कि दिल्ली और इस्लामाबाद की बैठकों के बाद आखिर होगा क्या? पाकिस्तान पर न दुआ का असर होता है, न दवा का। अफगान नागरिकों पर हो रहे जुल्म से भी वह पसीज नहीं रहा है। वह खुद आग का दरिया बना हुआ है और दूसरों को भी उसमें बार-बार झुलसाता रहता है। यहां हमें इतिहास से भी थोड़ा सबक लेना चाहिए। 1947 में भारत के बंटवारे के साथ अंग्रेज पाकिस्तान के रूप में हमारे लिए ऐसी नकेल छोड़ गए, जो बार-बार हमें चुभती रही है। पाकिस्तान के साथ हमारी जो समस्या है, वह अब अफगानिस्तान के साथ भी पैदा हो सकती है। बताते हैं कि अफगानिस्तान में 70-75 हजार तालिबानी काडर हैं और तीन लाख के करीब अफगान सुरक्षा बल के जवान। चूंकि अफगानिस्तान को अपनी सुरक्षा के लिए बमुश्किल 50-60 हजार सैनिकों की ही जरूरत होगी। ऐसे में, तालिबानी लड़ाके और अफगान फौजी बेरोजगार हो जाएंगे या फिर आईएसआई के खिलौने। आईएसआई इनको भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है। इसलिए, अफगानिस्तान का बदलता घटनाक्रम भारत के लिए काफी अहम है। यह बदलाव क्षेत्र को कितना अस्थिर करेगा, इसका फिलहाल ठीक-ठीक विश्लेषण नहीं किया जा सकता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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