सम्पादकीय

दवाओं का बेलगाम कारोबार, इनकी मार्केटिंग को विनियमित करने की सख्त आवश्यकता

Rani Sahu
24 Aug 2022 6:02 PM GMT
दवाओं का बेलगाम कारोबार, इनकी मार्केटिंग को विनियमित करने की सख्त आवश्यकता
x
सोर्स- जागरण
डा. अजय खेमरिया : भारत में दवाओं का कारोबार जनता के शोषण का माध्यम बन गया है। एकीकृत स्वास्थ्य नीति का अभाव इस शोषण को बढ़ाने वाला कारक है। 140 करोड़ की आबादी वाले देश में दवा और सहायक उपकरणों के कारोबार को नैतिकता के धरातल पर विनियमित करने का कोई कानूनी तंत्र आज तक विकसित नहीं हो सका है। नतीजतन जनता का आर्थिक शोषण तो जारी है ही, अनावश्यक दवाओं के सेवन का सिलसिला भी बढ़ रहा है।
सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका के जरिये डाक्टरों एवं दवा कंपनियों के जिस अनैतिक गठबंधन पर इन दिनों देश भर में चर्चा छिड़ी है, वह कोई नया मामला नहीं है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि एक कंपनी ने डोलो 650 एमजी गोली की बिक्री बढ़ाने के लिए डाक्टरों को एक हजार करोड़ रुपये की रिश्वत दी। अकेले कोरोना काल मे डोलो 650 एमजी की करीब 350 करोड़ गोलियां बेची गईं। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई कर रहे जज डीवाई चंद्रचूड़ ने खुद कहा कि कोविड के दौरान डाक्टर ने उन्हें भी इसी गोली की सलाह दी थी।
स्पष्ट है कि डोलो की रिकार्ड बिक्री सामान्य कारोबारी उछाल नहीं थी। सवाल अकेले डोलो 650 एमजी का नहीं, बल्कि देश में दवा कारोबार के विनियमन का है। सरकार के पास इस संबंध में कोई समावेशी नीति है ही नहीं। ऐसा क्यों है? इसे करीब दो लाख करोड़ से ज्यादा के दवा एवं उपकरण कारोबार के अंतर्निहित हितों के आलोक में भी समझने की आवश्यकता है। केवल डाक्टरों पर सवाल उठाकर हम इस संवेदनशील मामले को सतही बनाने की ही कोशिश कर रहे हैं। सवाल केवल डाक्टरों के नैतिक पक्ष का नहीं, सरकार की नीतियों का है।
देश में दवा कारोबार नियंत्रण एवं नियमन का काम डिपार्टमेंट आफ फार्मास्युटिकल के अधीन है। यह रसायन मंत्रालय के अंतर्गत काम करता है। एक अन्य निकाय है राष्ट्रीय औषधि मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण, लेकिन वह दंडात्मक शक्तियों से विहीन है। दवा मूल्य नियंत्रण के लिए असल में कोई एकीकृत कानूनी व्यवस्था ही नहीं है। औषधि एवं सौंदर्य प्रसाधन कानून, 1940 के तहत इस कारोबार को विनियमित किया जाता है। कानूनी स्थिति यह है कि फार्मा महकमा बेसिक दवाओं के दाम निर्धारित करता है। दवा कंपनियां इन बेसिक दवाओं में एक दो अतिरिक्त साल्ट जोड़कर नया ब्रांड बाजार में पेश कर देती हैं और उसकी मनमानी कीमत वसूलती हैं।
एक और अस्पष्ट पक्ष यह है कि सरकार के निकाय केवल 500 एमजी तक की दवा के दाम तय करते हैं, उससे ऊपर नहीं। माना जाता है कि डोलो बनाने वाली कंपनी ने इसी प्रविधान का फायदा उठाकर 650 एमजी की नई रेंज बाजार में उतारी। 500 एमजी की एक स्ट्रिप 2013 में 5.10 रुपये की थी, जबकि आज 650 एमजी की कीमत 30.91 रुपये है। आरोप यह भी है कि 650 एमजी डोलो का बुखार या बदन दर्द में 500 एमजी से अधिक कारगर होने के कोई साक्ष्य मेडिसिन टेक्स्ट बुक में नहीं पाए गए।
नई चिकित्सकीय आचार संहिता, 2002 डाक्टरों को दवा कंपनियों से रिश्वत, उपहार या अन्य आदान-प्रदान प्रतिबंधित करती है, लेकिन हजारों करोड़ का कारोबार करने वाली कंपनियां इन कृत्यों के लिए जवाबदेही से बची हुई हैं। दवा निर्माण क्षेत्र के लिए यूनिफार्म कोड आफ फार्मास्युटिकल मार्केटिंग प्रैक्टिस, 2015 से बनी हुई है, लेकिन यह संहिता कानूनन बाध्यकारी नहीं है। यानी दवा कंपनियों को अपने उत्पाद बेचने के लिए हर तरह की छूट मिली है। स्थिति का अदांजा इससे लगाया जा सकता है कि जनवरी 2019 में कर्नाटक के सांसद केसी राममूर्ति ने जब राज्यसभा में ऐसी कंपनियों की जानकारी मांगी, जो अनैतिक काम करती हैं तो स्वास्थ्य मंत्री ने सिर्फ इतना जवाब दिया कि औषधि विभाग को कुछ कंपनियों के विरुद्ध शिकायतें प्राप्त हुई हैं।
14 फरवरी, 2019 को एक आरटीआइ के जवाब में औषधि विभाग ने 20 कंपनियों की सूची दी, लेकिन इनके विरुद्ध क्या कारवाई हुई, इसकी कोई जानकारी नहीं। सच्चाई यह है कि देश में दवा कारोबारियों और चिकित्सकों के बीच कदाचारी रिश्तों पर एकतरफा कानून लागू हैं, जो कंपनियों के पक्ष में हैं। बेहतर होगा दवा कारोबार को विनियमित करने के लिए इसे स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन लाया जाए। एक एकीकृत रूप से सख्त कानून अमेरिका, जर्मनी की तर्ज पर बनाए जाने की भी आवश्यकता है। 2009 में जानसन एंड जानसन को 2.2 अरब डालर, 2013 में फाइजर को 2.3 अरब डालर, 2014 में गैलेक्सो स्मिथक्लाइन को तीन अरब यूरो का जुर्माना भरना पड़ा। इसी तरह 2018 में फाइजर पर लाखों डालर का जुर्माना अनैतिक कारोबारी गतिविधियों पर लगाया जा चुका है। भारत में ऐसा इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि फार्मा कंपनियों के विरुद्ध ऐसे कोई कानून ही नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन जनहित याचिका के मुताबिक देश की सात बड़ी दवा कंपनियों ने पिछले आठ साल में 34,186 करोड़ रुपये तो केवल अपने उत्पादों की मार्केटिंग पर खर्च किया। एक आंकड़े के अनुसार एक वर्ष में लगभग 42 हजार करोड़ रुपये की दवाएं रिटेल काउंटर से बेची जाती हैं, जिनमें अधिकतर गैर जरूरतमंद और उपचार के लिए असंगत श्रेणी की होती हैं। साफ है कि दवा कंपनियों से जुड़ी मार्केटिंग को विनियमित करने के लिए आचार संहिता को बाध्यकारी बनाए जाने की सख्त आवश्यकता है।
दवाओं के साथ सहायक मेडिकल उपकरणों के दाम भी विनियमित किए जाने का प्रामाणिक निकाय निर्मित किया जाना चाहिए। वर्तमान में लगभग 80 प्रतिशत दवाइयां मूल्य नियंत्रण के कानूनी दायरे से बाहर हैं। इसे हृदय में उपयोग किए जाने वाले स्टेंट की कीमतों से समझा जा सकता है, जिनकी कीमतें 2017 में नियंत्रित की गईं। कोरोना काल में पल्स मीटर, आक्सीमीटर, कंसंट्रेटर, ग्लूको मीटर 709 प्रतिशत अधिक दामों पर बेचे जा रहे थे। जिन्हें 70 प्रतिशत मुनाफे तक लाया गया। वस्तुतः स्वास्थ्य सुविधाओं की कीमत तय करने में मूल्य निर्धारण व्यवस्था और बाजार की भूमिका को ईमानदारी से विश्लेषित किए जाने की आवश्यकता है।
Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story