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मोनिका शर्मा: इस सूची में काम का अत्यधिक बोझ, नकारात्मक व्यवहार, भेदभाव और कार्यस्थल पर तनाव को कर्मचारियों की मन:स्थिति के लिए तकलीफदेह बताया गया है। अनुमान है कि मानसिक अवसाद और बेचैनी के कारण हर वर्ष विश्व अर्थव्यवस्था को करीब एक हजार अरब डालर का नुकसान पहुंचता है। साथ ही इससे कामकाजी लोगों के व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में असंतुष्टि, व्यग्रता और अलगाव पैदा होता है।
खराब मानसिक स्वास्थ्य किसी भी व्यक्ति के प्रदर्शन और उत्पादकता पर नकारात्मक असर डालता है। कोविड काल के बाद कामकाजी दबाव और रोजगार से जुड़ी चिताएं दुनिया के हर कोने में बढ़ी हैं। इस आपदा के बाद बेचैनी और मानसिक अवसाद के मामलों में पच्चीस फीसद की वृद्धि हुई है। हालात ऐसे हो चले हैं कि पहली बार यूएन स्वास्थ्य एजेंसी ने प्रबंधकों के प्रशिक्षण की सिफारिश कर कामगारों के लिए तनावपूर्ण माहौल पर लगाम लगाने की बात कही है।
दुनिया के हर हिस्से में अवसाद और तनाव का घेरा हर आयुवर्ग के कामकाजी लोगों के जीवन की सहजता में बाधा बन रहा है। जून 2022 में प्रकाशित वर्ल्ड मेंटल हेल्थ रिपोर्ट के अनुसार कामकाजी लोगों में पंद्रह फीसद वयस्कों को मानसिक समस्या का सामना करना पड़ रहा है। हमारे देश के परिप्रेक्ष्य में एसोचैम की एक रिपोर्ट बताती है कि निजी और सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले करीब 42.5 फीसद कर्मचारी अवसाद का शिकार हैं। समझना मुश्किल नहीं है कि कार्यस्थल पर दबाव झेल रही उनकी मन:स्थिति सामाजिक और पारिवारिक मोर्चे पर भी सहज जीवन में बाधा बन रही है।
कुछ समय पहले गोदरेज कंपनी द्वारा भारत के तेरह शहरों में करवाए गए एक सर्वे में 68.2 फीसद लोगों ने माना था कि वे अपनी शर्तों पर जिंदगी नहीं जी पा रहे हैं, न अपने परिवार को समय दे पाते हैं। उनका कहना था कि कामकाज की भागदौड़ और जिंदगी में संतुलन ही नहीं बचा है। गौरतलब है कि उन्हें सप्ताह के छह दिन बारह घंटे काम करना पड़ता है। ध्यातव्य है कि चीन की बड़ी तकनीकी कंपनियों और स्टार्टअप में यह कार्य संस्कृति आम है। हमारे यहां भी निजी कंपनियों की कार्य संस्कृति कुछ ऐसी ही है। यह देखने में बहुत सहज और सुविधाजनक लगती है, पर युवा इस आपाधापी के परिवेश का तनाव नहीं झेल पा रहे हैं।
अध्ययन बताते हैं कि निजी क्षेत्र में मिलने वाले कामकाजी दबाव के चलते तीस से चालीस वर्ष के लोगों में उच्च रक्तचाप, मधुमेह, मानसिक व्यग्रता और दिल की बीमारियां बढ़ी हैं। इसकी वजह यह भी कि कर्मचारियों में काम का तनाव बहुत बढ़ गया है, पर शारीरिक गतिविधियों में कमी आई है।
इजराइल के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक मधुमेह होने और बढ़ने का संबंध कार्यस्थल के तनाव से जुड़ा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सामाजिक सहायता के अभाव में ऐसी बीमारियों का खतरा और बढ़ जाता है। तेल अवीव विश्वविद्यालय के 'जर्नल आफ आक्यूपेशनल हेल्थ एंड साइकालजी' के अनुसार सामाजिक सहायता की कमी और कार्यस्थल पर अत्यधिक तनाव के चलते स्वस्थ कर्मचारियों में भी आगे चल कर इस रोग के होने की आशंका है।
यानी दफ्तरों में कामकाज के माहौल और कर्मचारियों की मानसिकता का सीधा संबंध है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने अपनी अनुशंसाओं में इन्हीं स्थितियों के निपटने की बात कही है। आमतौर पर कार्यस्थल पर कर्मचारियों की मन:स्थिति को प्रभावित करने वाले कामकाजी दबाव की गंभीरता को समझा ही नहीं जाता, जबकि भावनात्मक रूप से परेशान करने वाली ऐसी तनावजन्य परिस्थितियां जीवन के हर पहलू पर असर डालती हैं।
बावजूद इसके, केवल पैंतीस फीसद देशों में कामकाज संबंधी मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के सिलसिले में राष्ट्रीय कार्यक्रम बने हुए हैं। यही वजह है कि यूएन श्रम एजेंसी ने बाकायदा नीतिपत्र जारी कर सरकारों, नियोक्ताओं, कामगारों और निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में उनके संगठनों के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के इन दिशानिर्देशों की जानकारी पहुंचाई है।
यूएन श्रम एजेंसी द्वारा जताई जा रही चिंता विशेष रूप से उन पेशों से जुड़े लोगों की भी है, जो दूसरों का जीवन सहेजने के क्षेत्र से जुड़े हैं। यही वजह है कि यूएन विशेषज्ञों द्वारा अनुशंसित दिशा-निर्देशों में विशेष रूप से स्वास्थ्य कर्मियों, मानवीय राहत कर्मियों और आपात कर्मियों की रक्षा सुनिश्चित करने के उपायों की बात की गई है। कोरोना आपदा में वैश्विक स्तर पर ऐसे लोगों की भूमिका और जद्दोजहद लोगों ने गहराई से महसूस की।
खासकर दूसरी लहर में चिकित्सा कर्मियों की मन:स्थिति गहराई से प्रभावित हुई थी। उस दौरान काम के घंटों का बढ़ना, परिजनों से दूरी, खुद के संक्रमित होने की चिंता और मरीजों के परिजनों के दुर्व्यवहार जैसी कई बातें उनके लिए तकलीफदेह स्थितियां बनाने वाली रहीं। आम दिनों में भी कई बार सीमित संसाधनों में जीवन सहेजने की स्थितियां चिकित्सकों के मानसिक तनाव को बढ़ाने वाली साबित होती हैं। ऐसे में तनाव और अवसाद के घेरे से इन लोगों को भी बचाना आवश्यक है।
भारत में भी कामकाजी लोगों में अवसाद के आंकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में अवसादग्रस्त लोगों की संख्या छत्तीस फीसद है। आज के दौर में बदलती जीवनशैली, रोजगार के मोर्चे पर असुरक्षा और सामाजिक-पारिवारिक जीवन में बढ़ रही दिखावापरक सोच न केवल मन का सुकून छीन रही है, बल्कि घुटन और अकेलेपन की ओर भी धकेल रही है। नतीजतन, दुनिया के सबसे युवा देश कहे जाने वाले हमारे देश में युवाओं की आत्महत्या के आंकड़े डराने वाले हैं।
देश में आत्महत्या करने वाले लोगों में अधिकतर पंद्रह से पैंतीस आयु वर्ग के लोग हैं। इनमें एक बड़ा प्रतिशत ऐसे युवाओं का है, जो शिक्षित, जागरूक और कामयाब हैं। आजाद, सफल और स्वस्थ जिंदगी जी रहे हैं। मगर कामकाजी दबाव इस उम्र के लोगों में सबसे ज्यादा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक बंगलुरु में आत्महत्या करने वालों की संख्या देश में सबसे अधिक है। अकेलापन और अवसाद इसके बड़े कारण हैं।
दरअसल, प्रतिद्वंद्विता के इस दौर में कामकाज का बढ़ता बोझ, सब कुछ जुटाने की आपाधापी, कर्मचारियों के प्रति संस्थानों में तनाव पैदा करने वाला परिवेश और वरिष्ठ अधिकारियों का बर्ताव आदि कर्मचारियों के लिए भावनात्मक और मानसिक रूप से पीड़ादायी होते हैं। अध्ययन बताते हैं कि हमारे यहां पचास पीसद लोग अपनी नौकरी से संतुष्ट नहीं हैं।
अपने कामकाजी परिवेश में असहज महसूस करते हैं। कुछ समय पहले आई संगठन ओप्टम की सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार देश में लगभग आधे कर्मचारी तनाव के दुश्चक्र में फंसे हैं। गौरतलब है कि सत्तर बड़ी कंपनियों के लगभग आठ लाख कर्मचारियों को लेकर किए गए इस सर्वेक्षण में सामने आया था कि काम, पैसा और परिवार कामकाजी वर्ग में तनाव के प्रमुख कारण हैं। निस्संदेह, जीवन से जुड़े ऐसे सभी पहलू कामकाजी वर्ग की उत्पादकता और प्रदर्शन पर भी नकारात्मक असर डालते हैं।
यही वजह है कि कर्मचारियों में बढ़ता तनाव नियोक्ताओं के लिए फिक्र का विषय है। हमारे यहां भी करीब दो-तिहाई नियोक्ता अपने कर्मचारियों के तनाव और मानसिक स्वास्थ्य से निपटने की कारगर रणनीति बनाने के लिए सक्रिय हैं। बावजूद इसके, कामकाजी वर्ग में बढ़ता तनाव चिंतनीय बना हुआ है। ऐसे में कामकाजी और सामाजिक-पारिवारिक जीवन में संतुलन आवश्यक है।