सम्पादकीय

कृषि कानूनों से बेफिक्र मध्य प्रदेश के किसान सड़क की जगह खेतों में डटे रहे

Gulabi
14 Dec 2020 1:15 PM GMT
कृषि कानूनों से बेफिक्र मध्य प्रदेश के किसान सड़क की जगह खेतों में डटे रहे
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दिल्ली में किसानों का आंदोलन सुर्खियों में है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। Agriculture Reform Bill 2020 दिल्ली में किसानों का आंदोलन सुर्खियों में है। पंजाब, हरियाणा सहित कई प्रदेशों के किसान देश की राजधानी के बाहर डेरा जमाए हुए हैं। लगभग सभी विपक्षी दल उनका समर्थन कर रहे हैं। वे कृषि कानून को वापस लेने की मांग कर रहे है, जबकि केंद्र सरकार ऐसा करने से इन्कार कर रही है। उसके अपने तर्क हैं। किसान आंदोलन के नाम पर देश के दूसरे राज्यों में जहां गरमाहट है, वहीं मध्य प्रदेश में सन्नाटा है। किसान अपने काम में व्यस्त हैं। दिल्ली के किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाले बड़े चेहरों में एक राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के अध्यक्ष शिवकुमार शर्मा कक्काजी मध्य प्रदेश के हैं। उनके खाते में वर्ष 2011 में भोपाल का ऐतिहासिक महाजाम आंदोलन शामिल है, लेकिन इस बार दिल्ली आंदोलन की धमक से मध्य प्रदेश के किसान बेफिक्र हैं। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि दिल्ली आंदोलन में कक्काजी की उपस्थिति के बावजूद आखिर मध्य प्रदेश में सन्नाटा क्यों है?

दरअसल, प्रदेश में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान, बाजरा, ज्वार की खरीद चल रही है। किसान अपनी उपज बेचने और नई फसल की देखरेख में जुटा है। इसके पीछे राज्य सरकार की वह अनूठी पहल है जो किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिला रही है। यह कोई पहला अवसर नहीं है जब प्रदेश में समर्थन मूल्य पर जमकर खरीद हो रही है। कुछ ही माह पहले मध्य प्रदेश 130 लाख टन गेहूं खरीद का रिकॉर्ड बनाकर पंजाब को पीछे छोड़ चुका है। ऐसा नहीं है कि यह स्थिति एकाएक निíमत हुई है। एक समय ऐसा भी था जब कृषि के मामले में मध्य प्रदेश काफी पिछड़ा था। सरकारों का ध्यान इस ओर कम ही था। पहली बार इस स्थिति में रणनीतिक बदलाव की शुरुआत हुई शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने के बाद। उन्होंने राज्य के विकास का खाका खींचते समय कृषि को अपनी सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में रखा। लगातार एक के बाद एक योजना के माध्यम से कृषि क्षेत्र पर ध्यान दिया गया, जिसका परिणाम है कि मध्य प्रदेश को लगातार सात बार देश का प्रतिष्ठित कृषि कर्मण अवॉर्ड मिल चुका है।

ऐसा नहीं है कि मध्य प्रदेश में पहले कभी किसानों ने आंदोलन न छेड़ा हो। यहां भी किसान अपनी समस्याओं को लेकर मुखर होते रहे हैं। उपज का वाजिब दाम नहीं मिलने पर वर्ष 2017 में मंदसौर आंदोलन समूचे देश के लिए एक नजीर है, जब भोपाल, देवास, रतलाम, होशंगाबाद, नीमच से लेकर राज्य के विभिन्न अंचलों के किसान सड़कों पर उतर आए थे। आंदोलन इतना प्रबल था कि किसानों ने गांवबंदी के माध्यम से सब्जी-दूध तक शहर भेजना बंद कर दिया था। आंदोलन इस स्थिति में पहुंच गया था कि गोली चलाने की नौबत आ गई, जिसमें छह किसानों की मौत हो गई थी। इसके पहले 1998 में दिग्विजय सरकार के समय मुलताई में नष्ट हुई सोयाबीन की फसल के मुआवजा की मांग को लेकर किसानों पर गोली चली थी। इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता भी कक्काजी ही थे। भोपाल में वर्ष 2011 में भी किसान आंदोलन हुआ था जिसमें किसानों ने राजधानी को चारों ओर से घेर लिया था। राज्य सरकार को झुकना पड़ा था। मध्य प्रदेश के इतिहास में ऐसा आंदोलन पहले कभी नहीं हुआ था, लेकिन कृषि कानून के खिलाफ इस बार जब किसान संगठनों ने बंद का आह्वान किया तो मध्य प्रदेश के किसान सड़क की जगह खेतों में डटे रहे।

दरअसल, प्रदेश में सरकार ने कोरोना काल में गेहूं, चना, मूंग, उड़द, धान और चना के बाद हरड़, बहेड़ा, चिरोंजी के साथ लघु वनोपज खरीद की जो व्यवस्था बनाई, वह किसानों को भरोसा दिलाती है कि यहां उनके हित सुरक्षित हैं। यह एकाएक नहीं हुआ। इसकी बुनियाद शिवराज सरकार के पहले कार्यकाल में रखी गई थी। सिंचाई क्षमता आठ लाख हेक्टेयर से बढ़ाकर 42 लाख हेक्टेयर करना, खाद-बीज की उपलब्धता सुनिश्चित कराने के लिए अग्रिम भंडारण की योजना लागू करने की व्यवस्था ने किसानों को भरोसा बढ़ाया।

मध्य प्रदेश में 67 फीसद किसान छोटी जोत वाले अर्थात अधिकतम दो हेक्टेयर भूमि वाले हैं। पानी और बिजली की उपलब्धता के कारण किसान तीसरी फसल भी लेने लगे हैं। कई इलाकों में किसानों ने तो पथरीली जमीन को उपजाऊ बनाकर एक साथ पांच फसल लेने का करिश्मा कर दिखाया है। इससे किसान की आय भी बढ़ी है। छोटे-छोटे किसान भी अब फूल और फलों की खेती की ओर अग्रसर हैं। केंद्र सरकार के कृषि कानूनों से पहले मध्य प्रदेश में मंडी अधिनियम में संशोधन करके किसानों को खेत, खलिहान या घर से ही व्यापारियों को फसल बेचने की सुविधा दी गई थी। इन सबका फायदा किसानों को मिला है।



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