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By: divyahimachal
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अवलोकन में हिमाचल विधानसभा की पटरी पर दौड़ रहे ख्वाब और शिलान्यास-उद्घाटनों के महाकुंभ में जीतने के जुबान कह रही है, अर्ज किया है। देश के प्रधानमंत्री अगर बार-बार आकर कह रहे हैं कि अर्ज किया है, तो इस बानगी में नशा है। भाजपा जीतने के नशे में अगर कार्यकर्ताओं की जमात है, तो सर्वोच्च शिखर पर बैठे मोदी का जज्बा और जोश भी कमाल का है। आज सुबह की किरणों को ऊना पकड़ रहा है, तो दोपहर की रोशनी में चंबा अपनी दूरी मिटा रहा है। चंबा में प्रधानमंत्री का आगमन पहले से निर्धारित था, लेकिन ऊना का पड़ाव एक अलग व महत्त्वपूर्ण कहानी बन रहा है। चुनाव की अंतिम निगाहों में ऊना पर दृष्टि डाल कर कम से कम यह बता दिया कि सांसद अनुराग ठाकुर की हैसियत कितनी है। यह इसलिए भी क्योंकि हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में बिलासपुर के बाद ऊना में प्रधानमंत्री का आगमन, उन आंकड़ों की बेहतरी है जिन्हें करीने से सजाने में अनुराग के सपने मुस्करा रहे हैं। बल्क ड्रर्ग पार्क के साथ-साथ ऊना-हमीरपुर रेलवे लाइन की आस में लिखे जा रहे शिलालेख बता रहे हैं कि डबल इंजन के मायनों में हिमाचल की भौगोलिक प्राथमिकताएं क्या हैं।
जाहिर है बड़ी परियोजनाओं के साथ हिमाचल के नेताओं का कद भी दुरुस्त हो रहा है और एक तरह से प्रदेश के स्वीकृत अध्यायों में इनका प्रभाव भी दर्ज हो रहा है। चुनाव बता रहे हैं कि भाजपा की दृष्टि और दृष्टिकोण में राजनीति की भुजाएं किस दिशा में कौन सा इशारा कर रही हैं। ऐसे में जब हर जिले का वृतांत मुकाबला करेगा, तो विकास के ईंट और पत्थर बताएंगे कि इस युद्ध में वे कहां जीते-कहां हारे। जाहिर है वर्तमान परिस्थितियों के उत्तराद्र्ध में कांगड़ा जिला की सारी अपेक्षाएं या तो ध्वस्त हो गईं या यहां के नेताओं के सामथ्र्य में इतनी क्षमता नहीं कि कम से कम पिछली सरकार के प्रयत्नों को ही गंभीरता से आगे ले जाते। कुल पंद्रह विधानसभा क्षेत्रों के बावजूद कांगड़ा के काम कोई पैगाम नहीं आया। न कांगड़ा एयरपोर्ट के विकास का खाका बना और न ही केंद्रीय विश्वविद्यालय के निर्माण को ईंटें मिलीं। पौंग बांध विस्थापितों के डेरों में सेंध मारता विस्थापन का दर्द, असहाय उम्मीदों की चीख में दब गया, तो कांगड़ा घाटी रेल को सजने-संवरने की मोहलत तक नहीं मिली। आश्चर्य यह कि अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायालय तो खुल गए, लेकिन पचास सालों से हाई कोर्ट की धर्मशाला में खंडपीठ खोलने की मांग पर सन्नाटा रहा। मंजूरशुदा आईटी पार्क के नाम पर तो शिलान्यास तक की फुर्सत नहीं मिली, तो मानना पड़ेगा कि उपेक्षित रहना भी एक अदा है। इसी दौर में राजनीतिक तौर पर कमजोर किए गए कांगड़ा की तस्वीर में जिन मंत्रियों से पद छीने गए या जिन्हें हल्के मंत्रालय मिले, उन्हें कसूरवार मानें या राजनीति की नई दौलत में जिला की अति दरिद्रता को कबूल करें। कांगड़ा के नेताओं के लिए अब जिला की टूट फूट में खुद को संवारने की कुटिल इच्छा प्रबल है।
जिला को तोडऩे के पुराने वकील तो अप्रासंगिक हो गए, लेकिन मंत्री होते हुए भी राकेश पठानिया का संगीत और विभागीय क्षमता की रीत का दायरा सिमट कर केवल एक विधानसभा क्षेत्र बन गया। सरवीण चौधरी अपनी विभागीय क्षमता के हाशिए पर धकेली गर्इं या यही उनकी क्षमता आकलन रहा। अब भाजपा को वही रमेश धवाला देहरा में नजर आने लगा है, जिसके हाथों में इससे पहले बेडिय़ों दिखाई दीं। जाहिर तौर पर कांगड़ा की ओबीसी बिरादरी को दीवार के करीब खड़ा करती रही पार्टी के लिए 'पवन काजल' की खोज में चमत्कार होगा या राजनीति के नए आविष्कार में एक पूरा जिला अपनी शून्यता में मुस्कराता रहेगा। बेशक ऊना से लगातार चौथी टे्रन का हमसफर बनकर हिमाचल दूर तक निकल जाएगा। यह एक तरह से सत्ता की ट्रेन है, जिसे हम चुनाव आचार संहिता से कुछ दूरी पर देख सकते हैं। कम से कम प्रधानमंत्री के तेरहवीं बार हिमाचल के दौरों ने यह तो बता ही दिया कि हिमाचल में उनके अजीज कौन हैं। विडंबना यह है कि पूरे प्रदेश के नेता और खास तौर पर कांगड़ा के नेता अगर अजीज नहीं, तो यह चिंता का विषय है।
Rani Sahu
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