सम्पादकीय

पूरी पीढ़ी पर छाता अंधेरा

Rani Sahu
3 Oct 2021 10:14 AM GMT
पूरी पीढ़ी पर छाता अंधेरा
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पिछले कई दिनों से हिन्दुस्तान में कोविड-19 के मामले प्रतिदिन 30 हजार से कम पर ठहरे हुए हैं

शशि शेखर। पिछले कई दिनों से हिन्दुस्तान में कोविड-19 के मामले प्रतिदिन 30 हजार से कम पर ठहरे हुए हैं। पांच प्रदेशों को कोरोना सूची से निकाल दें, तो कई सूबों में यह संक्रमण सैकड़ों में सिमटता नजर आता है। यही वजह है कि उत्साही शोधार्थियों ने दूसरी लहर की विदाई का उल्लास बिखेरना शुरू कर दिया है। इसी मुकाम पर एक सवाल भी सिर उठाता है कि क्या अब तीसरी लहर की आशंका से मुक्त होने का वक्त आ गया है? इस मुद्दे पर जानकार एकमत नहीं हैं।

यह तय करना भी मुमकिन नहीं कि महामारी अब तक कैसा और कितना सामाजिक-आर्थिक कहर ढा चुकी है, पर अब तक जो हुआ है, वह अपने आप में दारूण महागाथा है।
मिलिए सुमित्रा से। उत्तर प्रदेश के सूखाग्रस्त जनपद में मजदूरी करते वक्त एक दिन उसके मन में विचार कौंधा कि अगर यही हाल रहा, तो मेरे बच्चे भी कुछ बरस बाद ऐसे ही दिहाड़ी पर देह खपाते नजर आएंगे। घर लौटकर उसने अपने मन की यह बात पति को बताई। उसी रात दोनों ने निर्णय किया कि हम दिल्ली जाएंगे। वहां मजूरी ज्यादा मिलती है और दोनों बच्चों को पढ़ाने के संसाधन भी ज्यादा हैं। अगले महीने उन्होंने थोड़ा कर्ज लिया और नोएडा की ओर रवाना हो गए। नोएडा इसलिए, क्योंकि वहां उनके रिश्तेदार रहते हैं। काफी जद्दोजहद के बाद वे वहां स्थापित हो गए। काम मिलने लगा था, बच्चे भी पढ़ने लगे थे कि कोरोना की वजह से लॉकडाउन हो गया। वे दो महीने तक बिना काम के डटे रहे, पर कब तक? उन लाखों लोगों की तरह वे भी दर-बदर हुए, जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में उम्मीदों की झोली लेकर आए थे। अब उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ रहा था। अपने गांव में 'अपनों' की उपेक्षा ने उनकी गुरबत को और मारक बना दिया था। गांव में जैसे-तैसे छह महीने काटे और फिर नोएडा लौट आए। इस दौरान बच्चे स्कूल न जा सके। जाते भी कैसे? स्कूलों ने भी दरवाजे बंद कर रखे थे। पति-पत्नी को दोबारा काम मिल गया, पर दोनों नौनिहाल अब स्कूल जाने को तैयार नहीं। वे अकेले नहीं हैं। लाखों बच्चे ऐसे ही स्कूल जाने से कतराने लगे हैं।
चर्चित अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, रीतिका खेड़ा और शोधार्थी विपुल पैकरा की टीम ने 15 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में सर्वेक्षण के दौरान पाया कि महामारी ने नौनिहालों की एक पूरी पीढ़ी को संकट में डाल दिया है। सर्वे के मुताबिक, सिर्फ आठ फीसदी ग्रामीण बच्चों ने नियमित रूप से ऑनलाइन कक्षाओं का लाभ उठाया, जबकि 37 फीसदी ने कोई पढ़ाई नहीं की। क्या यह शैक्षिक रिक्ति कभी पूरी हो पाएगी? ऐसा हो पाना संभव नहीं। वजह? कोविड-19 के हमले से पहले जो बच्चा तीसरी कक्षा में था, वह तकनीकी तौर पर पांचवीं में जरूर पहुंच गया है, मगर उसकी काबिलियत कक्षा एक के बच्चे के बराबर रह गई है। यह डरावना खुलासा है, क्योंकि ये बच्चे जब आने वाले सालों में अकादमिक काबिलियत के आधार पर आंके जाएंगे, तब उन्हें निराश होना पडे़गा।
इस सर्वे में शामिल बच्चों में साठ फीसदी दलित और आदिवासी तबके से आते हैं। जाहिर है, पहले से ही हाशिये पर पड़े इन समुदायों की अगली पीढ़ी को और अधिक असमानता का सामना करना पडे़गा। केंद्र सरकार के निर्देश पर तमाम राज्य सरकारों ने शिक्षकों को ऑनलाइन कक्षाएं देने का हुक्म जरूर सुना रखा था, पर इस आदेश का समूचा अनुपालन असंभव था। दूरदराज के गांवों में, जहां 4-जी की सेवाएं दुर्लभ हैं, यह दिक्कत आम थी। आंकडे़ बताते हैं कि देश के 77 फीसदी शहरी इलाकों तक स्मार्टफोन की पहुंच हो गई है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह आंकड़ा 51 प्रतिशत पर अटका हुआ है। स्मार्टफोन के अभाव में वर्चुअल कक्षा में भागीदारी नामुमकिन है।
सवाल उठता है कि जिन लोगों के पास स्मार्टफोन है, उन्हें कितना फायदा पहुंचा? हाल ही में आए एक सर्वे में बताया गया है कि 'इंटरनेट क्रांति' से ऑनलाइन भुगतानों में दूसरी कोविड-वेब के दौरान जबरदस्त वृद्धि देखने को मिली है। इसके अलावा, ऑनलाइन कंटेंट के भी उपभोक्ता बेतहाशा बढ़े, जिनमें ऑडियो संगीत, समाचार, खेल सबसे आगे रहे, पर ऑनलाइन शिक्षा वैसे ही ठिठकी और सिमटी बनी रही। शिक्षा के पीछे रह जाने की एक वजह यह भी है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों को स्मार्टफोन मुहैया कराने की हैसियत रखने वाले परिवार बहुत कम हैं। इस तरह के फोन पर पहला हक कुटुंब के मुखिया का होता है। आप इसे ऑनलाइन कंटेंट के उपयोग के आंकड़ों से भी समझ सकते हैं।
यही नहीं, गांवों के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 14 फीसदी और शहरी क्षेत्र के सरकारी स्कूलों के 20 प्रतिशत बच्चे इस दौरान मिड-डे मील से वंचित रह गए। शोधकर्ताओं का मानना है कि इनमें से तमाम अब दोबारा स्कूल नहीं आ पाएंगे। विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि बच्चों को हुए नुकसान की तत्काल भरपायी नहीं हुई, तो देश में आर्थिक असमानता की खाई और चौड़ी हो जाएगी।
यह आशंका तब और बलवती हो जाती है, जब हम रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर नजर डालते हैं। बैंक ने शेयर बाजार में सूचीबद्ध 2,500 से अधिक कंपनियों के विश्लेषण के दौरान पाया कि इनका मुनाफा इस आर्थिक वर्ष की पहली तिमाही में पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले तिगुना बढ़ गया है। मतलब साफ है, एक तरफ कंपनियां मालामाल हुई हैं, वहीं आम आदमी पहले से अधिक बेहाल हो गया है। आश्चर्य नहीं कि गई जुलाई में सोना गिरवी रख कर्ज मांगने वालों की संख्या में 77 प्रतिशत का भयंकर उछाल देखा गया। 'सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी' (सीईएमआईई) के मुताबिक, अकेले अगस्त महीने में 15 लाख लोगों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी। इनमें से 13 लाख ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं। आप इन आंकड़ों को स्कूल से वंचित रह गए छात्रों से जोड़कर देखिए, तो आपको नई व्यथा-कथा काले अक्षरों में उभरती नजर आएगी।
इतिहास गवाह है, महामारियां ऐसा ही सितम ढाती हैं। 1918 के स्पेनिश फ्लू ने एक करोड़ से ज्यादा हिन्दुस्तानियों को निवाला बनाया था। उस समय अर्थव्यवस्था -10.5 प्रतिशत तक लुढ़क गई थी और महंगाई ने आसमान छू लिया था। उस दौरान जो मौतें हुईं, उनमें समाज की निचली पायदान पर बैठे लोग ज्यादा थे। 1919 में प्रकाशित एक ब्रिटिश रिपोर्ट ने बंबई (अब मुंबई) में हुई मौतों का सामाजिक वर्गीकरण किया था, जिसके मुताबिक, मरने वालों में 61 फीसदी से ज्यादा निर्बल आय और सामाजिक वर्ग के लोग थे। मरने वालों के पास खुद को क्वारंटीन करने लायक घर की व्यवस्था नहीं थी, इसलिए महामारी ने उन पर समूची उग्रता से झपट्टा मारा। महामारियां कमजोर वर्ग को ज्यादा निशाना बनाती हैं। दुर्भाग्य से इस बार भी ऐसा ही रहा है।


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