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उत्तर प्रदेश का चुनावी रण अब आकार ग्रहण कर रहा है
शशि शेखर। उत्तर प्रदेश का चुनावी रण अब आकार ग्रहण कर रहा है। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के बीच हुए समझौते के बाद साफ हो चला है कि कम से कम पांच दलों के साथ समाजवादी पार्टी सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले गठबंधन से आमने-सामने की लड़ाई लड़ने जा रही है। इस सीधी-सपाट लड़ाई में कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी का फायदा होगा या नुकसान?
सबसे पहले अखिलेश यादव की बात। छह महीने पूर्व अगर आप उत्तर प्रदेश के किसी भी मतदाता से पूछते, तो यही जवाब मिलता कि अखिलेश यादव को सड़क पर उतरकर लड़ना चाहिए। क्या पूर्व मुख्यमंत्री निष्क्रिय बैठे थे? नहीं, वह महीनों से एनडीए के असंतुष्ट सहयोगियों से एक-एक कर मिल रहे थे। इन मुलाकातों को सार्वजनिक बतकही से दूर रखने की भी कोशिश होती थी। उन्हें सही समय का इंतजार था।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रभावशाली ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, डॉक्टर संजय सिंह की जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट); पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड के इलाकों में असर रखने वाले महान दल के साथ उनका गठबंधन घोषणा से पहले ही परवान चढ़ चुका था। अब जयंत चौधरी के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तीन दर्जन सीटों पर समझौता कर उन्होंने अच्छी राजनीतिक चाल चली है। इसी बीच आम आदमी पार्टी के संजय सिंह, जनसत्ता दल (लोकतांत्रिक) के रघुराज प्रताप सिंह 'राजा भैया' और अपना दल (कमेरावादी) की कृष्णा पटेल से अखिलेश यादव की मुलाकातों से कयासों का नया दौर शुरू हो चुका है। क्या गठबंधन में कुछ नए सहयोगी जुड़ने जा रहे हैं?
आप चाहें, तो कह सकते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भी अखिलेश यादव ने मायावती से हाथ मिलाया था, पर 'बुआ-भतीजे' का वह रिश्ता परवान नहीं चढ़ सका। आमने-सामने की उस लड़ाई में कांग्रेस भले ही छह प्रतिशत के आसपास सिमट गई हो, पर भारतीय जनता पार्टी को इसका प्रत्यक्ष लाभ हुआ। उसे लगभग 50 फीसदी मतों के साथ उत्तर प्रदेश से 62 सांसद हासिल हुए थे।
इससे पहले 2017 में अखिलेश यादव अपनी कुरसी बचाने के लिए लड़ रहे थे। उनके चाचा शिवपाल यादव की मुखालफत के कारण पार्टी का कुनबा बिखरता नजर आता था। इस विकट माहौल में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन हुआ था। यह गठबंधन भी नुकसानदेह साबित हुआ। समाजवादी पार्टी को 2012 के विधानसभा चुनाव में 29.13 फीसदी मतों के साथ 224 सीटें हासिल हुई थीं। इस बार वह 21.82 प्रतिशत मत और 47 सीटों के कमजोर आंकड़े पर सिमट गई थी। सहयोगी कांग्रेस भी पूर्व की 28 सीटों के मुकाबले सात सीट पर सीमित रह गई थी।
उन कड़वे अनुभवों से अखिलेश यादव को सीख मिली कि राष्ट्रीय पार्टियों अथवा बसपा जैसे सतत विरोधी दलों से तालमेल कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को रास नहीं आता। यही वजह है कि इस बार उन्होंने नितांत इलाकाई पार्टियों के साथ गठबंधन किया। हालांकि, ऐसे दलों से दूरगामी वफादारी की उम्मीद नहीं की जा सकती। उनके साथ चुनाव लड़ने पर बड़ी पार्टी को अपने हिस्से से सीटें देनी पड़ती हैं। बहुमत न मिलने की स्थिति में यह प्रयोग आत्मघाती साबित होता है। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के साथ यही हुआ था। सपा के रणनीतिकार शायद सोच रहे हैं कि बाद की बाद में देखेंगे, अभी आसन्न राजनीतिक युद्ध की चिंता करते हैं। क्या विभिन्न रंग की टोपियों का यह सम्मिश्रण सफल होगा?
इस सवाल के जवाब के लिए भगवा दल के अंत:पुर में झांकना होगा। भारतीय जनता पार्टी ने उम्मीद के अनुरूप नरेंद्र मोदी के नाम और योगी आदित्यनाथ के काम पर समूचा दांव लगा दिया है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री पिछले दो महीनों में पांच बार उत्तर प्रदेश की यात्रा कर चुके हैं। आचार संहिता लागू होने से पूर्व उनके कई और कार्यक्रम प्रस्तावित हैं। इन यात्राओं के निर्धारण में आंचलिकता, धर्म, विकास, महिलाएं, दलित, पिछड़े, अगडे़, सारे समीकरणों का खास ध्यान रखा गया है। इसके अलावा, भाजपा ने अपने तीन सर्वाधिक दिग्गज नेताओं- राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को क्षेत्रवार जिम्मेदारियां सौंपी हैं। अमित शाह ने किसान आंदोलन के कारण उथल-पुथल ग्रस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कमान खुद संभाली है। यही नहीं, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और पूर्व कृषि मंत्री राधामोहन सिंह महीनों से उत्तर प्रदेश को मथ रहे हैं।
ऐसा इसलिए किया जा रहा है, ताकि कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद कायम कर उनकी शिकायतों को दूर किया जा सके। यही नहीं, आंचलिक आवश्यकताओं के अनुरूप टिकट वितरण भी किया जा सके। भाजपा जानती है कि पांच वर्षों में सरकार कितना भी काम करे, पर कुछ न कुछ सत्ता-विरोधी रुझान तो पनपता ही है। भगवा दल के रणनीतिकारों को यह भी मालूम है कि हर विपक्षी पार्टी के पास सिर्फ एक आकर्षक चेहरा है। वे वजनदार नेताओं को सामने खड़ा कर उनकी आब धुंधली करना चाहते हैं। इसके साथ ही आंचलिक दरारों को भरने के लिए सात जाति आधारित दलों को साथ लिया गया है। संगठन में भी तमाम अति पिछड़ों को तरजीह दी गई है। भगवा दल कोई जोखिम उठाने की मुद्रा में नहीं है।
अब बसपा और कांग्रेस की चर्चा। दशकों बाद ऐसा पहली बार हो रहा है, जब मायावती मुख्य लड़ाई से थोड़ी दूर मानी जा रही हैं। भीम आर्मी के चंद्रशेखर 'रावण' जैसे नौजवानों ने उनके परंपरागत वोट बैंक में सेंधमारी शुरू कर दी है। ऐसे में, क्या ब्राह्मण उनकी ओर आकर्षित हो पाएंगे? वे पारंपरिक तौर पर भाजपा के साथ रहे हैं, और फिर अखिलेश यादव भी इस बार बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को टिकट देने जा रहे हैं। लोग अक्सर इस चुनाव को भाजपा अथवा सपा के लिए अस्तित्व का सवाल मानते हैं, पर हकीकत यह है कि अस्तित्व की लड़ाई बहुजन समाज पार्टी लड़ रही है।
यही हाल कांग्रेस का है। उसके वोट बैंक में कमी आई है। कार्यकर्ता बूढे़ हो चुके हैैं। पार्टी में प्रादेशिक स्तर का कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। ऐसे में, प्रियंका गांधी 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' के नारे के साथ हर चुनाव को प्रभावित करने की क्षमता रखने वाले पांच से छह फीसदी 'फ्लोटिंग वोटर्स' को प्रभावित करने की कोशिश कर रही हैं। उनका पूरा प्रयास भाजपा के वोट बैंक में अधिक से अधिक घात लगाने का है। प्रियंका जानती हैं कि महिला और युवा मतदाता नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी ताकत हैं। वह 40 फीसदी महिलाओं को टिकट देने का वादा कर उन्हीं पर दांव लगा रही हैं। ऐसा लगता है, वह अभी से 2024 की लड़ाई लड़ रही हैं।
प्रियंका सफल रहें या असफल, उत्तर प्रदेश की राजनीतिक हैसियत यथावत बनी रहेगी। इस सरजमीं पर 2022 में लड़ा जाने वाला चुनाव देश की सियासत को हर हाल में प्रभावित करने वाला साबित होगा।

Rani Sahu
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