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आज यूक्रेन को लेकर वैसे ही हालात दिखाई पड़ रहे हैं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक का कॉलम:
आज यूक्रेन को लेकर वैसे ही हालात दिखाई पड़ रहे हैं, जैसे द्वितीय महायुद्ध के पहले यूरोप में दिखाई पड़ रहे थे। एक तरफ रूस है और दूसरी तरफ अमेरिका का नाटो गठबंधन। लगभग 30 साल पहले जब सोवियत संघ का विघटन हुआ और शीतयुद्ध खत्म हुआ तो ऐसा लग रहा था कि रूस और अमेरिका के संबंध सहज हो जाएंगे लेकिन यूक्रेन संकट ने इस समय सारी दुनिया के कान खड़े कर दिए हैं।
अमेरिका ने यूक्रेन की राजधानी कीव से अपने राजदूतावास खाली करना शुरू कर दिया है। अमेरिका और कुछ यूरोपीय राष्ट्रों ने भी अपने नागरिकों को चेतावनी जारी कर दी है कि वे यूक्रेन की यात्रा न करें। वे अपने नागरिकों को वापस लौटने की सलाह भी दे रहे हैं। नाटो के 5 हजार सैनिक, युद्ध विमान और जहाज भी बाल्टिक तथा पूर्वी यूरोपीय देशों में भेजे जा रहे हैं ताकि यदि यूक्रेन पर रूस हमला बोल दे तो उसका मुकाबला किया जा सके।
रूस ने पिछले कई हफ्तों से यूक्रेन की सीमाओं पर लगभग एक लाख सैनिक अड़ा रखे हैं। लगभग आठ साल पहले रूस ने यूक्रेन के क्रीमिया नामक हिस्से पर कब्जा कर लिया था और अब उसका दोनबास नामक इलाका आजाद होना चाहता है या रूस से हाथ मिलाना चाहता है। रूस को डर है कि यूक्रेन कहीं अमेरिकी सैन्य गठबंधन का सदस्य न बन जाए? जैसे कि सोवियत संघ से टूटे अन्य 10 देश बन गए हैं।
रूस और यूक्रेन के संबंध सदियों पुराने हैं। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का तो कहना है कि 'रूसी और यूक्रेनी लोग एक ही हैं।' उनमें कोई फर्क नहीं है। 1917 की सोवियत क्रांति के दो साल बाद यूक्रेन सोवियत संघ में शामिल होकर उसका एक प्रांत बन गया था लेकिन यूक्रेन की भाषा और संस्कृति की वहां उपेक्षा होती रही।
कम्युनिस्ट राज में यूक्रेन ने गंभीर अकाल का सामना किया और उसमें लगभग 30 लाख यूक्रेनी मर गए लेकिन फिर भी दूसरे महायुद्ध के दौरान यूक्रेनियों ने हिटलर के खिलाफ युद्ध लड़ा और लगभग 70 लाख लोगों ने अपनी बलि दे दी। यूक्रेन में कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव इतना प्रबल हो गया था कि वहां ही जन्मे निकिता ख्रुश्चेव संपूर्ण सोवियत संघ के सर्वोच्च नेता बन गए और 1954 में क्रीमिया नामक प्रायद्वीप उन्होंने यूक्रेन को दे दिया।
उसे ही लेकर रूस में भयंकर नाराजी बनी रही है। क्रीमिया 1783 से रूस का अंग रहा है। 2014 में पुतिन ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया। रूस समर्थक राष्ट्रपति विक्तोर यानुकोविच को यूक्रेनी जनता ने उखाड़ फेंका। अब यूक्रेन भी डरा हुआ है कि क्रीमिया की तरह उस पर भी रूस कब्जा न कर ले। इसीलिए अन्य पूर्व-सोवियत राष्ट्रों की तरह यूक्रेन के नए राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने घोषणा की है कि यूक्रेन 2024 तक नाटो का सदस्य बन जाएगा।
यूक्रेन ने नाटो देशों के साथ अनेक आर्थिक और वित्तीय सहयोग के समझौतों पर दस्तखत भी किए हैं। यूरोपीय राष्ट्रों के कई क्षेत्रीय सहयोग के संगठनों का वह सदस्य भी बन गया है। यूक्रेन के 80 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग चाहते हैं कि यूक्रेन नाटो में शामिल हो जाए। पुतिन को यही डर है कि सोवियत रूस के दो बड़े और अत्यंत प्रभावशाली प्रांत रहे, जार्जिया और यूक्रेन नाटो में मिल गए तो रूस का बचा-खुचा वर्चस्व भी खत्म हो जाएगा।
वे चाहते हैं कि मध्य एशिया के पांचों मुस्लिम राष्ट्र और यूरोप के ये दो बड़े राष्ट्र तो अमेरिकी प्रभाव से मुक्त रहें। पुतिन के रूस ने अमेरिकी राष्ट्रपतियों के विचारार्थ कई सुझाव रखे। उन्होंने कहा कि यदि अमेरिका उन पर सहमत हो तो दोनों महाशक्तियों के बीच संबंध सहज हो सकते हैं। उनका पहला सुझाव तो यही था कि अब किसी भी पूर्व-सोवियत राष्ट्र को नाटो में शामिल नहीं किया जाए।
दूसरा यह कि नाटो के सदस्य राष्ट्र अपनी सीमाओं के बाहर बमवर्षक विमान आदि का फौजी जमावड़ा करके पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों में दहशत न फैलाएं। तीसरा, अपने प्रक्षेपास्त्रों को अपनी सीमाओं में ही सीमित रखें। उन्हें पड़ोसी देशों से दूरी पर ही रखें। चौथा, नाटो राष्ट्र अपने परमाणु शस्त्रास्त्रों को अपने मूल सदस्य देशों तक सीमित रखें। उन्हें पूर्व-सोवियत राष्ट्रों में न जमाए। पांचवां, यूक्रेन और जार्जिया को नाटो में मिलाने की कोशिश न करें।
जाहिर है कि अमेरिका और नाटो के सदस्य-राष्ट्र रूस की इन मांगों को स्वीकार नहीं कर सकते थे। ये पश्चिमी राष्ट्र तो क्रीमिया पर किए गए रूस के कब्जे को ही अवैध और अनैतिक मानते हैं। वे यूक्रेन के दोनबास क्षेत्र को तोड़कर रूस में मिलाने के पुतिन के इरादे को भी विस्तारवादी मानते हैं। दोनबास के निवासियों में रूसी मूल के लोग बहुसंख्यक हैं और निरंतर रूस-समर्थक आंदोलन चलाते रहते हैं।
नाटो राष्ट्रों ने 2014-15 में रूस और यूक्रेन के बीच मिंस्क-समझौता भी करवाया था। जर्मनी और फ्रांस जैसे राष्ट्र रूस के साथ बैठे-बिठाए झगड़ा मोल लेना नहीं चाहते। उनका रवैया ब्रिटेन और अमेरिका की तरह अतिवादी नहीं है लेकिन अमेरिका और अन्य यूरोपीय राष्ट्र यूक्रेन की मदद करने में कोई कमी नहीं रख रहे हैं। यूरोपीय संघ ने 2014 से अब तक यूक्रेन को लगभग 20 बिलियन डाॅलर की मदद विभिन्न रूपों में की है।
अभी-अभी यूरोपीय आयोग ने यूक्रेन के आर्थिक संकट को देखते हुए 1.36 बिलियन डाॅलर देने की घोषणा की है। इस घोषणा का स्वागत करते हुए यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने कहा है कि 'शक्तिशाली यूक्रेन यूरोपीय सुरक्षा की गारंटी है।' दूसरे शब्दों में यूरोप के राष्ट्र यूक्रेन पर रूस का कब्जा किसी भी हालत में होने नहीं देंगे। ब्रिटेन में ऐसे अंदाजी घोड़े भी दौड़ाए जा रहे हैं कि रूसी कब्जे के बाद यूक्रेन के राष्ट्रपति रूसीभाषी बन सकते हैं।
हालांकि पुतिन और रूसी विदेश मंत्री के ऐसे बयान कई बार आ चुके हैं कि यूक्रेन पर हमला करने का उनका इरादा बिल्कुल नहीं है। वे बस, यही चाहते हैं कि यूक्रेन नाटो का सदस्य न बने। यूक्रेन के रणनीतिक महत्व के कारण ही इतनी उत्तेजक स्थितियों में भी अमेरिका और रूस के राष्ट्रपति के बीच शिष्टतापूर्ण संवाद जारी है। दोनों देशों के विदेश मंत्री भी परस्पर संपर्क में हैं। इस नाजुक स्थिति में भारत की भूमिका भी अद्वितीय हो सकती है।
वैसे तो भारत ने 2013 में संयुक्तराष्ट्र में यूक्रेन के बजाय रूस का समर्थन किया था और अभी भी यूक्रेन की बजाय रूस के संबंध भारत से कहीं अधिक घनिष्ट है। इस समय अमेरिका के साथ भारत के संबंध घनिष्टतम हैं। उसका कारण चीन भी है। रूस के साथ आज भी भारत के संबंध इतने अच्छे हैं कि वह दोनों के बीच मध्यस्थता भी कर सकता है।
भारत का तटस्थ और मौन रहना ठीक नहीं है। यह ठीक है कि आज भारत के पास जवाहर लाल नेहरू जैसा कोई विश्व विख्यात नेता नहीं है, जो कोरिया और मिस्र जैसे अंतरराष्ट्रीय संकटों में सक्रिय थे लेकिन आज भारत की स्थिति नेहरू काल से अधिक मजबूत है।
गैस-तेल पाइप लाइन पर असर
क्षेत्रफल के हिसाब से यूक्रेन रूस के बाद सबसे बड़ा यूरोपीय देश है। उसकी आबादी सवा चार करोड़ के आस-पास है, जिसमें 18% रूसी हैं। आर्थिक दृष्टि से यह यूरोप का फिसड्डी देश है। लेकिन यूक्रेन का सबसे ज्यादा महत्व रणनीतिक है। यदि नाटो राष्ट्र रूस के विरुद्ध कोई सख्त प्रतिबंध लगाएंगे और यूक्रेन को लेकर युद्ध छिड़ गया तो रूस से यूक्रेन होकर यूरोप जाने वाले गैस और तेल की पाइपलाइनें ठप हो जाएंगी। नाटो देशों की तरह रूस के पास परमाणु शस्त्रास्त्र पर्याप्त मात्रा में हैं। युद्ध हुआ तो यह प्रथम और द्वितीय महायुद्धों से भी अधिक विनाशकारी होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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