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जेलेंस्की का यह बयान जंग-पिपासु पुतिन की संहार कामना दर्शाने के लिए पर्याप्त है
शशि शेखर
टूटे पड़े पुल, सड़कों पर सवारों सहित कारों को रौंदते रूसी टैंक, मिसाइल प्रहार से ध्वस्त इमारतें, घायलों से भरे अस्पताल, जहां-तहां शरण लिए लोग, रोते-बिलखते बच्चे, सैकड़ों शव और रूस में बनी क्लाशनिकोव राइफल हाथ में लेकर मातृभूमि की रक्षा के लिए मास्को को ललकारती यूक्रेनी महिला सांसद किरा रुडिक। समूचे यूक्रेन से बलिदान और बहादुरी की अनूठी खबरें आ रही हैं, पर राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की जानते हैं कि युद्ध सिर्फ भावना से नहीं जीते जाते। उन्होंने इसीलिए दुनिया की बड़ी ताकतों से गुहार लगाई कि आप तुरंत हस्तक्षेप कीजिए। अगर तत्काल हमारी सामरिक मदद नहीं की गई, तो फिर उसकी आवश्यकता भी नहीं रह बचेगी।
जेलेंस्की का यह बयान जंग-पिपासु पुतिन की संहार कामना दर्शाने के लिए पर्याप्त है। तब से अब तक काफी समय बीत चुका है, लेकिन विश्व-बिरादरी अपेक्षा के अनुरूप कार्रवाई करने में निकम्मी साबित हुई है। यूक्रेन इस कड़वी सच्चाई का ताजातरीन उदाहरण है कि किस तरह महाशक्तियां अपनी पापी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए छोटे देशों का इस्तेमाल करती हैं और फिर उन्हें दुत्कार देती हैं।
मुझे यहां भारत के राष्ट्रपति रहे महान दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन का वक्तव्य याद आता है। दूसरे महायुद्ध की समाप्ति-बेला पर उन्होंने कोलकाता और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में तीन व्याख्यान दिए थे। उन्होंने तर्कसंगत तरीके से कहा था कि दो विश्वयुद्धों के खून-खराबे से दुनिया उकता गई है। अब आगे ऐसे नरसंहार देखने को नहीं मिलेंगे। आने वाले वक्त ने उनके इस नेकनीयत भरोसे की रक्षा नहीं की। इंसानी सभ्यता की यही विडंबना है कि उसे दर्शनशास्त्री नहीं, राजनेता हांकते हैं।
आज व्लादिमीर पुतिन भले ही दुनिया के सबसे बड़े खलनायक साबित हो रहे हों, मगर अमेरिका ने भी कभी इराक और अफगानिस्तान पर हमले किए थे। इराक पर आक्रमण की बुनियाद ही झूठ पर रखी गई थी। अमेरिका वहां से लौटने से पूर्व दजला-फरात की संतानों को भुखमरी और बदहाली के गर्त में धकेल चुका था। अफगानिस्तान में भी उसने यही किया। पिछले साल जो बाइडन ने सत्ता संभालते ही वहां से अपने फौजी दस्तों की वापसी का हुक्म सुनाया, तो अमनपसंद अफगान जनता के होश उड़ गए। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि जिस तालिबान को भगाने में उन्होंने अमेरिका की मदद की, उसके आगे अमेरिकी हुकूमत इस तरह आत्म-समर्पण कर देगी। तालिबान की हुकूमत में निरीह अफगान जनता एक बार फिर आतताई कायदे-कानूनों का शिकार बन रही है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनी विश्व-व्यवस्था में अमेरिका अब तक लगभग 30 देशों में बमबारी कर चुका है। उसे ऐसा करने का हक किसने दिया?
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने हुकूमत संभालने के बाद से ही अपने देश को 'पुराना गौरव' लौटाने की कोशिशें शुरू कर दी थीं। उन्होंने आठ साल पहले यूक्रेन से क्रीमिया बंदरगाह बलपूर्वक छीन लिया था। इससे पहले 2008 में उन्होंने जॉर्जिया पर आक्रमण किया था। तब भी अमेरिका और बड़बोले पश्चिमी देश सिर्फ गाल बजाकर चुप हो गए थे। कभी जार कैथरीन ने कहा था कि हमें दुनिया के लिए एक खिड़की चाहिए। 'खिड़की' से उनका आशय बंदरगाह से था। कैथरीन ने इसके लिए पोलैंड के टुकड़े कर दिए थे। पुतिन क्या उसी मध्ययुगीन एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं?
अब, जब कीव पर रूस लगभग काबिज हो चुका है, तो यह मान लेना कि वह आसानी से पीछे हट जाएगा, नादानी होगी। पुरानी कहावत है- जंग छेड़ देना आसान है, पर उसे नियंत्रित करना कठिन, और उसका खात्मा तो और भी मुश्किल। ऐसा कहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि रूस की इस हरकत से आसपास के देश आशंकित हो उठे हैं। वे ही क्यों, खतरे की धमक पेरिस और बॉन तक सुनाई पड़ रही है। इधर पुतिन के पास अपने तर्क हैं। वर्ष 1991 में शीत युद्ध के खात्मे के वक्त नाटो में 16 देश थे, जो बढ़कर 30 तक पहुंच चुके हैं। रूस इसे आपसी सहमति का उल्लंघन मानता है। क्रेमलिन को लगता है कि हमारे मुल्क की घेराबंदी हो रही है। क्या इसका हल मैदाने-जंग में निकलेगा? यकीनन नहीं! क्योंकि बड़ी से बड़ी लड़ाई के बाद भी आखिरकार बातचीत की टेबल पर बैठना ही होता है। इतिहास से सबक लेते हुए क्यों न उचित विमर्श तुरंत शुरू कर दिया जाए। पर यह हो कैसे? हम एक दिग्भ्रमित दुनिया में जी रहे हैं, जिसे बौने सत्तानायक हांक रहे हैं। वे देशभक्त हो सकते हैं, पर दुनिया चलाने के लिए जिस विश्व-दृष्टि की जरूरत है, वह मौजूदा वक्त में किसी राजनेता के पास नहीं। कोरोना की जानलेवा आपदा के दौरान भी हम इस अभाव को महसूस कर चुके हैं।
दुनिया के अमनपसंद लोगों को इस समय अपनी सत्ताओं पर ऐसा दबाव बनाना चाहिए कि पुतिन हों या किसी और महाशक्ति के उद्दंड हुक्मरां, ऐसा करने की हिम्मत न जुटा सकें। यह सुकून की बात है कि खुद पुतिन को अपने देश में कड़ा प्रतिरोध झेलना पड़ रहा है। मॉस्को, सेंट पीटर्सबर्ग और मुल्क के कई अन्य हिस्सों में नागरिकों ने रैलियां निकालीं, पुलिस के डंडे खाए और गिरफ्तारी दी। टोक्यो, लंदन, न्यूयॉर्क, येरुशलम और कई अन्य देशों में भी छिटपुट जुलूस निकले। ये पर्याप्त नहीं हैं। समूची दुनिया में प्रतिरोध की वैसी ही लहर उठनी चाहिए, जैसी वियतनाम युद्ध के आखिरी दिनों में उठी थी। यह नेक काम अब पहले जैसा मुश्किल नहीं रहा। संचार और संवाद के नए संसाधनों के जरिये दुनिया के शांतिवादियों को अपेक्षाकृत आसानी से एकजुट किया जा सकता है।
इस मामले में भारत में मायूस करने वाली शांति है। जिस दिन रूस ने इस एकतरफा जंग की शुरुआत की, मैं प्रयागराज में था। यूनिवर्सिटी रोड पर छात्रों के बीच जाकर इस सिलसिले में उनकी राय जाननी चाही। मुझे निराशा हुई कि वे कोई खास राय नहीं रखते हैं। उनसे बात करते वक्त मुझे अपने स्कूल-कॉलेज के वे दिन याद आ गए, जब हम वियतनाम से लेकर तिब्बत तक के मुद्दों पर आंदोलित हो उठते थे। क्या हम भारतीयों की वैश्विक चेतना को लकवा मार गया है?
यूक्रेन में इस समय 20 हजार से अधिक भारतीय फंसे हुए हैं। भारत सरकार अपने खर्च पर उन्हें वहां से लाने की कोशिश कर रही है। विपक्ष का कहना है कि यह फैसला हफ्ते-दो हफ्ते पहले ले लिया जाना ठीक रहता। पर सुकून की बात है कि वापसी की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।
एक और बात। पुतिन ने जाने-अनजाने चीन को बहुत बल प्रदान कर दिया है। आर्थिक प्रतिबंधों के कारण वह बहुत सा काम-काज अब चीन के जरिये चलाने पर मजबूर हो जाएगा। यही नहीं, दुनिया का ध्यान भी चीन से हटकर रूस पर जा टिका है। हमारी सीमा पर वह पहले से अशांति फैला रहा है। ताइवान पर भी उसकी नजर टेढ़ी है। इसी बीच पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान अमेरिकी विरोध के बावजूद मॉस्को जा पहुंचे। चीन-रूस संधि, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यात्रा के साथ इन तीनों देशों की नीति और नीयत को मिला दें, तो आशंकाएं उपजनी स्वाभाविक हैं। यकीनन, नई दिल्ली हालात पर गहरी नजर रख रही होगी। यह सावधानी बरतने का समय है।
Rani Sahu
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