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यूक्रेन पर हमला करने के करीब दस दिन बाद रूस जिस तरह कुछ घंटे के लिए युद्ध विराम के लिए राजी हुआ
संजय गुप्त।
यूक्रेन पर हमला करने के करीब दस दिन बाद रूस जिस तरह कुछ घंटे के लिए युद्ध विराम के लिए राजी हुआ, उससे वह अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि की चिंता करता तो दिखा, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन बातचीत से समस्या के समाधान के लिए तैयार होने वाले हैं। रूस अभी भी राजधानी कीव पर कब्जा करके वहां सत्ता परिवर्तन के लिए आमादा दिख रहा है। उसकी इस कोशिश के चलते वहां भारी तबाही हो सकती है। इसकी एक झलक तब मिली, जब रूसी हमले के दौरान यूक्रेन के सबसे बड़े नाभिकीय संयंत्र के परिसर में आग लग गई। इस घटना ने पूरी दुनिया में चिंता की लहर पैदा कर दी। यूक्रेन पर हमले के बाद से अब तक दोनों देशों के सैकड़ों सैनिक मारे जा चुके हैं।
यूक्रेन के तमाम लोगों की भी जान जा चुकी है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि करीब दस लाख लोगों को पलायन के लिए विवश होना पड़ा है, क्योंकि रूसी सेनाएं नागरिक इलाकों को भी निशाना बना रही हैं। रूस एक सैन्य महाशक्ति अवश्य है, लेकिन उसे यह याद रखना चाहिए कि 21वीं सदी के इस युग में कोई भी देश किसी अन्य देश की संप्रभुता को उस तरह नहीं कुचल सकता, जैसे वह यूक्रेन की संप्रभुता को कुचलना चाहता है।
रूस की मानें तो यूक्रेन पर हमला इसलिए जरूरी हो गया था, क्योंकि वह अमेरिका एवं उसके सहयोगी देशों के हाथों में खेल रहा था और इसके चलते उसकी अपनी सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न हो गया था। यह सही है कि यूक्रेन अमेरिकी नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नाटो में शामिल होने को तैयार था, लेकिन केवल इस आधार पर उस पर हमले का औचित्य नहीं बनता। यूक्रेन पर रूस के हमले से यह साफ है कि उसने अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की ओर से दी जा रही चेतावनियों की परवाह नहीं की, लेकिन शायद वह इसका भी अनुमान नहीं लगा सका कि यूक्रेन की सेना और वहां के लोग उसका इतना डटकर मुकाबला करेंगे। यह संभव है कि वह अपनी सैन्य ताकत के बल पर यूक्रेन को देर सवेर घुटने टेकने के लिए विवश कर दे, लेकिन उसके लिए वहां पर काबिज होना आसान नहीं होगा। उसे यह याद रखना चाहिए कि अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं का क्या हश्र हुआ था?
रूस को केवल यूक्रेन में कड़े प्रतिरोध का ही सामना नहीं करना पड़ रहा, बल्कि अमेरिका, यूरोप के साथ अन्य देशों के कठोर प्रतिबंधों से भी दो चार होना पड़ रहा है। पुतिन फिलहाल इन प्रतिबंधों से बेफिक्र दिख रहे। इतना ही नहीं, वह परमाणु हमले की धमकियां भी दे रहे हैं। इससे वह विश्व शांति और वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए खलनायक के तौर पर उभर रहे हैं। शायद वह यह मानकर चल रहे हैं कि रूसी गैस पर यूरोप के एक बड़े हिस्से की निर्भरता इन प्रतिबंधों के असर को खत्म कर देगी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यूक्रेन संकट पूरी दुनिया पर गंभीर आर्थिक असर डालने वाला साबित हो रहा है। कच्चे तेल के बढ़ते दाम इसका प्रमाण हैं।
भारत अभी तक संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ आए सभी प्रस्तावों पर हुए मतदान से अलग रहा है। कई पश्चिमी देशों को भारत का यह रवैया रास नहीं आया, लेकिन यूक्रेन संकट पर भारत का तटस्थ रहना समय की मांग है। यही कारण रहा कि विदेश मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति की बैठक में विपक्षी दलों ने सरकार के रुख का समर्थन किया। भारत ने भले ही रूस के खिलाफ लाए गए प्रस्तावों पर मतदान न किया हो, लेकिन उसने रूस को यह संदेश देने में संकोच नहीं किया कि वह समस्तघटनाक्रम से विचलित है और हर स्वतंत्र देश की तरह यूक्रेन की संप्रभुता और अखंडता का भी सम्मान आवश्यक है। प्रधानमंत्री मोदी पुतिन से अपनी बातचीत में युद्ध रोकने की बात भी कर चुके हैं। वास्तव में भारत ने प्रारंभ से ही कूटनीति के जरिये समस्या के समाधान पर जोर दिया है। भारत के तटस्थ रुख का यह मतलब नहीं कि वह रूस के साथ खड़ा है। इस संदर्भ में भारत ने अपना जो पक्ष रखा, उसे अमेरिका, फ्रांस आदि ने समझा भी है।
भारत के लिए इस समय सबसे अधिक आवश्यक है यूक्रेन में फंसे अपने छात्र-छात्राओं की सुरक्षित वापसी। इसके लिए रूस और यूक्रेन, दोनों का सहयोग जरूरी है। दशकों की करीबी मित्रता और रक्षा खरीद के लिए रूस पर निर्भरता के बावजूद भारत ने न केवल रूस को संयुक्त राष्ट्र चार्टर की याद दिलाई है, बल्कि यूक्रेन को मानवीय सहायता भी भेजी है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि जो देश यूक्रेन के पक्ष में खुलकर खड़े हैं, वे भी उसे सहायता देने तक ही सीमित हैं। नि:संदेह इसमें सैन्य मदद भी शामिल है, लेकिन यूक्रेन के राष्ट्रपति इतने मात्र से संतुष्ट नहीं। पुतिन इस समय जैसे आक्रामक रूप में दिख रहे हैं, वह दुनिया के प्रति उनके बेपरवाही भरे रुख का ही परिचायक है। ऐसे में यह जरूरी है कि भारत सरीखी वैश्विक शक्तियां बातचीत से समस्या के समाधान पर और जोर दें। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि अमेरिका और अन्य देशों ने रूस पर जो प्रतिबंध लगाए हैं, उनकी रूसी राष्ट्रपति चिंता नहीं कर रहे। उलटे वह खुद ऐसे देशों पर प्रतिबंध लगा रहे हैं। अब तो इसकी भी आशंका बढ़ गई है कि अपने को मुश्किलों में घिरा देखकर पुतिन कोई ऐसा अप्रत्याशित कदम न उठा लें, जिसके भयावह नतीजे सामने आएं।
यूक्रेन संकट जिस तरह गहराता जा रहा है, उसे देखते हुए सवाल उठता है कि आखिर इसका परिणाम क्या होगा? क्या रूस यूक्रेन पर उसी तरह कब्जा कर लेगा, जैसा उसने 2014 में उसके एक हिस्से क्रीमिया पर किया था या वहां अपनी पिट्ठू सरकार बैठा देगा? क्या पुतिन का मकसद यूक्रेन का पूरी तरह विसैन्यीकरण करना है? सवाल यह भी है कि रूस की मनमानी के खिलाफ अमेरिका और उसके साथी देश किस हद तक जाएंगे? इन सवालों के चाहे जो जवाब निकलें, लेकिन यह साफ है कि नाटो देशों और रूस की तनातनी में यूक्रेन एक मोहरा भर बनकर रह गया है। वे यह नहीं देख पा रहे कि केवल प्रतिबंधों से बात नहीं बन रही। दोनों पक्षों का यह रवैया पूरे विश्व की चिंता बढ़ाने वाला है

Rani Sahu
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