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उसे दोनों देशों के साथ अपने संवाद बनाए रखना चाहिए। किसी समय पश्चिम को अपनी गलती का एहसास जरूर होगा।
हाल ही में अमेरिकी सीआईए प्रमुख बिल बर्न्स ने एक इंटरव्यू में कहा कि यह बहुत उपयोगी रहा कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग एवं भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परमाणु हथियारों के उपयोग के बारे में अपनी चिंताएं जताईं। मुझे लगता है कि रूस पर भी इसका प्रभाव पड़ा है। उन्होंने आगे कहा कि रूस की परमाणु युद्ध की धमकी केवल डराने के लिए थी। पुतिन पहले ही साफ कर चुके हैं कि यूक्रेन में उनका 'विशेष सैन्य अभियान' कुछ और समय तक जारी रहेगा। गौरतलब है कि रूसी मानवाधिकार परिषद को संबोधित करते हुए, पुतिन ने कहा था कि रूस 'सभी उपलब्ध साधनों' के साथ लड़ेगा। उन्होंने परमाणु हथियारों के संभावित उपयोग से इनकार नहीं किया था।
इस महीने की शुरुआत में बिल बर्न्स ने अंकारा में अपने रूसी समकक्ष सर्गेई नरेश्कीन से मुलाकात की। व्हाइट हाउस के अनुसार, दोनों के बीच बातचीत अमेरिका द्वारा परमाणु हथियारों के इस्तेमाल पर अपनी चिंताओं और चेतावनी जताने तक सीमित थी। अक्तूबर में प्रधानमंत्री मोदी ने यूक्रेनी राष्ट्रपति व्लादिमीर जेलेंस्की से बात की थी और इस बात पर जोर दिया कि युद्ध का कोई सैन्य समाधान नहीं है और भारत की इच्छा शांति प्रयासों में योगदान देने की है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया था कि परमाणु हथियारों के खतरे के दूरगामी प्रभाव होंगे। पांच नवंबर को एक लेख में न्यूयॉर्क टाइम्स ने कहा कि 'पूरे युद्ध के दौरान भारत ने ऐसे कुछ महत्वपूर्ण क्षणों (परमाणु संयंत्रों पर रूसी हमलों को रोकना) के दौरान चुपचाप सहायता की है।' इसमें आगे कहा गया है कि यूक्रेनी अनाज के जहाज को स्वीकार करने के लिए रूस पर दबाव डालने में 'भारत ने पर्दे के पीछे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।' इसमें यह भी दावा किया गया है कि भारत ने ही रूस को जपोरिझिया परमाणु संयंत्र पर हमला करने से रोका था।
विगत 16 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी ने पुतिन से भी बात की, जिसमें मोदी ने एक बार फिर दोहराया कि बातचीत और कूटनीति को आगे बढ़ाकर ही इसका समाधान निकल सकता है। यह मोदी ही थे, जिन्होंने सितंबर में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन से इतर पुतिन से कहा था कि यह युद्ध का समय नहीं है। भारत इस बात पर जोर देता रहा है कि वार्ता फिर से शुरू होनी चाहिए। जी-20 और एससीओ के अध्यक्ष के रूप में भारत को संवाद को आगे बढ़ाने में भूमिका निभानी है।
किसी भी पश्चिमी देश ने जेलेंस्की पर वार्ता के लिए उस तरह से दबाव नहीं डाला, जिस तरह से भारत पुतिन पर दबाव बना रहा है। जेलेंस्की ने बातचीत शुरू करने से इनकार कर दिया, मुख्यतः इसलिए कि उसे पश्चिमी सहायता और समर्थन मिल रहा है। दुनिया जानती है कि कीव कभी भी क्रीमिया सहित अपने क्षेत्रों को फिर से हासिल नहीं कर सकता है, जिसे रूस ने 2014 में हड़प लिया था। तुर्किये में यूक्रेन-रूस वार्ता को अमेरिका और उसके सहयोगियों के दबाव के कारण बंद कर दिया गया था। पश्चिम ने कीव को सहायता प्रदान करते हुए क्रेमलिन पर प्रतिबंध और दबाव डाला, जिससे शांति सुनिश्चित नहीं होगी।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि रूस ने युद्ध शुरू किया, लेकिन उसकी चिंताओं को न तो स्वीकार किया गया और न ही संबोधित किया गया, जिससे उसके पास कोई विकल्प नहीं रह गया था। यूक्रेन नाटो की ओर से छद्म युद्ध लड़ रहा है, जबकि उसके नागरिक युद्ध की कीमत चुका रहे हैं। रूस के साथ युद्ध में शामिल होने की तुलना में यूक्रेन को सशस्त्र करना अमेरिका के लिए एक सस्ता विकल्प है, क्योंकि युद्ध से अमेरिकियों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा। अंतत: यूक्रेन की भावी पीढ़ियों को अमेरिका से प्राप्त हथियारों और धन की कीमत चुकानी होगी।
वैश्विक स्तर पर इस युद्ध को लेकर दो गुट हैं, जिनके विचार एकदम विपरीत हैं। पहले समूह में पश्चिमी देश शामिल हैं, जो चाहते हैं कि रूस को प्रतिबंधित करने और अलग-थलग करने के साथ-साथ छद्म युद्ध जारी रहे, जिससे यूरोप रूसी सैन्य खतरे से सुरक्षित रहे। उनका मानना है कि यह रूस-चीन गठबंधन को भी कमजोर करेगा, जिससे चीन पश्चिमी और एशियाई गठबंधनों का सामना करने के लिए अकेला पड़ जाएगा। अमेरिका ने परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के खिलाफ रूस को धमकी दी, लेकिन सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए जेलेंस्की पर वार्ता के लिए दबाव डालने से इनकार कर दिया। वे क्रेमलिन को अलग-थलग करने की उम्मीद में लगातार रूस से व्यापार करने वाले भारत जैसे देशों पर निशाना साध रहे हैं। इस प्रकार, उनका अंतिम उद्देश्य रूस है, जबकि शांति का मार्ग यूक्रेन से होकर गुजरता है। पश्चिम शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की जल्दी में नहीं है।
दूसरे समूह में युद्ध से परोक्ष रूप से प्रभावित और शांति चाहने वाले राष्ट्र शामिल हैं। इस समूह में आमतौर पर भारत के नेतृत्व वाले एशियाई और अफ्रीकी देश शामिल हैं। युद्ध ने तेल, खाद्यान्न, उर्वरक और खनिजों सहित अन्य रूसी निर्यातों को प्रभावित किया है, आर्थिक रूप से कमजोर देशों के वित्तीय संकट को बढ़ाया है और जनता की पीड़ा में वृद्धि की है। भारत, जो दोनों समूहों के करीब है, शांति वार्ता और विश्व व्यवस्था बहाल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का प्रयास कर रहा है। हालांकि इसके लिए उसे पश्चिम के सहयोग की जरूरत है, जिसका अभाव है। पश्चिम ही वार्ता की अंतिम स्थिति तय कर सकता है। वार्ता वास्तविकता पर आधारित होनी चाहिए, क्योंकि रूस न तो क्रीमिया को खाली करेगा और न ही वर्तमान में अपने नियंत्रण वाले कुछ क्षेत्रों को। युद्धविराम लागू करने के साथ बातचीत शुरू करने का अर्थ यूक्रेनी बुनियादी ढांचे के विनाश और जनता की पीड़ा को रोकना भी होगा।
फिलहाल अमेरिका और उसके सहयोगियों का जोर प्रतिबंधों को बढ़ाने और रूस को अलग-थलग करने पर नजर आ रहा है। संघर्ष को समाप्त करने के लिए वार्ता शुरू करने का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। ऐसे में भारत शांति के अभियान में खुद को अलग-थलग पा सकता है। हालांकि, उसे दोनों देशों के साथ अपने संवाद बनाए रखना चाहिए। किसी समय पश्चिम को अपनी गलती का एहसास जरूर होगा।
सोर्स: अमर उजाला
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