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- यूक्रेन संकट से एक बार...
प्रदीप सिंह।
यूक्रेन में छिड़े युद्ध में प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की भूमिका पर हमेशा की तरह दो राय हैं। विश्व समुदाय मोदी की ओर उम्मीद से देख रहा है। भीषण संकट में फंसा यूक्रेन कह रहा कि विश्व में मोदी की हैसियत बहुत बड़ी है। वह चाहें तो हल निकल सकता है। घरेलू मोर्चे पर वही चिरपरिचित लोग हैं, जो यूक्रेन संकट में मोदी को खलनायक के रूप में देख रहे हैं। वे चाहते हैं कि भारत अपने सदाबहार मित्र रूस के खिलाफ खड़ा हो और यूक्रेन का साथ दे। मोदी विरोधियों के तर्क हैं कि रूस आक्रमणकारी है और यूक्रेन पीडि़त। रूस अधिनायकवादी है और यूक्रेन जनतांत्रिक। रूस की कार्रवाई एक स्वतंत्र देश की संप्रभुता पर हमला है। ये तीनों बातें ठीक हैं, पर बात यहीं खत्म नहीं होती। आखिर अमेरिका के वियतनाम, इराक, लीबिया, अफगानिस्तान जैसे देशों पर हमले को क्या कहेंगे? अमेरिका ने तो अपने पड़ोसी ग्वाटेमाला और होंडुरास पर इस आरोप में हमला कर दिया था कि साम्यवाद उसके दरवाजे तक पहुंच गया है। सोवियत संघ ने 1956 में जब हंगरी पर हमला किया तो संयुक्त राष्ट्र में उसके विरुद्ध प्रस्ताव पर नेहरू तटस्थ रहे। रूस को छोड़कर हम उस अमेरिका के साथ कैसे खड़े हो जाएं, जिसने 1971 के युद्ध के समय अपना सातवां बेड़ा और ब्रिटेन ने अपनी नौसेना भेजी थी? उस समय रूस ने भारत के बचाव में अपनी पनडुब्बियां भेजीं, जिसके कारण अमेरिका-ब्रिटेन को लौटना पड़ा। कश्मीर के मुद्दे पर रूस ने हमेशा भारत का साथ दिया। जनतंत्र की चिंता करने वाले तब कहां थे, जब चीन ने 1962 में भारत पर हमला किया और अभी हाल लद्दाख में अतिक्रमण का प्रयास किया?