सम्पादकीय

यूक्रेन संकट से एक बार फिर यही साबित हुआ कि अपने देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो भारत के हित की बात पर भी विरोध में खड़े नजर आते हैं

Rani Sahu
2 March 2022 3:17 PM GMT
यूक्रेन संकट से एक बार फिर यही साबित हुआ कि अपने देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो भारत के हित की बात पर भी विरोध में खड़े नजर आते हैं
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यूक्रेन में छिड़े युद्ध में प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की भूमिका पर हमेशा की तरह दो राय हैं

प्रदीप सिंह।

यूक्रेन में छिड़े युद्ध में प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की भूमिका पर हमेशा की तरह दो राय हैं। विश्व समुदाय मोदी की ओर उम्मीद से देख रहा है। भीषण संकट में फंसा यूक्रेन कह रहा कि विश्व में मोदी की हैसियत बहुत बड़ी है। वह चाहें तो हल निकल सकता है। घरेलू मोर्चे पर वही चिरपरिचित लोग हैं, जो यूक्रेन संकट में मोदी को खलनायक के रूप में देख रहे हैं। वे चाहते हैं कि भारत अपने सदाबहार मित्र रूस के खिलाफ खड़ा हो और यूक्रेन का साथ दे। मोदी विरोधियों के तर्क हैं कि रूस आक्रमणकारी है और यूक्रेन पीडि़त। रूस अधिनायकवादी है और यूक्रेन जनतांत्रिक। रूस की कार्रवाई एक स्वतंत्र देश की संप्रभुता पर हमला है। ये तीनों बातें ठीक हैं, पर बात यहीं खत्म नहीं होती। आखिर अमेरिका के वियतनाम, इराक, लीबिया, अफगानिस्तान जैसे देशों पर हमले को क्या कहेंगे? अमेरिका ने तो अपने पड़ोसी ग्वाटेमाला और होंडुरास पर इस आरोप में हमला कर दिया था कि साम्यवाद उसके दरवाजे तक पहुंच गया है। सोवियत संघ ने 1956 में जब हंगरी पर हमला किया तो संयुक्त राष्ट्र में उसके विरुद्ध प्रस्ताव पर नेहरू तटस्थ रहे। रूस को छोड़कर हम उस अमेरिका के साथ कैसे खड़े हो जाएं, जिसने 1971 के युद्ध के समय अपना सातवां बेड़ा और ब्रिटेन ने अपनी नौसेना भेजी थी? उस समय रूस ने भारत के बचाव में अपनी पनडुब्बियां भेजीं, जिसके कारण अमेरिका-ब्रिटेन को लौटना पड़ा। कश्मीर के मुद्दे पर रूस ने हमेशा भारत का साथ दिया। जनतंत्र की चिंता करने वाले तब कहां थे, जब चीन ने 1962 में भारत पर हमला किया और अभी हाल लद्दाख में अतिक्रमण का प्रयास किया?

सच्चाई यह है कि सब अपने हित की चिंता करते हैं। जनतंत्र, मानवता, संप्रभुता की बातें ढकोसला हैं, जो अपना एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए सुविधानुसार इस्तेमाल की जाती हैं, पर दुख की बात यह है कि अपने देश में ऐसे भी लोग हैं, जो भारत के हित की बात पर भी विरोध में खड़े नजर आते हैं। भारत सरकार मध्य फरवरी से ही यूक्रेन में रह रहे भारतीयों को एडवाइजरी जारी कर रही थी। फिर वहां रह रहे भारतीय दूतावास के कर्मचारियों से कहा गया कि अपने स्वजनों को भारत भेज दें। वह समय था जब भारतीय छात्रों को वहां से निकल आना चाहिए था, लेकिन वे नहीं निकले। इसका एक कारण समझ आया एक छात्रा के ट्वीट से। उसने कहा कि फाइनल परीक्षा में सिर्फ तीन माह बचे हैं। बिना डिग्री जाऊंगी तो घर वालों को क्या मुंह दिखाऊंगी? शायद इसी छात्रा की तरह तमाम छात्र इस उम्मीद में रुके रहे कि शायद युद्ध की नौबत न आए। अब सरकार आपरेशन गंगा के जरिये उन्हें निकालने के हरसंभव प्रयास कर रही है। रूस और यूक्रेन के अलावा यूक्रेन की सीमा से लगे देशों के प्रमुखों से प्रधानमंत्री बात कर रहे और इन देशों में चार मंत्री भेजे हैं। वायुसेना को भी लगाया जा रहा है। फिर भी मोदी को कोसा जा रहा। इसी क्रम में कांग्र्रेसियों ने विदेश मंत्री एस. जयशंकर के घर के सामने प्रदर्शन भी किया। संकट के समय इस तरह की सस्ती राजनीति नई नहीं।
यूक्रेन संकट के बीच देश में एक संवैधानिक संकट खड़ा करने का भी अभियान चल रहा है। इसमें चार प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की खास भूमिका है। बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्यपाल जगदीप धनखड़ के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। उनकी अवमानना, अपमान करने का वह कोई मौका नहीं छोड़ रहीं। राज्यपाल विधानसभा का सत्रावसान मंत्रिमंडल की सिफारिश पर करते हैं, पर उनके खिलाफ यह अभियान चलाया गया कि उन्होंने मंत्रिमंडल की सिफारिश के बिना ऐसा किया किया। इस मुद्दे को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने भी उठाया। यह भी देखें कि केंद्र से टकराव के लिए कैसे-कैसे मुद्दों को चुना जा रहा है? तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल के अभिभाषण से 'जयहिंद' निकलवा दिया। स्टालिन को जयहिंद से ही नहीं, भारत माता की जय बोलने से भी तकलीफ है। यूक्रेन से लौटे राज्य के विद्यार्थियों ने एयरपोर्ट पर भारत माता की जय बोला तो उस वीडियो के प्रसारण को रोक दिया गया। एक चैनल ने प्रसारित कर दिया तो लोगों को पता चला।
महाराष्ट्र की ठाकरे सरकार का लक्ष्य केंद्र से निरंतर टकराव का है। लगता है उनकी सरकार का मकसद ही यही है। सबसे खतरनाक काम करने जा रहे हैं तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव। उनकी सरकार ने तय किया है कि बजट सत्र के प्रारंभ में होने विधानसभा सत्र में दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में राज्यपाल का अभिभाषण नहीं होगा। इसलिए संयुक्त अधिवेशन की जरूरत नहीं। केसीआर सरकार का यह कदम सीधे संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती देने वाला है। इससे संवैधानिक संकट पैदा हो सकता है। नए संविधान की जरूरत जता चुके केसीआर दरअसल संविधान को चुनौती देना चाहते हैं और उसके जरिये एक संकट खड़ा करना चाहते हैं। इसमें बाकी तीन मुख्यमंत्रियों की सहमति है। चाहती तो कांग्रेस भी यही है, पर ठाकरे के अलावा बाकी तीन मुख्यमंत्री कांग्रेस को साथ नहीं लेना चाहते। इन घटनाओं को मार्च में होने वाले इन मुख्यमंत्रियों के प्रस्तावित सम्मेलन के संदर्भ में देखिए तो नीति और नीयत, दोनों साफ दिखेगी। मोदी को चुनाव मैदान में राष्ट्रीय स्तर पर हराने में नाकाम ये दल अब एक नया विमर्श खड़ा करना चाहते हैं। इस विमर्श के लिए आड़ तो राज्यों के अधिकारों की ली जा रही, लेकिन काम संघीय ढांचे के खिलाफ किए जा रहे।
यह एक तरह से मोदी के 'कोआपरेटिव फेडरलिज्म' को चुनौती है। इन पार्टियों ने तय किया है कि मोदी को कमजोर करना है तो टकराव का रास्ता अपनाना होगा। इसी नीति के तहत अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के मामले में केंद्र सरकार के प्रस्तावित नियमों का पुरजोर विरोध हो रहा है। केंद्र में अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की भारी कमी है, पर कई गैर भाजपा शासित राज्य इस मामले में अपना वीटो पावर छोडऩे को तैयार नहीं हैं। इसी रणनीति के तहत एक-एक करके इन राज्यों में सीबीआइ को मिली सामान्य अनुमति रद कर दी है। इसकी वजह से भ्रष्टाचार के कई बड़े मामलों की जांच रुकी हुई है। ये मुख्यमंत्री यह समझने को तैयार नहीं है कि वे मोदी को कमजोर करने की कोशिश में संविधान और देश को कमजोर कर रहे हैं।
Rani Sahu

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