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By लोकमत समाचार सम्पादकीय
शिवसेना के उद्धव ठाकरे तथा एकनाथ शिंदे को निर्वाचन आयोजन ने नया नाम और नया चिन्ह दे दिया है. दोनों गुटों के नाम में शिवसेना के संस्थापक बालासाहब ठाकरे जुड़ा है. शिंदे गुट को ढाल-तलवार और उद्धव गुट को मशाल मिली है. दोनों गुट बालासाहब की विरासत पर दावा कर रहे हैं लेकिन यह तो जनता ही तय करेगी कि शिवसेना के संस्थापक का असली उत्तराधिकारी कौन है.
शिवसेना में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में 40 विधायकों ने बगावत कर दी थी. इसके बाद शिवसेना-कांग्रेस-राकांपा की महाविकास आघाड़ी सरकार गिर गई और भाजपा के साथ गठबंधन कर एकनाथ शिंदे नए मुख्यमंत्री बन गए. विभाजन के बाद दोनों गुटों में पंचायत चुनावों में पहला परोक्ष शक्ति परीक्षण हुआ था.
दोनों गुटों ने जीत के दावे किए लेकिन चूंकि चुनाव किसी पार्टी या उसके आधिकारिक चुनाव चिन्ह पर नहीं लड़े गए थे, इसीलिए यह सच्चाई सटीक रूप से सामने नहीं आई कि जीता कौन. इसके बावजूद एक बात साफ हो गई कि दोनों गुटों के बीच शिवसेना के कार्यकर्ता बंट गए हैं. शिवसेना की परंपरागत दशहरा रैली में भी शिंदे तथा उद्धव ने अपनी ताकत का प्रदर्शन तो किया.
इससे भी यह स्पष्ट हो गया कि पार्टी का वोट बैंक बंट गया है. उद्धव ठाकरे तथा एकनाथ शिंदे दोनों ही विशाल भीड़ जुटाने में कामयाब हुए थे और दोनों ही तरफ से दावा किया गया था कि भीड़ उनकी रैली में ज्यादा आई. अब चुनाव चिन्ह और पार्टी के नाम को लेकर स्थिति साफ हो गई है इसीलिए निकट भविष्य में होने वाले चुनाव में तय हो जाएगा कि बालासाहब की विरासत का असली वारिस जनता किसे मानती है.
भारतीय राजनीति में विरासत की यह जंग पहली बार नहीं हो रही है. पांच दशक पहले जब कांग्रेस में विभाजन हुआ था, तब निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाली संगठन कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में जनता ने बुरी तरह खारिज कर इंदिरा गांधी के नेतृत्ववाली इंदिरा कांग्रेस को सिर आंखों पर बैठाया था. अस्सी के दशक में तमिलनाडु में द्रमुक का विभाजन हो गया था.
लोकप्रिय तमिल अभिनेता एम.जी. रामचंद्रन ने बगावत कर अन्ना द्रमुक बना ली. एम. करुणानिधि द्रमुक का नेतृत्व करते रहे. द्रमुक के संस्थापक अन्ना दुरई की विरासत का उत्तराधिकारी हर चुनाव में राज्य की जनता ने एम.जी. रामचंद्रन को माना. जब तक रामचंद्रन जीवित रहे, जनता ने करुणानिधि की द्रमुक को सत्ता नहीं सौंपी. यह बात अलग है कि संगठन कांग्रेस जिसे कांग्रेस (ओ) भी कहा जाता था, की तरह द्रमुक खत्म नहीं हुई क्योंकि करुणानिधि का व्यापक जनाधार था.
यही स्थिति अब शिवसेना में आई है. मुख्यमंत्री शिंदे तथा उद्धव ठाकरे भले ही यह दावा कर रहे हों कि जनता एवं शिवसैनिक उनके साथ हैं लेकिन निकट भविष्य में होने वाले चुनाव में असली फैसला जनता करेगी. महाराष्ट्र विधानसभा की अंधेरी (पूर्व) सीट के लिए कुछ हफ्ते बाद उपचुनाव होगा लेकिन उसमें दोनों गुटों के बीच शक्ति परीक्षण नहीं होगा क्योंकि मुख्यमंत्री के नेतृत्ववाली 'बालासाहेबांची शिवसेना' मैदान में नहीं है. वह भाजपा का समर्थन कर रही है मगर उद्धव ठाकरे की पार्टी के लिए यह उपचुनाव पहली अग्निपरीक्षा होगी.
यदि ठाकरे यह उपचुनाव जीत लेते हैं तो उनकी पकड़ जनता तथा कार्यकर्ताओं पर मजबूत मानी जाएगी. दोनों गुटों के बीच पहली तथा वास्तविक जोर-आजमाइश बृहन्मुंबई महानगर पालिका के दो माह बाद होने वाले चुनाव में होगी.
अगर ठाकरे अपने इस गढ़ को सलामत रख लेते हैं तो यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट हो जाएगा कि भाजपा के साथ मिलकर भी शिंदे खुद को जनता की अदालत में बालासाहब की विरासत का वारिस नहीं साबित कर सके हैं. इसके बाद राज्य के अन्य हिस्सों में स्थानीय निकाय चुनाव हैं तथा 2024 में विधानसभा चुनाव हैं. जनता जिसे अपना लेगी, वह बालासाहब का असली उत्तराधिकारी समझा जाएगा.

Rani Sahu
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